आर्थिक संपन्नता से ही सांस्कृतिक समृद्धि

इन गीतों की धुनों में हम अपनी लोकसंस्कृति, लोक सहित्य तथा लोकसंगीत को अपने हृदय के अन्तःकरण से महसूस करते हैं। इन लोक परंपराओं को सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक रूप से बढ़ावा दिया जाना चाहिए क्योंकि ये केवल विशेष पर्व या महीने पर गाए जाने वाले मात्र गीत ही नहीं, बल्कि एक समुदाय की परंपरा के वाहक हैं…

सामाजिक परंपराएं ही सशक्त संस्कृति का आधार होती हैं। सांस्कृतिक संरक्षण एवं संवर्धन सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक तथा प्रशासनिक दृढ़ इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है। सुदृढ़ सामाजिक ढांचा सभी धर्मों, जातियों, समाजों तथा वर्गों के मजबूत ताने-बाने पर निर्भर करता है। परस्पर सहयोग, प्रेम भाव, सौहार्द तथा भाईचारे  की भावना से एक मजबूत समाज का निर्माण होता है। हिमाचल प्रदेश में अनेक तीज-त्यौहार, पर्व, रीति-रिवाज, परंपराएं प्रचलित हैं। इन्हीं में से एक है ढोलरू गायन परंपरा। इस गायन को ऋतु परिवर्तन के साथ भी जोड़ा जाता है। चैत्र महीने में गाए जाने के कारण इन लोकगीतों को चैत महीना, चैती गाथाएं या महीने दा नां भी कहा जाता है। ये गाथाएं बांस के बर्तन बनाने वाले तथा विरासत से नगाड़ा तथा शहनाई बजाने वाली विशेष जाति द्वारा चैत्र मास की संक्रांति से मासांत तक गाई जाती हैं। यह एक मांगलिक प्रक्रिया है जो मंगलामुखी समुदाय के लोगों के मुंह से ही सुना जाना लाभप्रद, श्रेयस्कर तथा मंगलकारी होती है। जि़ला कांगड़ा, चंबा, हमीरपुर तथा बिलासपुर की सांस्कृतिक विरासत में पीढ़ी दर पीढ़ी प्रचलित इस लोक परंपरा में यह मान्यता है कि चैत्र महीने का नाम तब तक नहीं लेते जब तक ढोलरू गायक सुना न दें। ढोलरू गीत सुना कर ये लोग सुनने वालों को  हरी द्रुब भेंट करते हैं जो कि हरियाली, समृद्धि, संपन्नता तथा खुशहाली का प्रतीक है।

इस विशेष जाति के लोग अपने आप को भगवान शिव का भक्त मानते हैं। कांगड़ा-चंबा  जि़लों में इस परंपरा को चैत्र मास, चैती, विरसा लोक गायन, महीने का नाम तथा ढोलरू आदि कई नामों से जाना जाता है। इन जिलों में ढोलरू गायन परंपरा के विभिन्न परंपरागत रूप प्रचलित हैं जिनमें पहला नां, बिजलो, द्रुबड़ी, गद्दण, धोबण, राजा बैंसर, मुरुहआ, नैणजा दई, रूहला दी कुल्ह, राणी कण्डी, राणी सूही तथा कलोहे दी वां आदि विशेष रूप से प्रचलित हैं जो सुख-समृद्धि, बलिदान परक घटनाओं, श्रृंगार तथा हास्य एवं विनोदात्मकता से परिपूर्ण हैं। ढोलरू जैसी गायन परंपरा में जाति विशेष की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, आत्मिक विश्वास, सामाजिक ताने-बाने की मजबूती, आपसी प्रेम भाईचारे के साथ एक दूसरे की परस्पर निर्भरता प्रतीत होती है। जिस ढोलरू गायन को हम निम्न जाति का पुश्तैनी एवं परंपरागत कार्य समझते हैं, वह लोगों के द्वारा आत्म सम्मान तथा देव कार्य से प्रेरित है। ढोलरू गायक इसे पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा आत्म-सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। इस परंपरा में कहीं न कहीं यह वर्ग अपनी रोजी-रोटी, आजीविका के लिए संपन्न वर्ग पर निर्भर करता है।

 वर्तमान में भौतिकवादी तथा आधुनिकता की अंधी दौड़ में ये परंपराएं अतीत में छूट रही हैं, लेकिन कुछ समाजों, वर्गों तथा जातियों के लोग इन परंपराओं को जीवित रखने के प्रयास कर रहे हैं। इस जाति-वर्ग द्वारा यह परंपरा समाज में सुख-शांति तथा समृद्धि का संदेश देती हैं। परंपरा से बंधे तथा सांस्कृतिक संरक्षण के उद्देश्य से इन लोगों का ढोलरू गायन सुनना सुख-समृद्धि का प्रतीक समझा जाता है। विभिन्न जि़लों में ढोलरू गाने की अलग-अलग शैलियां मिलती हैं। ढोलरू गीतों में कई प्रकार की घटनाओं के साथ-साथ मानवीय मूल्यों की भी शिक्षा दी जाती है। ढोलरू लोकगायन सामाजिक मूल्यों से अवगत करवाता हुआ जीवन दर्शन से प्रेरित मूल्यों को सोचने-समझने तथा विचारने के लिए बाध्य करता है। ढोलरू गीत पहाड़ी साहित्य की दृष्टि से सच्ची घटनाओं का वर्णन करते हुए व्यंग्यात्मक शैली में सामाजिक कुरीतियों, प्रेम-प्रसंगों, महिला शोषण, बलिदानों तथा बलि जैसी प्रथा पर बलिदानी महिलाओं पर प्रकाश डालते हुए श्रृंगार, विरह, करुणा तथा शांत रसों की वृष्टि करते हैं। प्रदेश के वरिष्ठ साहित्यकार एवं सांस्कृतिक कर्मी डा. गौतम शर्मा व्यथित के अनुसार ढोलरुओं का कथानक किसी राजा, रानी, समाज के प्रतिष्ठित संपन्न पुरुष-स्त्री के परस्पर संबंधों की चर्चा, प्रेमी-प्रेमिका का परस्पर संयोग एवं वियोग, पशु-पक्षियों की मानवीय जीवन में विशेषकर प्रणय रहस्यों में, नायक-नायिका का स्वप्न दर्शन द्वारा परस्पर आकर्षित होना, मिलने की अकुलाहट, दूतियों की सहयोग प्राप्ति, बहू पर संदेह भावना आदि को लेकर बुना गया है। इनका भावलोक मूलतः अभिजात्य वर्ग में बने सास, बहू, ननद, भावज, राजा-रानी, रूप सौंदर्य आदि तत्वों के प्रति बने प्रतिमानों की सहज अभिव्यक्ति से जुड़ा है। इन गीतों में जनमानस अपना दुख-दर्द, प्रेम, करुणा बिरहा तथा हास-परिहास का माध्यम अनुभूत करता है।

इन गीतों की धुनों में हम अपनी लोकसंस्कृति, लोक सहित्य तथा लोकसंगीत को अपने हृदय के अन्तःकरण से महसूस करते हैं। इन लोक परंपराओं को सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक रूप से बढ़ावा दिया जाना चाहिए क्योंकि ये केवल विशेष पर्व या महीने पर गाए जाने वाले मात्र गीत ही नहीं, बल्कि एक समुदाय की परंपरा के वाहक हैं। अपनी हस्तकला तथा लोक संगीत कला के माध्यम से यह समुदाय अपनी आजीविका चलाते हैं। ढोलरू परंपरा के माध्यम से यह समुदाय समाज में प्रेम, भाईचारे तथा भावनात्मक रूप से जोड़ने का कार्य करता है। प्रदेश सरकार चाहे तो ढोलरू परंपरा के वाहक इस वर्ग के परिवारों का संस्कृति विभाग के माध्यम से पंजीकरण करवा कर चैत्र महीने में तो विशेष अनुदान तथा सहायता राशि प्रदान कर उन्हें प्रोत्साहित कर सकती है। भौतिकवादी तथा आधुनिकता की अंधी दौड़ में वर्तमान पीढ़ी ने भगवान शिव से अन्न, धन तथा समृद्धि का वरदान प्राप्त किए इस वर्ग को भिखारी समझना शुरू कर दिया है। परंपरा तथा प्राचीन संस्कृति के वाहक इस वर्ग का भी मान-सम्मान होने के साथ आर्थिक रूप से भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए, नहीं तो भविष्य में प्रसन्नता, शुभ शगुन, उल्लास तथा मंगल कार्यों में खुशी मनाने वाला कोई नहीं मिलेगा। जनमानस की सुख-शांति तथा समृद्धि की कामना करने वाले इस वर्ग के विकास तथा समृद्धि के बारे में भी विचार करना नितांत आवश्यक है।


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