चंबा के भटियात क्षेत्र में भाखां लोकगायन

By: Mar 7th, 2021 12:04 am

कुलभूषण उपमन्यु,  मो.-9418412853

चंबा जिला में चंबयाली, भरमौरी, चुराही, पंगुआली, भटियाली भाषा-बोलियों के क्षेत्रीय रूपों में भी लोकसाहित्य विविधा के अनेक रूप प्रचलन में हैं। चंबा जिला के लोकसाहित्य के विषय में राष्ट्र स्तर पर जानकारी हिंदी साहित्य के वृहद इतिहास के सोलहवें खंड में मिलती है जिसका संपादन महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने किया है। इसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी ने किया है। इसमें श्री हरिप्रसाद सुमन द्वारा चंबयाली लोकसाहित्य संबंधी शोध सर्वेक्षण संकलित है। चंबयाली लोकगायन का सुर संगीत लालित्य अत्यंत कर्णप्रिय है। मैंने इस आलेख में भटियात में भाखां गायन शैली के रूप-स्वरूप का विवेचन करने की कोशिश की है। भाखां लोक गायन शैली भटियात क्षेत्र की विशिष्ट लोकगायन शैली है। इसे खड़े गीत भी कहा जाता है। इस शैली का अपना अलग ही ठाठ है। गायन मंडली में गायकों के अलावा ढोलक वादक, चिमटा वादक और नाट (नर्तक) शामिल होते हैं।

एक मंडली में 6 से 8 सदस्य होते हैं। पहले लोग छोटे-मोटे उत्सवों पर अपने घरों में बुला कर कार्यक्रम आयोजित करवाते थे। शादियों में तो यह गायन विशेष महत्त्व रखता था। अपने नजदीकी रिश्तेदारों के घरों में उत्सवों और शादी-विवाह में गायन मंडलियों को ले जाकर गीत गवाने का प्रचलन था। शादियों में सप्ताह-दो सप्ताह पहले रात्रि गायन के कार्यक्रम शुरू हो जाते थे। इसी दौरान रिश्तेदार भी अपनी ओर से गायन मंडलियों को संगीत गवाने ले जाते थे। शादी वाले घर को पहले ही सूचित कर दिया जाता था कि अमुक दिन हम गीत लेकर आ रहे हैं। घर वाले उनके स्वागत की व्यवस्था करने के अलावा आस-पड़ोस में भी भाखां गायन कार्यक्रम की सूचना दे देते। सबके बैठने की व्यवस्था की जाती। कई बार दो-दो मंडलियां इकट्ठी हो जातीं, तो उनमें आपस में मुकाबला शुरू हो जाता।

गायन कार्यक्रम की शुरुआत गायन स्थल के पास पहुंचने से ही हो जाती। जिनके घर में कार्यक्रम होता, उनके घर से सौ-डेढ़ सौ मीटर पहले से ही अपने आगमन की सूचना गीतों के माध्यम से दे दी जाती। इस गीत को बत्त कहा जाता है। बत्त अर्थात रास्ता। एक बानगी ः ‘बत्ता म्ह्ली कैंह ख्ड़ोता मेरेया जालमा हो’ अर्थात रास्ते में रुकावटें हैं। फिर घर के पास ड्योढ़ी में पहुंच कर घर वालों को सुनाते हुए यह गीत गाया जाता ः ‘औंदेयां साजना गोरिए क्या आदर करिए, औंदेयां साजना पंद-पदोटू देईये’। यानी आपके घर मेहमान आ गए हैं, उनके बैठने का प्रबंध कर लीजिए। फिर बैठने के बाद चायपान आदि के बाद गायन का कार्यक्रम श्रोताओं की पसंद के अनुसार शरू होता। प्रथम गणेश वंदना जरूरी होती। बाद में श्रोताओं की पसंद का किस्सा, छुटपुट गीत आदि गाए जाते। कुछ गीत विशेषकर नाचने के लिए गाए जाते, जिन पर नर्तक मोहक नृत्य पेश करते।

पुरुषों द्वारा पेश किया जाने वाला  यह नृत्य अपने आप में अनोखा है, जिसकी कुछ झलक जम्मू क्षेत्र में भी दिखाई देती है। पूरन भगत, हीर रांझा, लछमन-जोग, राम-वनवास, कृष्ण-लीला, रूप-वसंत, मोती राम आदि किस्से गाए जाते। बीच-बीच में नृत्य वाले गीत गाए जाते ताकि कार्यक्रम मनोरंजक बना रहे ः ‘ल्ह्फ जायां पीपल दिए डालिए, के पन्छियां ने उड़ जाणा, रेही जाणा पिंजरा खाली के पन्छियां ने उड़ जाणा’। अर्थात नम्रता से रहो पंछी तो उड़ जाएंगे, खाली शरीर पड़ा रहेगा, आत्मा तो चली जाएगी। ‘मेला नंदपुर दा, मेले जाणा जरूर’ आदि गीत विशेषकर नृत्य के लिए चुने जाते। नर्तक जिसे बेधक भी कहा जाता, गीत का बंद बोलने के बाद उपरोक्त या इस जैसे कई गीतों पर नाचता। नर्तक की पोषाक का विशेष ध्यान रखा जाता। परंपरागत भटियाली वेशभूषा सफेद कमीज, चूड़ीदार सफेद पायजामा, सिर पर सफेद पगड़ी और कमर में पटका, पैरों में घुंघरू पहने नाट कार्यक्रम की रौनक होता। खेद है कि अब नए-नए मनोरंजन के साधनों की भीड़ में यह अनुपम विधा लुप्त होती जा रही है। भटियात साहित्य, संस्कृति एवं कला मंच जैसे कुछ समूह इसके संरक्षण के लिए कुछ प्रयास कर रहे हैं। अब चंबा के मिंजर मेला जैसे राष्ट्रीय मंचों पर भी इसकी प्रस्तुतियां की जाने लगी हैं। फिर भी बहुत सा पुराना लोकसाहित्य जो इस विधा के जानकारों के पास मौखिक रूप से जिंदा है, उसे संरक्षित करने की जरूरत है। वर्तमान में चैन सिंह, गणपत, प्रकाश चंद, मुंशी राम, अतुल, विनोद कुमार आदि इस विधा के जानकार हैं, जिनके सहयोग से प्रलेखन कार्य किया जा सकता है।


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