कृषि की राह में कारपोरेट रोड़े

तो फिर आखिर ऐसी नीतियां जो हर दृष्टि से लाभदायक हैं, क्यों नहीं अपनाई जातीं? इस सवाल का स्पष्ट उत्तर है कि जो बड़े पूंजीपति खेती, किसानों का आत्म-निर्भर विकास नहीं चाहते, वे इन नीतियों की राह में बाधा उपस्थित करते हैं। उनका मानना है कि यदि किसान व गांव आत्म-निर्भर बन गए तो हम उनसे कैसे कमाएंगे। ये पूंजीपति चाहते हैं कि किसान निरंतर निर्भर बना रहे, बीज, रासायनिक खाद व कीटनाशक, खरपतवार-नाशक, फफूंद-नाशक दवा खरीदता रहे, अधिक डीजल खरीदता रहे, अधिक शराब पीता रहे, गुटका खाता रहे, क्योंकि तभी तो पूंजीपति को किसानों व ग्रामीणों से कमाने का अवसर मिलता है। देश-विदेश-दुनिया भर के बड़े पूंजीपति चाहते हैं कि किसान व गांव समुदाय की आत्मनिर्भरता बढ़ने के स्थान पर निरंतर कम हो, किसान के खर्च कम होने के स्थान पर निरंतर बढ़ें…

दुनियाभर में कृषि का मौजूदा तरीका अब सवालों के घेरे में आता जा रहा है। उत्पादन में गैर-जरूरी वृद्धि पर आधारित यह तरीका पर्यावरण, पानी, जमीन, हवा जैसे कृषि के प्राकृतिक उपादानों को खतरे में डाल रहा है और कहीं-कहीं तो ये समाप्त भी हो गए हैं। इस बर्बादी की वजह क्या है? इस विषय पर चिंतन करना जरूरी हो गया है। आज विश्व स्तर पर यह जरूरत महसूस की जा रही है कि कृषि नीति छोटे किसानों के हितों के अनुरूप हो व उनके खर्च और कर्ज के बोझ को कम करते हुए आजीविका के आधार को मजबूत करे। दूसरी बड़ी जरूरत यह है कि कृषि पर्यावरण के अनुकूल हो। यदि मिट्टी व जल संरक्षण सुनिश्चित हो, किसान के मित्र सभी जीवों की व सूक्ष्म जीवों की, केंचुओं व कीट पतंगों की, देसी नस्ल के पशुओं व परागीकरण करने के पक्षियों-कीटों-मधुमक्खियों और परंपरागत बीजों की रक्षा हो तो खेती के टिकाऊ व कम खर्चीले विकास की राह प्रशस्त होती है तथा साथ में ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन भी कम होता है। यह तय करना कठिन नहीं है कि हमें कौन सी कृषि की राह अपनानी चाहिए। यह राह ऐसी होनी चाहिए जिससे बाहरी खर्च (जैसे रासायनिक खाद व कीटनाशक दवा) न्यूनतम हो, स्थानीय संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग हो, जिससे किसान समुदायों की आत्म-निर्भरता बढ़े, जिससे परंपरागत ज्ञान व जैव-विविधता का भी सम्मान हो, जो अपने बल पर बाहरी संकटों से जूझने में समर्थ हो, जो पर्यावरण की रक्षा पर आधारित भी हो तथा साथ में मिट्टी, पानी और पर्यावरण की रक्षा को आगे भी बढ़ाए।

अब यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुका है कि मिट्टी के आर्गेनिक या जैविक तत्त्व स्थानीय स्तर पर पत्तियों, पौधों-फसलों के अवशेषों, गोबर आदि के गलने-सड़ने से या केंचुओं जैसे जीवों की प्रक्रियाओं से बनते हैं और इनमें कार्बनडायक्साईड जैसी प्रमुख ग्रीन हाऊस गैस सोखने की व इस तरह जलवायु बदलाव के संकट को कम करने की बहुत क्षमता है। इसके अतिरिक्त स्थानीय मिश्रित प्रजातियों के जितने पेड़ पनपेंगे, बचेंगे, चरागाह जितने पनपेंगे, धरती जितनी शस्य-श्यामला बनेगी, जितनी वन-रक्षा होगी, उतना ही ग्रीन हाऊस गैसों का प्रकोप कम होगा व साथ में मिट्टी व जल संरक्षण, जैव-विविधता का संरक्षण भी होगा। तो फिर आखिर ऐसी नीतियां जो हर दृष्टि से लाभदायक हैं, क्यों नहीं अपनाई जातीं? इस सवाल का स्पष्ट उत्तर है कि जो बड़े पूंजीपति खेती, किसानों का आत्म-निर्भर विकास नहीं चाहते, वे इन नीतियों की राह में बाधा उपस्थित करते हैं। उनका मानना है कि यदि किसान व गांव आत्म-निर्भर बन गए तो हम उनसे कैसे कमाएंगे।

 ये पूंजीपति चाहते हैं कि किसान निरंतर निर्भर बना रहे, बीज, रासायनिक खाद व कीटनाशक, खरपतवार-नाशक, फफूंद-नाशक दवा खरीदता रहे, अधिक डीजल खरीदता रहे, अधिक शराब पीता रहे, गुटका खाता रहे, क्योंकि तभी तो पूंजीपति को किसानों व ग्रामीणों से कमाने का अवसर मिलता है। देश-विदेश-दुनिया भर के बड़े पूंजीपति चाहते हैं कि किसान व गांव समुदाय की आत्म-निर्भरता बढ़ने के स्थान पर निरंतर कम हो, किसान के खर्च कम होने के स्थान पर निरंतर बढ़ें, ताकि पूंजीपति उनसे अधिक कमा सकें। यही वजह थी कि इन बड़े पूंजीपतियों व कंपनियों ने आत्म-निर्भर खेती करने वाले किसानों को हरित क्रांति की भ्रांति पैदा करते हुए एक ऐसी राह पर धकेलना आरंभ किया जिससे वे निरंतर महंगे बीज, रासायनिक खाद, दवा आदि के लिए बाजार पर निर्भर होते जाएं व अपनी एक मुख्य शक्ति पशुधन को कम कर दें। इसके बाद उनका दूसरा कदम था बीजों के पेटेंट करने व जीन-संशोधित (जी-एम) फसलों के प्रसार को बढ़ाना, क्योंकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को खेती पर नियंत्रण और बढ़ाना था। इसी राह पर चलते हुए वे ठेका खेती, खर्चीली खेती, निजीकरण, कंपनियों द्वारा जरूरी खाद्य की जमाखोरी की प्रवृत्ति के लिए जोर लगा रहे हैं व इसके लिए कानून बनवाने का प्रयास कर रहे हैं। वे विश्व के अनेक क्षेत्रों में सफल भी हो रहे हैं क्योंकि उनके साथ सरकारी अधिकारियों व राजनेताओं, विशेषज्ञों, अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों, मीडिया कर्मियों, एनजीओ आदि की एक बड़ी फौज है और वे एक-दूसरे का पोषण करते रहते हैं।

यहां तक कि वे समय-समय पर अपने व्यक्तियों को ट्रेनिंग देकर किसानों के नेता के रूप में प्रतिष्ठित कर देते हैं और उसे सरकारी मान्यता दिलवा देते हैं। ऐसे में जरूरी है कि किसानों की अपनी स्पष्ट समझ बनाने के रूप में ताकत बने और पूरी तरह ईमानदार व्यक्ति उनके साथ सहायता के लिए जुड़े ताकि कृषि, किसानों, कृषि से जुड़े पर्यावरण, सभी की रक्षा एक साथ हो सके। इसके साथ भूमिहीनों के सरोकारों को जोड़ना बहुत जरूरी है। प्रयास यही होना चाहिए कि कम से कम कुछ भूमि उन्हें अवश्य मिले तथा इसके साथ वन-रक्षा, वनीकरण, जल व मिट्टी संरक्षण जैसे कार्यों में उन्हें निरंतरता से अधिक संतोषजनक रोजगार मिले। तभी किसानों का सही अर्थों में कल्याण हो पाएगा। ऐसी ही मांगों को लेकर देश में इन दिनों किसान आंदोलन कर रहे हैं। उनके अनुसार संसद द्वारा पारित किए गए तीनों कृषि कानून केवल पूंजीपतियों के पक्ष में हैं, किसानों का उनसे कोई भला होने वाला नहीं है, इसलिए किसानों की मांग है कि इन तीनों कानूनों को वापस लिया जाए।

साथ ही उनकी मांग है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानून के जरिए अनिवार्य बनाया जाए। उधर सरकार की अपनी सोच है और वह इन कानूनों को किसानों के पक्ष में मानती है। इसलिए वह किसानों की मांगों की ओर कोई तरजीह नहीं दे रही है और किसानों तथा सरकार के बीच वार्ता भी अब बंद है। न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रूप देने में सरकार को कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। वह एमएसपी को लेकर लिखित आश्वासन दे रही है, लेकिन इसे कानूनी रूप देने से पीछे हट रही है। इस स्थिति में किसानों के पास केवल एक ही विकल्प बचा है कि वे आंदोलन को जारी रखें तथा अपनी मांगों के लिए सरकार पर दबाव बनाए रखें। इसीलिए किसान इन दिनों दूसरे पक्ष को अडि़यल दिखने लगे हैं।


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