जनजातीय जिला लाहुल की लोक परंपरा

By: Mar 14th, 2021 12:05 am

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

मो.- 9418130860

विमर्श के बिंदु

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -23

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 23वीं किस्त…

प्रो. हेमराज भारद्वाज, मो.-9459293000

लाहुल की लोक संस्कृति और लोकसाहित्य बड़ा ही रहस्यमयी और विस्मित करने वाला है। समय के साथ उसके लोक गायन, लोक नृत्य, लोक सुभाषित, लोक कथा और लोक विश्वास विस्मृति की ओर बढ़ रहे हैं जिन्हें संजोना व संभालना समय की जरूरत है। लाहुल-स्पीति सन् 1960 तक जिला कांगडा के कुल्लू उपमंडल की एक उप तहसील थी, फिर यह सीमांत क्षेत्र पंजाब प्रांत का एक अलग जिला बना। 1966 में जब पंजाब का पुनर्गठन किया गया तो लाहुल एवं स्पीति को अलग तहसील-कम-सब डिवीजन का रूप प्रदान किया गया। 1975 में चंबा जिला की पांगी तहसील की चार पंचायतें तिंदी, उदयपुर, मयाड़नाला एवं त्रिलोकनाथ को भी लाहुल सब डिवीजन में मिलाया गया और संपूर्ण जिले को अनुसूचित जनजातीय क्षेत्र का दर्जा भी प्रदान किया गया। पिछले कुछ वर्षों में बदलते परिवेश के कारण यहां के रहन-सहन, खानपान, वेशभूषा, कृषि, यातायात, शिक्षा व संचार के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन देखे जा सकते हैं। यहां की परंपराएं और रीति-रिवाज़ अन्य जिलों से बिल्कुल भिन्न हैं। गौंधला निवासी सेवानिवृत्त प्रोफेसर हीरा लाल का कहना है कि लाहुल में एक विशेष प्रकार की परंपरा शाग़ुण का निर्वहन किया जाता है। यह किसी भी समारोह, शुभ अवसर, धार्मिक कार्य व अतिथि स्वागत पर निभाई जाती है। मरपीणी जिसे सत्तु व घी के मिश्रण से बनाया जाता है, इसे एक पुनीत बर्तन पर रखा जाता है। स्वागतकर्ता मक्खन को पुरुष के सिर में दायीं ओर और महिला के सिर पर बायीं ओर लगाता है। शुर (देसी धूप) को प्रत्येक अतिथि के हाथ में दिया जाता है और सुख-समृद्धि की मंगल कामना के साथ आग में डाला जाता है। शुर को शराब की बोतल में भीगोकर घर में छिड़काया जाता है। लाहुल में प्रतिदिन अभिवादन शिष्टाचार का अंग नहीं है।

फागली के त्योहार के दूसरे दिन से यह अभिवादन की रस्म की जाती है। इस दिन लोग अपने से बड़ों को जाकर ‘जुले’ (प्रणाम) कहते हैं। किंतु पट्टन घाटी में इसे ‘ढाल’ कहा जाता है। विभिन्न भोज्य पदार्थों में ल्याड, युद या सम्पा (सत्तू), अकतौड़ी, कनी, डेगडेगछाती, फेम्प्रा, टुरछाती-सत्तू, वोती कलू, छेम्पा कलू और वोती (लस्सी) आदि शामिल हैं। पेय पदार्थों में छङ् (चकती या लुगड़ी), छाकुचा (नमकीन चाय), बोटी (बोती), लस्सी भी यहां के प्रिय पेयों में माने जाते हैं। इस प्रदेश की जलवायु संबंधी समस्याओं के कारण यहां के निवासियों में बौद्ध होते हुए भी मांस-भक्षण तथा मदिरापान दोनों को स्वीकृति है। सर्दियों के लिए मांस को सुखाकर भी रख लिया जाता है। सूखा मांस जितना पुराना होता है, वह उतना ही अधिक स्वादिष्ट माना जाता है। तिब्बत की भांति लाहुल में भी बहुपति प्रथा को सभी दृष्टियों से सामाजिक स्वीकृति एवं सम्मान प्राप्त होता रहा है। यद्यपि अब शिक्षा के प्रसार, सामाजिक जागृति तथा आजीविका के साधनों एवं सुविधाओं के कारण यह प्रथा इतिहास का विषय बनती जा रही है। सर्दियों में लोग मांस के अतिरिक्त सूखी सब्जी का भी सेवन कर रहे हैं जो गर्मियों में सुखा कर रख दी जाती हैं जैसे बंदगोभी, मांस, काठू, लौकी, सरसों, बीनज़, पालक आदि। आलू को मिट्टी के गड्ढे में दबाया जाता है ताकि वह खराब न हो और उसका प्रयोग सर्दियों में भी किया जा सके। यहां के आलू के बीज की मांग हिमाचल ही नहीं बल्कि हिमाचल के बाहरी राज्यों में भी बढ़ रही है। लाहुल की मुख्य फसलें आलू, हॉप्स, कुठ, गोभी, मटर इत्यादि हैं। प्राकृतिक रूप से यहां कालाजीरा भी खूब मिलता है। एक समय था जब लाहुल के पुरुष और महिलाओं के पहनावे में बहुत कम अंतर हुआ करता था। दोनों ही कतर या कदर पहनते थे। पहले आभूषणों में, पोशाल, दुंखेरचा, चिरक, वाई, कंठी, तड़का, नङ, मूलन लौंग तथा गुईथव आदि इस्तेमाल किए जाते थे, परंतु अब ये लुप्त होते जा रहे हैं। जूते के स्थान पर पहले लोग पूला का प्रयोग करते थे, परंतु वर्तमान में तिब्बती बूट जोकि घुटनों तक होते हैं, का प्रयोग कर रहे हैं। अधिकतर त्योहार यहां सर्दियों में मनाए जाते हैं। यहां के प्रमुख त्योहारों में उदन, हालडा, फागली, सिल एवं पुना, दर्श, शेचुम, पोरी, छेशु और गोची आदि हैं।

विश्व स्तर पर जनजातीय संस्कृति और पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए स्नो फेस्टिवल का भी आगाज़ हुआ है जिसमें यहां की परंपरा के दर्शन किए जा सकते हैं। लाहुल का कोई भी धार्मिक और सामाजिक कार्य ऐसा नहीं जिसमें सुरापान नहीं होता हो। वर्तमान समय में महिलाओं ने माथे पर बिंदी और सिंदूर लगाना भी शुरू कर दिया है। होली, दिवाली, करवाचौथ जैसे उत्सव जिनसे लोग पहले  अनभिज्ञ थे, आज लोग इनमें रुचि दिखा रहे हैं। अंत में कहा जा सकता है कि यातायात, संचार व इंटरनेट जैसी अनेक समस्याएं झेल रहे लाहुलवासियों को अब इससे निज़ात मिल चुकी है। नवंबर 2020 से संपूर्ण लाहुल घाटी जियो नेटवर्क से जुड़ चुकी है जिससे संचार के क्षेत्र में भी यहां क्रांति आई है। कुछ पुरानी रूढि़यां और परंपराएं टूट रही हैं। उनका स्थान सभ्य समाज की प्रचलित व श्रेष्ठ सभ्यता और संस्कृति ले रही है। विषम परिस्थितियों के वावजूद लाहुल वासी शिक्षा के महत्त्व से अनभिज्ञ नहीं हैं। शीत के प्रकोप से बचने और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण यहां के लोगों ने जिला कुल्लू को अपने दूसरे घर का दर्जा दिया है। लाहुलवासी आज संक्रमण काल से गुजर रहे हैं।


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