सरकारी कर्मियों को मिले पुरानी पेंशन

By: Mar 17th, 2021 12:06 am

दुर्भाग्य की बात यह है कि जनप्रतिनिधियों के वेतनमान लाखों रुपए एवं अन्य सुविधाएं होने के बावजूद उन्हें बुढ़ापे में हजारों रुपयों की पेंशन का लाभ भी प्राप्त है। उधर कर्मचारियों को न तो सही वेतन है, साथ ही पेंशन के सही लाभ भी नहीं मिल पा रहे हैं…

लोकतांत्रिक प्रणाली में समानता के अधिकार को लोकतंत्र की बड़ी विशेषता माना जाता है। भारत सहित हिमाचल में माननीय अगर एक दिन के लिए भी चुनकर आएं तो वे पेंशनभोगी बन जाते हैं, मगर प्रदेश में दशकों से सरकारी विभागों में अपनी सेवाएं देने वाले कर्मचारियों को पुरानी पेंशन लेने के लिए संघर्ष की राह अपनानी पड़ी है। बुढ़ापा आराम से कट जाए, इसलिए ही इनसान सरकारी नौकरी मिलने की चाहत ज्यादा रखता है। सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाली नई पेंशन अब शेयर मार्किट पर आधारित बन चुकी है। कई दशकों तक सरकारी नौकरी करने वाले कर्मचारियों को उनकी अपेक्षाओं के मुताबिक पुरानी पेंशन नहीं मिल रही है। सरकारी कर्मचारियों को जो समय जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियां निभाने के लिए मिला हुआ है, अब वह समय पुरानी पेंशन की बहाली को लेकर संघर्ष करने में व्यतीत हो रहा है।

ऐसे में जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियां कौन निभाए, यह भी सवाल बना हुआ है। सांसद और विधायक एक दिन के लिए भी चुन लिए जाएं तो उन्हें हजारों रुपयों की पेंशन का लाभ प्राप्त है। मगर वर्षों से सेवाएं देने वाले कर्मचारियों को नई पेंशन के नाम पर चंद सिक्के मिल रहे हैं जिसका वे सालों से विरोध करते आ रहे हैं। कर्मचारी अपने संगठनों के बैनर तले राजधानी दिल्ली तक संघर्ष का बिगुल बजा चुके हैं, लेकिन उनकी मांगों पर  सरकारें गौर नहीं कर रही हैं। धर्मशाला जन आभार रैली के आगमन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कर्मचारियों को पूरी उम्मीद थी कि शायद वह कर्मचारियों की पुरानी पेंशन बहाल करके नए साल का तोहफा देंगे, मगर उन्हें यहां भी सिवाय निराशा के कुछ भी हाथ नहीं लगा। बढ़ती जनसंख्या के अनुसार सरकारी क्षेत्रों में रोजगार के जितने अवसर सृजित किए जाने चाहिएं, उतने नहीं हो पा रहे हैं। नतीजतन सरकारें अनुबंध व पीटीए पर कर्मचारी रखकर अपने राजस्व को बचाने में लगी हुई हैं। अगर इस तरह की दोगली नीतियां चलती रहीं तो युवाओं का सरकारी नौकरियों के प्रति विश्वास उठ जाएगा। एक तो सरकारें अपने कर्मचारियों की इस विषय पर अनदेखी कर रही हैं, वहीं युवा पीढ़ी भी अब अपने अभिभावकों की सही तरह से देखभाल नहीं कर पा रही है। एक समय ऐसा था जब कर्मचारियों को सेवानिवृत्ति पर लाखों रुपया मिलता था और साथ ही अच्छी पेंशन भी हर महीने मिल जाती थी। युवा पीढ़ी लालचवश अपने बुजुर्गों का सहारा अंत समय तक बनी रहती थी। कर्मचारियों को अब न तो सही पेंशन मिल रही है, जबकि बैंकों के कर्जे की देनदारियां ही उन्हें विरासत में मिल रही हैं। सरकारों ने डेढ़ दशक पहले से पुरानी पेंशन बंद करके उसकी जगह नई पेंशन शुरू करके वर्षों तक सेवाएं देने वाले कर्मचारियों के साथ एक किस्म का मजाक किया है। कर्मचारियों को नई पेंशन इतनी भी नहीं मिलती कि एक सेवानिवृत्त कर्मचारी महीना भर उस पैसे से अपना ही पेट भर सके। परिवार के अन्य सदस्यों का पालन-पोषण कैसे हो, यह भी सवाल बना हुआ है। कर्मचारियों की पेंशन अब शेयर मार्किट पर आधारित है। अगर शेयर मार्किट में तेजी रहेगी तो ही कर्मचारियों को सही पेंशन मिल सकेगी अन्यथा चंद रुपयों से ही दिल को तसल्ली देनी पड़ती है।

 अभिभावक लाखों रुपया खर्च करके अपने बच्चों को महंगी शिक्षा यह सोचकर दिला रहे थे ताकि वे रोजगार से जुड़कर बुढ़ापे में उनका भी सहारा बनें। दुर्भाग्य की बात यह है कि आजकल की शिक्षा अपने उद्देश्यों पर खरा नहीं उतर पा रही है। शिक्षित युवा न तो रोजगार से सही तरह जुड़ पा रहे और न ही राष्ट्र और समाज के पुनर्निर्माण में अपनी कोई भागीदारी सही ढंग से निभा पा रहे। नतीजतन शिक्षित युवा पीढ़ी लक्ष्यहीन बनकर नशों की चपेट में दिनोंदिन पड़ती जा रही है। पीटीए और अनुबंध कर्मचारी वर्षों संघर्ष करने के बाद नियमित किए जा रहे हैं। ऐसे हालात में मात्र चंद वर्ष ही एक कर्मचारी को अपनी सेवाएं दिए जाने का मौका मिल पा रहा है। एक कर्मचारी की आधी जिंदगी नियमित होने के लिए संघर्ष करने में गुजर रही है, जबकि बुढ़ापे में पुरानी पेंशन की बहाली को लेकर भी संघर्ष करना पड़ रहा है। सरकारों की रोजगार नीतियां सही न होने की वजह से आजकल कर्मचारी नियमित होने और पुरानी पेंशन को लेकर लामबंद चल रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में अब आउटसोर्सिंज कर्मचारी रखने की प्रक्रिया चल रही है, मगर भविष्य उसमें भी सुरक्षित नहीं है। आंगनबाड़ी, जलवाहक, पंचायत सहायक, तकनीकी सहायक, पीटीए, किसान मित्र, कंप्यूटर अनुदेशक, अनुबंध कर्मचारी आदि कहने को तो सरकारी कर्मचारी हैं, मगर जो वेतनमान उन्हें नसीब हो रहे हैं, वे नाकाफी हैं। एक मजदूर की दिहाड़ी से भी कम वेतन एक कर्मचारी को मिलना सरकारों की कार्यप्रणाली पर भी कई सवाल खड़े करता है। कुल  मिलाकर कहा जाए तो कर्मचारियों की कर्मचारी संगठनों के बैनर तले राजनीति करने की दिलचस्पी बढ़ती ही जा रही है जिसका भुगतान जनता को करना पड़ रहा है।

कर्मचारियों के वेतनमान में जमीन-आसमान का अंतर है जिसके चलते अराजकता का माहौल बनता जा रहा है। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि आखिर पुरानी पेंशन की जरूरत किन कर्मचारियों को ज्यादा हो सकती है। बढ़ती महंगाई के साथ कुछेक कर्मचारियों के वेतनमान में भी इजाफा हो चुका है। अब ऐसे कर्मचारियों को सेवा समाप्ति पर लाखों रुपया सरकारों की ओर से दिया जा रहा है। क्या फिर सरकारों से उम्मीद की जा सकती कि अब वे ऐसे कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन की बहाली भी कर सकती हैं। सरकारों को कर्मचारियों के बेसिक वेतनमान में बढ़ोतरी करके  उनकी आर्थिक मदद करनी चाहिए। कर्जे के बोझ तले दबी सरकारें क्या कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन की बहाली करके अपने खजाने का बोझ और भी बढ़ाना चाहेंगी, अब सवाल यह है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनप्रतिनिधियों के हाथों में सभी शक्तियां होती हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि जनप्रतिनिधियों के वेतनमान लाखों रुपए एवं अन्य सुविधाएं होने के बावजूद उन्हें बुढ़ापे में हजारों रुपयों की पेंशन का लाभ भी प्राप्त है। उधर कर्मचारियों को न तो सही वेतन है, साथ ही अन्य सुविधाओं समेत पेंशन के सही लाभ भी नहीं मिल पा रहे हैं। यही कारण है कि आज कर्मचारी वर्ग में जन प्रतिनिधियों के प्रति आक्रोश पनप रहा है। सांसदों ने बेशक कैंटीन सबसिडी छोड़कर सरकारों का बजट बचाया, मगर सरकारी कर्मचारियों की मांग उन्हें मिलने वाली सभी सुविधाओं को एक समान करने की है।


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