अपनी मिट्टी के शांता ने कच्चे घड़ों पर लिख दिया

By: Mar 28th, 2021 12:34 am

शांता कुमार

‘निज पथ का अविचल पंथी’, किताब की शक्ल में शांता को खोजने के दायरे, दरमियान, दहलीज, दंश, दबाव के दौर और दो टूक की बात को बड़ा कर देती है। अपने ही मंसूबों से मुलाकात करते शांता का भाव क्या और प्रभाव क्या, इस पर असहमत हो सकते हैं, लेकिन अपनी जिंदगी को लिखते पूर्व मुख्यमंत्री खुद से लड़ने का हक मांगते कभी गांव की दहलीज लांघ कर स्कूल में स्कूल के लिए, शिक्षा में शिक्षा के लिए, विचारों में अपनी ही विचारधारा के लिए व अंत में इसके संदर्भों से संघर्ष करते दिखाई देते हैं। आंदोलनों के बीच शांता और शांता के बीच आंदोलन की परिभाषा के कई स्रोत, संस्थाएं और संपर्क उद्वेलित करते हैं तथा अपनी पारिवारिक उलझनों या वैचारिक उथल-पुथल के बीच वह जिद्दी या अडि़यल होकर काल खंड बदलते रहते हैं। किताब को हाथ में लेते हुए शांता की परिधि में दर्ज सवाल केवल उनकी जीवन यात्रा या सियासी बुलंदी नहीं, बल्कि दृढ़-प्रतिज्ञ होने के सफर, साहित्यिक संवेदना की डगर और नैतिक सन्नाटों के बीच तमाम चीखों की प्रतिध्वनि को महसूस करने की जिज्ञासा को बढ़ा देते हैं।

राजनीतिक रेखाचित्र के बीच बचे कहीं कोरे कागज पर एक पूर्व राजनेता के विचारों की प्रांजलता, प्राक्कथन, प्रौढ़ता, परामर्श व परिकल्पना परिमार्जित होती है, तो यहां हम कर सकते हैं कि कोई शांता कुमार यूं ही नहीं बनता। शांता की कहानियों में संघ परिवार की पटकथा बताती है कि यह संगठन अपने भीतर किस शिद्दत से नायक बनाने की कसौटियां परोसता है, फिर भी जीवन के अंतिम पड़ाव में वह खुद से अन्याय होता हुआ देखते हैं। उन्हें संघ और भाजपा की विरासत से गिला तीन प्रमुख कारणों से है। तीनों बार नैतिकता की वेदी पर वह चढ़े। किताब का 38वां अध्याय, चढ़दी कलां में भाजपा के वजूद को इतनी खरोंचें लगा देता है कि ईमानदारी की कला भी निर्मम और वीभत्स नजर आती है। यह किस्सा केवल साफगोई का नहीं, लेकिन भाजपा के भीतर उस बेहयाई का भी है, जिसने शांता कुमार के रूप में एक केंद्रीय मंत्री को इसलिए नोच लिया क्योंकि उसने ग्रामीण विकास मंत्रालय के पूर्व मंत्री व अद्यतन उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू द्वारा अपने ही राज्य आंध्र प्रदेश को नब्बे करोड़ के स्थान पर एक सौ नब्बे की आपूर्ति करने का भ्रष्टाचार रेखांकित ही नहीं किया, उसके ऊपर त्वरित रोक भी लगाई। इस ईमानदारी ने उन्हें मंत्री पद से बेदखल किया। शांता ने पार्टी के भीतर दूसरा अन्याय जयप्रकाश आंदोलन से निकले महेंद्र सोफत के प्रति होते हुए देखा है, तो तीसरी बार उनके द्वारा छेड़े गए सामाजिक यज्ञ यानी विवेकानंद ट्रस्ट पर बनाए गए झूठे मुकदमे से उन्हें अत्यंत पीड़ा हुई।

शांता के भीतर दर्दभरी आवाज उभरती है, ‘केंद्रीय मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देने के बाद मैंने प्रेस से कुछ नहीं कहा। सब कुछ साहस से सहा और सामान्य होने की कोशिश की। परंतु त्यागपत्र देने से पहले के कुछ समय की टीस भरी याद आज भी मुझे व्यथित कर देती है। जिस पार्टी में जीवन के बचपन से लेकर पूरी जवानी तक का समय लगाया, सब कुछ सहा, बहुत कुछ पाया भी, उसी पार्टी में मंत्री के रूप में ईमानदारी से काम करते हुए मेरे विरुद्ध इस प्रकार का षड्यंत्र रचा गया।’ शांता कुमार के भीतर से जुड़ी यह पुस्तक उनके कारावास के पन्ने समेटती है, तो नाहन, गुरदासपुर और हिसार जेलों की यादों की दीवारों से छीनी ईंटों को सहेज लेती है। जेलों में जीवन के प्रयोग और आंसुओं से उपन्यास लिख देते हैं। शांता कुमार अपने आसपास के रिश्तों-चरित्रों की धुरी में घूमती संवेदना का चाक चलाकर, अंदरूनी और बाह्य पक्ष के बीच हमेशा खुद को नैतिकता से सनी मिट्टी से रूबरू कराते हैं। गांव में हरिजन सरपंच शिकरू राम का आरोहण हो या प्रधानमंत्री स्व. मोरार जी देसाई की सिफारिश के बावजूद विधानसभा अध्यक्ष पद पर ठाकुर सैन नेगी का विरोध हो, शांता कुमार ने सार्वजनिक जीवन के फैसले कच्चे घड़ों की तरह किए। किताब के भीतर राजनीति के सुलगते प्रश्नों के बीच भ्रष्टाचार की गिरफ्त में किशोरी लाल का इस्तीफा और अशांत गुट के पितामह बने केंद्रीय मंत्री राजनारायण को रिज को जख्म देने के लिए मंत्रिमंडल छोड़ना पड़ा। शांता के खिलाफ इस्तीफों का दबाव, तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष सरवन कुमार का जाना और बार-बार सरकार द्वारा विश्वास मत के कांटे पर खड़ा होना, राजनीतिक विषयों की चीरफाड़ करता है, लेकिन लेखक ने न तो पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल और न ही पूर्व मंत्री मेजर विजय सिंह मनकोटिया से अपने सियासी रिश्तों पर कुछ कहा है।

शांता कुमार कांग्रेस के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों स्व. वाईएस परमार और वीरभद्र सिंह की तारीफ में कुछ संदर्भ किताब में जोड़ते हैं। साहित्य की प्रथम पंक्ति में पत्नी ‘संतोष’ को पढ़ना और एक साथ अनुवाद की लय में पुस्तक का आधार रखना, उनके वैवाहिक जीवन की जिल्द में ऐसे बंध गया कि इस पुस्तक की यात्रा में अपना समर्पण दर्ज करते हुए शांता लिखते हैं, ‘सच कहता हूं, यदि आत्मकथा अधूरी रहती तो कभी पूरी नहीं होती। इसलिए कहता हूं, तुम काम पूरा कर गई…पूरा कर गई।’ बतौर लेखक शांता के भीतर का साहित्य उनके साथ जेल में डटा रहा और हर कठिन फैसला लेते हुए भी वह मानो कभी प्रेमचंद, कभी भगत सिंह या कभी विवेकानंद को ही अपने भीतर लिख रहे थे।

एक बानगी जब नाहन जले पहुंचे, ‘जेल का वह बड़ा दरवाजा दूर से अंधकार में किसी भयानक गुफा की भांति लग रहा था। हमारे स्वागत में दरवाजा चरमराया। खटखट की कठोर आवाज करते हुए खुला और हमें ऐसे भीतर ले लिया जैसे किसी भयानक अजगर ने अपने शिकार को निगल लिया हो।’ एक भावुक नेता ने किताब के हर पन्ने को अपनी संवेदना से धोते हुए लिखा है, ‘मैं पूरा जीवन रूखी-सूखी राजनीति में रहा।

कुछ बहुत कठोर व कड़वे फैसले भी किए, परंतु स्वभाव से बहुत भावुक हूं। मेरे स्वभाव पर मेरे भीतर के लेखक का अधिक प्रभाव रहा है।’ पुस्तक के आईने से मुखातिब होकर राजनीतिक, सामाजिक व राष्ट्रीय किरिच कितनी नजर आएगी, यह पाठक पर निर्भर करेगा।

-निर्मल असो


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App