लोक संस्कृति साहित्य सर्जन की उर्वर जमीन है

By: Mar 7th, 2021 12:06 am

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 22वीं किस्त…

अतिथि संपादक :  डा. गौतम शर्मा व्यथित

मो.- 9418130860

विमर्श के  बिंदु

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -22

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

डा. हेमराज कौशिक मो.- 9418010646

साहित्य और लोक जीवन परस्पर सापेक्ष है। लोक का ध्वन्यार्थ नितांत व्यापक है। साहित्य सर्जक कविता, उपन्यास,  कहानी, नाटक आदि विविध विधाओं में सृजन करते हुए लोक से असंपृक्त नहीं रह सकता। रचनाकार लोकानुभवों और जीवनानुभवों को रचना का प्रतिपाद्य बनाता है और साहित्य में लोक रचनाकार की समग्र दृष्टि बन कर अभिव्यंजित होता है। साहित्य मूलतः भाषा के माध्यम से जीवन की अभिव्यक्ति है। साहित्य जीवनोन्मुख और लोकोन्मुख होता है। उसमें राष्ट्र और जातीय संस्कृति की स्पंदन और अनुगूंज होती है। लोक समुदाय की संस्कृति लोक संस्कृति है। लोक संस्कृति की व्यापकता  जनजीवन के समस्त व्यापारों में निहित होती है ।

लोक संस्कृति में लोक जीवन की परंपराएं, आस्थाएं,  विश्वास,  रूढि़यां,  लोकोत्सव, त्योहार, मेले, लोक गाथाएं, लोक नृत्य, लोकभाषा, लोकवार्ताएं और मिथक आदि सम्मिलित किए जाते हैं। लोक तत्व और साहित्य पर चिंतन करते हुए यह तथ्य सामने आता है कि शिष्ट साहित्य की उर्वर जमीन लोक संस्कृति और लोकसाहित्य में निहित है। साहित्य का उद्गम स्रोत    लोकाभिव्यक्ति में है। समुन्नत साहित्य के विकास की जड़ें भी लोकमानस की  भाव भूमि  से लोक तत्व  ग्रहण  करती है।  लोक संस्कृति  और लोकसाहित्य की  नींव पर सृजित साहित्य  शास्त्रीय  मर्यादाओं के सांचे में ढल कर  अपने परिनिष्ठित रूप में निखर कर सामने आता है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें  तो हिंदी साहित्य के भक्ति काल के निर्गुण और सगुण भक्त कवियों के काव्य में लोक संस्कृति और लोक भाषा की  अद्भुत छटा विद्यमान है। कबीर के ‘बीजक’, सूरदास के ‘सूर सागर’, तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’, जायसी के ‘पद्मावत’, मीरा के ‘पदों’ और विद्यापति की ‘पदावली’ आदि में  लोक संस्कृति और लोक भाषा  की अद्भुत छटा विद्यमान है। अवधी, ब्रज, भोजपुरी, राजस्थानी आदि लोक भाषाओं का लालित्य  इनमें विद्यमान है। लोकानुभव और लोकवाणी की ज़मीन पर रचित साहित्य अपनी गीतात्मकता  और गेयता के कारण आज भी जन मन की  अनुभूतियों का अभिन्न अंग है। आधुनिक कथा साहित्य में देखें  तो फणीश्वरनाथ रेणु  के ‘मैला आंचल’, ‘परती परिकथा’ आदि उपन्यासों में लोक संस्कृति और लोक जीवन की विशद अभिव्यंजना है। जन मन के चितेरे रेणु के लिए लेखन जीवन ही था। उनकी कथा कृतियों में  लोक कथाएं, लोक गीत, लोक नृत्य, लोक परंपराएं, लोकोत्सव, त्योहार आदि में स्थानीयता की रंगत और अंचल की गंध से ओतप्रोत है। उनकी लेखनी में अंचल कई कई बिंबों में झांकता है। प्रेमचंद  अपने साहित्य में जिन सांस्कृतिक मूल्यों को स्थापित करते हैं और ग्रामीण जीवन की सांस्कृतिक स्पंदन को अनुभूत करते हैं, उसे प्रमुख रूप में कृषकों के लोक जीवन के संदर्भ में उद्घाटित करते है। रेणु के ‘परती परिकथा’ में अनेक लोक कथाएं हैं जैसे कोशी  मैया की कथा, सुंदरी नैका की कथा, कमला मैया की कथा आदि। ‘मैला आंचल’ में मेरीगंज लोकतत्वों की व्याप्ति में बहुआयामी है। उपन्यास में लोकगीत प्रमुख रूप में मैथिली में रचित हैं।

विभिन्न पर्वों, त्यौहारों, ऋतुओं और संस्कारों के अवसर पर गाए जाने वाले  लोकगीतों की बानगियां विभिन्न कथा सूत्रों के माध्यम से विन्यस्त  हैं। लोकजीवन, लोक संगीत और लोक नृत्य की प्रतिष्ठा और लोक संस्कृति के विविध आयाम उनके उपन्यासों में विवृत हुए हैं। अंचल विशेष के जनजीवन की सूक्ष्मता से परख कर रेणु ने ग्रामीण जीवन की मिट्टी में रच बस कर लोक जीवन की एक-एक स्पंदन को अनुभूत कर अभिव्यंजित की है। कृष्णा सोबती का बृहद कलेवर का उपन्यास ‘जि़ंदगीनामा’ इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। आदिवासी विमर्श पर केंद्रित उपन्यासों में भी लोक संस्कृति के अवयवों को  जनपद विशेष के संदर्भ में व्यंजित किया गया है। हिमाचल प्रदेश मे रचित कथा साहित्य पर दृष्टि डालें तो बहुत सी कृतियों में  हिमाचली लोक संस्कृति की अभिव्यंजना हुई है। गौतम शर्मा  व्यथित का ‘रेस्मा’ शीर्षक उपन्यास हिमाचली जनजीवन पर  आधारित है जिसमें चंबा और कांगड़ा जनपद में गद्दी जीवन के संघर्ष के संदर्भ में हिमाचल की लोक संस्कृति, लोक भाषा का लालित्य है और परंपरागत वेशभूषा और वाद्य यंत्रों का परिचय मिलता है।

इसी भांति एसआर हरनोट के ‘हिडिंब’ उपन्यास  में भी हिमाचल के दुर्गम अंचल की भौगोलिक विशेषताओं के साथ  हिमाचल की लोक संस्कृति, आस्था, विश्वास और अंधश्रद्धा को  रूपायित किया है। सूरत ठाकुर के ‘व्यासा की यात्रा’ शीर्षक उपन्यास में व्यासा के बहाने  कुल्लू घाटी की  लोक संस्कृति मुखरित हुई है। उनका ‘हारका’ शीर्षक उपन्यास मलाणा जनपद की लोक संस्कृति और आदिवासी कबीलों की विशेषताओं को उद्घाटित करता है। राजेंद्र राजन के ‘मौन से संवाद’ उपन्यास में पांगी घाटी की लोक संस्कृति और जीवनचर्या का चित्रण है। गंगाराम राजी के उपन्यासों में मंडी जनपद की लोक संस्कृति के अनेक पक्ष विवृत हुए हैं। इसी भांति मुरारी शर्मा का नव्यतम  कहानी संग्रह ‘ढोल की थाप’ भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। लोक संस्कृति की यह अक्षुण्ण  महिमा ही है कि किसी जनपद की लोक संस्कृति को केंद्र बनाकर निर्मित फिल्में  सर्वाधिक चर्चित और सराही गई हैं। बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित तथा कवि शैलेंद्र द्वारा निर्मित ‘तीसरी कसम’ की पटकथा और संवाद यशस्वी कथाकार रेणु ने स्वयं लिखे थे और उनकी जनांचल पर आधारित कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ  मारे गए गुलफाम’ पर फिल्म बनी थी। यह फिल्म अत्यंत चर्चित और लोगों द्वारा सराही गई।

इसी भांति निर्देशक प्रकाश झा की ‘गंगाजल’ और ‘अपहरण’ फिल्में इसलिए दर्शकों द्वारा सराही गई क्योंकि इन फिल्मों का परिवेश और संवाद आंचलिक और लोक जीवन के संघर्ष से संपृक्त रहे हैं। भोजपुरी और दूसरी भारतीय भाषाओं में निर्मित फिल्में और गीत भी अपनी आंचलिकता की महक के कारण दर्शकों के लिए आकर्षण के केंद्र रहे हैं। इस समग्र विवेचन के संदर्भ में यह कहना है कि लोक तत्व साहित्य का अविभाज्य  और अविच्छिन्न अंग है और साहित्यिक कृतियां लोक संस्कृति के  विविध अवयवों की उर्वर ज़मीन से किसी न किसी रूप में संपृक्त रहती हैं।


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