जब नदी ही नहीं रहेगी…

हिमाचल प्रदेश के किन्नर कैलाश, धौलाधार और मध्य हिमालय क्षेत्र में विगत 10 वर्षों में 265 नई ऐसी झीलों का निर्माण रिकॉर्ड किया गया है जिससे संपूर्ण ऊपरी क्षेत्र में एवलॉन्च आने की गति और संख्या दोनों बढ़ सकती हैं…

भारत में यद्यपि विश्व के अन्य भूभागों की तरह बड़ी नदी बांध परियोजनाओं के विरोध का सिलसिला बहुत पुराना हो चला है और देश में क्लीन एनर्जी के नाते सफेद सोने के दोहन के नाम पर जलविद्युत परियोजनाओं का जाल बिछ चुका है, मगर पर्यावरण और पारिस्थितिकी के प्रति मानवीय सोच, पर्यावरण प्रदूषण और इन परियोजनाओं के दुष्प्रभावों की तथ्यपरक और वैज्ञानिक कसौटी पर कसी जानकारी के बाद वैश्विक स्तर पर इन परियोजनाओं का विरोध स्वर मुखर हो चला है। यद्यपि नदी जल परियोजनाओं  ऋषिगंगा, तपोवन जलविद्युत परियोजनाओं और देश में जारी किसान आंदोलन में प्रत्यक्ष रूप में कोई समानता या संबंध प्रतीत नहीं होता, परंतु इन सबके मूल में एक समानता है- हिमालय और हिमालय से निकलने वाली नदियों का प्रवाह। इस विषय पर आम भारतीय की सोच और समझ, चिंता और चिंतन न के बराबर है और यदि है तो केवल ‘जब होगा तब देखा जाएगा’ वाली स्थिति तक ही है। यही कारण है कि उत्तराखंड में केदरानाथ महाप्रलय के बाद भी पहाड़ चेते नहीं और वर्तमान शासनिक व्यवस्था का आलम, योजना तो बस धनाधारित बचाव सहायता और पुनर्निर्माण तक सीमित है। हिमालय के हिमनदों से पोषित झीलों और स्रोतों से उद्गमित गंगा, यमुना, कोसी, काली, ब्रह्मपुत्र, रावी, चिनाब, झेलम, सतलुज, मानसरोवर, पैंगोंग सरीखे जीवनदायी इन प्राकृतिक देवतुल्य संपदाओं पर जिस गति और प्रसार से अस्तित्व का खतरा मंडरा रहा है, हम सोचने पर मजबूर हो गए हैं ‘जब नदी ही नहीं रहेगी’, और यह कोई कपोल कल्पित कथा या कहानी नहीं, अपितु वैज्ञानिक शोध पर आधारित एक चिरंतन सत्य है। ऋषि गंगा पर रैणी के ऊपर धौली गंगा के संगम से उत्पान जल दैत्य को बस फ़्लैश फ्लड बता कर इतिश्री कर लेने वाले गोदी मीडिया और उनको पोषित करने वाली व्यवस्था का यह आकलन निश्चित रूप से सही नहीं है। हज़ारों टन मलबा, चट्टानों और गाद से भरा विशालकाय भंडार जो एक हैंगिंग ग्लेशियर के अग्रभाग के टूटने से ऋषिगंगा को अवरुद्ध कर अचानक संकरी घाटी में 20 से 25 मीटर ऊंचे विशाल बुलडोज़र की तरह टूट पड़ा और अपने साथ बहा ले गया कुछ सैकड़ों जिंदगियां और एक पल्लवित पोषित हरी भरी ग्रामीण संस्कृति जिसके लिए गंगा मां और हिमालय पिता तुल्य है।

 यह जानकारी देश के चीन  से लगते सामरिक क्षेत्र के सुरक्षा चक्र को मजबूती प्रदान करने के लिए दो विशेष वैज्ञानिक संस्थानों को समाहित कर बनाई गई डिफेंस जिओ इन्फार्मेटिक्स रिसर्च इस्टैब्लिशमेंट के उन विशेषज्ञों की रिपोर्ट पर आधारित है जो निरंतर इस क्षेत्र में न सिर्फ सक्रिय, अपितु दैनिक आधार पर डाटा जमा करने के बावजूद यह मानते हैं कि इस प्रकार की आपदाओं का पूर्वानुमान संभव नहीं है। यदि हमारे पास इस प्रकार का दैनिक आधारित डाटा न भी हो तो भी गत 20 वर्षों की विभिन्न घटनाओं के बल पर यह सत्यापित किया जा सकता है कि संपूर्ण हिमालय क्षेत्र, जिसे तीसरे हिम पोल की संज्ञा भी दी गई है, और भारत सहित एशिया महाद्वीप की अधिकांश नदियों का जीवनदाता भी है। इस कड़ी में नेपाल स्थित आईसीआईएमओडी और भारतीय भूगर्भ वैज्ञानिकों के हिमालय संबंधी शोध के प्रमुख संस्थानों में एक वाडिया इंस्टिट्यूट, एसएएसई के हिमालय क्षेत्र के प्रमुख 25 ग्लेशियरों के 15 वर्षीय अध्ययन से स्पष्ट हो गया कि 2005 के बाद यह सब हिमनद द्रुतगति से सिकुड़ रहे हैं। अकेले  गंगोत्री ग्लेशियर के 1995-1999 के मध्य 850 मीटर सिकुड़ना निश्चित रूप से भयावह संकेत है। गौमुख पहले ही काफी सिकुड़ चुका है। केवल यही दो नहीं, आईसीआईएमओडी के अध्ययन और जेएनयू के डा. मिलाप शर्मा, जो इस प्रकल्प से जुड़े और ग्लेशियरों पर विगत 25 साल से काम कर रहे हैं, के अनुसार बड़े शहरों से पैदा कार्बन उत्सर्जन इनको तेजी से पिघलाने का काम कर रहा है और यह निरंतर बढ़ रहा है। लद्दाख क्षेत्र में हरित क्रांति के नाम से बड़े पेड़ों और मानवीय गतिविधि के दुष्परिणाम हम भुगत चुके हैं। इन सबसे अधिक चिंता का विषय है एशियाई ब्राउन क्लाउड, जिसे वैज्ञानिक भाषा में समझें तो हिमनद को एक परत के रूप में ढक  लेने के बाद एक इंसुलेशिन का काम करता है और हिंदुकुश हिमालय के सभी ग्लेशियर एबीसी की चपेट में हैं और इसका असर भारत-तिब्बत-चीन सहित पूरे दक्षिण पूर्व एशिया पर होना निश्चित है। इसका अर्थ यही है कि हिंदुकुश क्षेत्र के ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगेंगे। फलस्वरूप पहले कुछ वर्षों में बाढ़, गाद, अपशिष्ट नदी घाटियों को भर देंगे और जल विद्युत परियोजनाओं के जलाशयों को भी, बाद में सूखा। यह दृश्य भी कपोल कल्पना नहीं है।

 हिमाचल प्रदेश के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग एवं हिमकॉस्ट के वरिष्ठ वैज्ञानिक रंधावा के अनुसार हिमाचल प्रदेश के किन्नर कैलाश, धौलाधार और मध्यहिमालय क्षेत्र में विगत 10 वर्षों में 265 नई ऐसी झीलों का निर्माण रिकॉर्ड किया गया है जिससे संपूर्ण ऊपरी क्षेत्र में एवलॉन्च आने की गति और संख्या दोनों बढ़ सकती हैं। जल विद्युत परियोजनाओं में होने वाले निर्माण कार्यों, बांधों, सड़कों और सुरंगों से पर्यावरण पर पड़े दुष्प्रभावों को जिला किन्नौर  लंबे समय से देख रहा है। कड़छम-वांगतू  बास्पा की वजह से भूक्षरण, पेयजल योजनाओं का सूखना, लैंड स्लाइड्स भयावह रूप ले चुके हैं। हिमधारा नामक स्वैच्छिक संस्था द्वारा 2012 में प्राप्त जानकारी के अनुसार 167 में से 43 पेयजल योजनाएं पूरी तरह सूख चुकी हैं और 67 के डिस्चार्ज में 30 फीसदी तक की कमी आई है। परियोजना क्षेत्र में बारूदी सुरंगे फटने से घरों में दरारें और 2-4 मजदूरों की कार्यस्थलों पर मौत आम कहानी  है। सतलुज नदी घाटी की तरह ही चिनाब बेसिन यानी लाहुल-स्पीति में भी 2239 मैगावाट की 37 जल विद्युत परियोजनाएं हैं जिनसे खतरा है। इन सभी परियोजनाओं के ग्लेशियर जनित नालों और चंद्रभागा नदी पर होने के साथ-साथ अति संवेदनशील सीमांत क्षेत्र बहुत ही नाजुक पारिस्थितिकी, पर्यावरण एवं कुछ दुर्लभ प्रजातीय वनस्पति, जीव-जंतुओं के आश्रय स्थल होने के कारण स्थानीय पंचायतों और पर्यावरणविदों के आक्रोश के कारण यह परियोजनाएं अभी अधर में हैं। पनविद्युत का विकल्प हो सकता है। सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा तथा कुछ अन्य विकल्प श्रेष्ठ हैं। लेकिन खेती का कोई विकल्प नहीं है, किसान उगाएगा तो देश खाएगा, किसान उगाएगा तब जब जल होगा। जल तब होगा जब नदी होगी, जब नदी ही नहीं होगी तब क्या होगा?


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