धांसू एबीसी रिसर्च पर्चा

By: Mar 17th, 2021 12:05 am

अशोक गौतम

ashokgautam001@Ugmail.com

उनकी पब्लिक शवासन रिसर्च में बड़ी कमांड है। इसलिए वे सम्मेलन में विश्वविद्यालय से खासतौर पर रिसर्चपर्चा पढ़ने को आमंत्रित किए गए थे। उन्हें भी तब किसी ऐसे सम्मेलन में रिसर्चपर्चा प्रस्तुत करने की जरूरत थी क्योंकि उनका प्रमोशन रुका हुआ था। उन्हें कहीं से रिसर्चपर्चा प्रजेंट करने का प्रमाणपत्र मिले तो सतरक्की उनकी रिसर्च और खिले। उनकी बारी आई तो वे सगर्व मंच पर विराजे। अहंकार से मस्तक उठाकर सबको अभिवादन किया, अपना दिमाग खुजलाते हुए मौखिक मौलिक रिसर्चपर्चा जड़ना शुरू किया, ‘तो सम्मेलन में पधारे विद्वतजनो! मेरे रिसर्च का शीर्षक है….खैर, शीर्षक से कोई फर्क नहीं पड़ता। रिसर्च पर्चे से पड़ता है। मैंने ऐसे भी कई रिसर्चपर्चा देखे हैं जिनमें बस, टाइटल होता है, रिसर्च कतई नहीं। …तो एक बार की बात है कि एक लाट साहब हमारे गांव पधारे। हवा पानी बदलने। रात को वे जंगल बंगले में रुके। वहां के देवदारों को देख उनका मन हुआ कि क्यों न यहां से लकड़ी भी अपने देश ले जाई जाए।

 वाह! क्या गजब की लकड़ी है। बस, फिर क्या था, उन्होंने रात को ही ऐलान कर दिया कि इस जंगल की लकड़ी उनके देश जाएगी। उनका यह आदेश सुन बंगले के चौकीदार के हाथ पांव फूले। अपने जंगल के देवदार कट गए तो बकरी क्या खाएगी? चौकीदार को सबसे अधिक चिंता थी तो बस, बकरी की। बकरी नहीं होगी तो बकरे कहां से होंगे? बकरी को देवदार की पत्तियां खाने को न मिलीं तो वह दूध कैसे देगी? उसने दूध न दिया तो बापू के चेले मंचों पर दिखाने को पिएंगे क्या? अगली रात चौकीदार ने चौकीदारी वाला दिमाग बंद कर बुद्धिजीवी वाले दिमाग से काम लेने के बाद गांव से एक कुत्तिया लाई। उसके गले में लाला चुनरी बांधी। उसके माथे पर सिंदूर का टीका लगाने के बाद बचे सिंदूर से अपने माथे पर टीका लगाया और उसे लाट साहब के कमरे की खिड़की के पास छोड़ दिया। अंधेरे में डर के मारे कुत्तिया के पसीने छूटने लगे। सारा दिन गांव में कभी इस घर तो कभी इस घर धर्म के नाम पर खाने वाली कुत्तिया को पहली बार पता चला कि धर्म के बाहर जाने से क्या नुकसान होता है? वह डर के मारे लाट साहब के कमरे की खिड़की के पास चीखती चिल्लाती अपने बचाव के लिए पंजे मारने लगी तो लाट साहब ने चौकीदार से पूछा, ‘हू इज दिस?’ लाट साहब की हू सुन जंगल में गीदड़ हूंका। ‘हजूर! काली।’ ‘काली स्पीक तो?’ ‘ब्लैक मम्मी।’ ‘किसकी मम्मी? यहां क्यों आई है?

अपने बच्चों के पास नहीं रह सकती क्याघ्? क्या बोलती है?’ ‘बोल रही है कि जो लाट साहब ने यहां का देवदारों का जंगल काटा तो…’ ‘तो? तो व्हट?’ ‘कहते हुए डर लग रहा है साहब!’ चौकीदार ने सिर झुकाए कहा तो लाट साहब बोले, ‘फीयर नॉट! हम हैं न!’ ‘तो लाट साहब खत्म हो जाएंगे हजूर।’ ‘खत्म हो जाएगा बोले तो?’ ‘दि एंड ऑफ लाट साहब!’ ‘तो? ये ट्रू बोलटी है क्या?’ ‘अपने देश में केवल यही सच बोलती है साहब!’ ‘तो?’ ‘भले ही मेरी गरदन काटने का, पर साहब! जंगल नहीं काटने का।’ ‘ओके ओके! हम ये जंगल की वुड नहीं ले जाने का। काली से कहो, हमें माफ  कर दो!’ …और सम्मेलन में ठूंस ठूंस कर भरे हे विद्वानों ! इस तरह चौकीदार की होशियारी से जंगल कटने से बच गया। जंगल कटने से बचा तो गांव की बेचैन बकरियों ने चैन की सांस ली। मेरा रिसर्चपर्चा पूरा हुआ। जै रिसर्च!’ तभी पता नहीं कहां से बकरी ने मिमियाते हुए कहा, ‘हे गजब के अजब रिसर्ची!  हम सब कुछ खाती हैं, पर देवदार की पत्तियां नहीं खातीं।’ मैंने मुड़कर इधर उधर, ऊपर नीचे, दाएं बाएं देखा, पर कहीं मुझे एक भी बकरी न दिखी। …तो यह आवाज किसकी रही होगी? यह रिसर्च का टॉपिक जरूर है।


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