लोकसाहित्य में लोक कहावतों का महत्त्व
डा. रवींद्र कुमार ठाकुर
मो.-9418638100
मेरे विचार में लोकसाहित्य की विधाओं में सबसे प्राचीनतम विधा लोक कहावतें हैं। जब लोक मानस ने अपने प्रारंभिक समय में बोलना सीखा और वह अपने दिल की बात एक-दूसरे तक संप्रेषित करने लगा और उसमें पारंगत होने लगा तो उसने अपने जीवन के अर्जित अनुभवों को चटपटे सारगर्भित ढंग से कहना शुरू किया तो ऐसे शब्द जो बौद्धिक कौशल के साथ संक्षिप्त गूढ़ अर्थ लेकर दूसरों को अंतःकरण तक प्रभावित करने लगे, तो वही लघु वाक्य आगे चल कर पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हुए कहावतों के रूप में प्रचलित हुए।
लोक जीवन में ये लोक कहावतें जिसकी बोली में शामिल हुई, उस व्यक्ति विशेष को समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा। फिर क्या था, ये कहावतें देश, समाज की सीमाओं को पार करते हुए एक समाज से दूसरे समाज और एक बोली से दूसरी बोली में प्रवेश करते हुए प्रांतीय व देशीय बंधनों को तोड़ते हुए सार्वभौमिक हो गईं। आज कोई भी समाज इन कहावतों से अछूता नहीं है। लोकसाहित्य की हिमाचली परंपरा में भी लोक कहावतों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हिमाचली लोक कहावतों के अध्ययन में मैंने पाया है कि सारे हिमाचल में बोली जाने वाली कहावतें अधिकांशतः एक जैसी हैं। इनमें भिन्नता केवल क्षेत्र विशेष में बोली जाने वाली बोली के प्रभाव की है। लोकसाहित्य में लोक कहावतें समाज का अभिन्न अंग हैं। ये सदैव लोक जीवन से जुड़ी रहने के कारण लोक मानस के साथ-साथ लोकसाहित्यकार, चाहे वह किसी भी विधा का पुरोधा रहा हो, उसके लेखन में इनका उपयोग होने से वह विधा अलंकृत हो जाती है। लोक कहावतें समाज के सूक्ष्म भावों को बड़ी स्पष्टता, तीव्रता एवं व्यंग्यात्मकता के साथ प्रकट करती हैं। समाज को शिक्षा व उलाहना देना इन्हीं लोक कहावतों का कार्य है। प्रत्येक क्षेत्र के भाव बोधों को उजागर करती हुई, उस समाज की समस्त परंपराओं में कहावतें जुड़ी रहती हैं। यही कारण है कि लोकसाहित्यकार भी इन्हें अपने लेखन से जुदा नहीं कर पाता। यद्यपि लोक कहावतों के विषय में हिमाचली लोकसाहित्य की परंपरा में स्वतंत्र रूप से विवेचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक साहित्य की रचना बहुत कम हुई है, तथापि साहित्य की अन्य विधाओं की तरह साहित्यकार लोक कहावतों से लोक मान्यताओं का ज्ञान व उनकी वैचारिक प्रौढ़ता का भी भान करवाता है।
साहित्यकार लोक कहावतों के मिश्रण से अपनी भाषा और बोली को निखारने के आशय से अलंकार में, किसी उपमा में, उत्प्रेक्षा और दृष्टांत से सजा कर सामने लाता है, जिससे उसमें अभिधा की अपेक्षा लक्षणा तथा व्यंजना की प्रधानता प्रकट होती है। लोक कहावतें जीवन में व्यवहार कौशल और सामान्य विवेक का अनुपम निर्देशन करती हैं। ये वर्तमान पीढ़ी को बुजुर्गों से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त होती हैं, इसलिए उसकी पथ-प्रदर्शिका के रूप में भी इनका महत्त्व असंदिग्ध है। जीवन के सभी क्षेत्रों में कहावतों की उपादेयता स्वतः सिद्ध है। हिमाचल ग्राम्य जीवन में कहावतों का प्रयोग अधिक किया जाता है, जिसके कुछ कारण हैं। प्राचीन समय में जब आधुनिक विज्ञान की तकनीकें नहीं थीं, तब गांव का कृषक मौसम, कृषि, पशु, स्वास्थ्य, रीति-नीति एवं व्यवसाय आदि से संबंधित जानकारी के लिए पूर्वजों से प्राप्त कहावतों के रूप में अनुभवों पर निर्भर था। वास्तव में कहावतों का आदान-प्रदान व श्रुति परंपरा से गहरा नाता है। दीर्घकाल से ये लोक मुख में आसीन होकर उसके विकास के साथ-साथ अपनी परंपराओं को सहेज कर मनुष्य के कदम से कदम मिलाते हुए चली आ रही हैं। लेकिन जितनी कहावतें पिछली पीढ़ी को याद थीं, उतनी वर्तमान को नहीं है और जितनी वर्तमान को है, शायद उतनी भावी पीढ़ी को नहीं रहेगी।
इस सबके लिए हमारी शिक्षा प्रणाली उत्तरदायी रही है। इसी कारण आज का छात्र व युवा वर्ग इनको विस्मृत कर रहा है। वर्तमान अविभावकों का इंग्लिश मीडियम स्कूलों के प्रति मोह व अपने बच्चों को उनके मूल से बचपन में ही पढ़ाई के नाम पर अपने दादा-दादी, नाना-नानी और ग्रामीण परिवेश से ही अलग कर देना, बोली तथा लोकसाहित्य परंपरा के लिए कोई अच्छे संकेत नहीं हैं। वर्तमान पीढ़ी को भी यह समझना चाहिए कि यदि बच्चा अपने ग्राम्य परिवेश जहां प्रकृति ने उसे पैदा किया है, वहां के बारे में ही मूल ज्ञान प्राप्त नहीं करेगा तो वह परिवेश जिसमें उसका जन्म ही नहीं हुआ, उसको कितना सीख पाएगा। अगर सीख भी लेगा तो उससे कितना सामंजस्य स्थापित कर पाएगा। इसके लिए यह नितांत आवश्यक है कि बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए उसे उस कुदरत प्रदान वातावरण की, जिसमें उसकी पैदाइश हुई है, उस क्षेत्र की बोली, रीति-रिवाजों, लोकाचार व व्यवहार को सीखने का अवसर प्रदान करे। आज जो हो रहा है, वह बिल्कुल विपरीत हो रहा है। हिमाचल के युवाओं को अधिकतर राज्य के बाहर नौकरी हेतु जाना पड़ता है। शादी के बाद जब बच्चे होते हैं तो उनकी मम्मियां उन्हें पढ़ाई के नाम पर शहर के अंग्रेजी स्कूलों में अढ़ाई-तीन वर्ष की आयु में ही डाल देती हैं, जिससे बच्चा दादा-दादी से जुदा हो जाता है।
इस उम्र में ही बच्चे अपनी बोली, लोकाचार सीखते हैं जो उन्हें इस कारण सीखने का मौका नहीं मिलता। इसके दुष्परिणाम अब सामने आने लगे हैं। ऐसे बच्चे अपनों के पर्यवेक्षण से वंचित रहने के कारण गलत आदतों के शिकार हो जाते हैं और ग्रामीण जीवन से सामंजस्य स्थापित न कर पाने के कारण उनकी स्थिति न घर की न घाट वाली हो जाती है। उपर्युक्त उदाहरण का तात्पर्य इस लोक कहावत से सिद्ध हो जाता है ः ‘ऐड़ा ते बिछडि़या भेड्डा मिरग ई खांदा’। कहने का भाव यह है कि जिस प्रकार अपने झुंड से बिछड़ी भेड़ बाघ की शिकार हो जाती है, उसी प्रकार अपनी टोली और बोली से अलग हुआ इनसान भी अलग-थलग पड़ जाता है। इस सबसे उबरने के लिए नई शिक्षा नीति में आशा की किरण दिखाई दे रही है।
अंत में यही कहना चाहता हूं कि जीवन के समस्त आयामों से जुड़ी होने के कारण हिमाचली लोकसाहित्य में लोक कहावतों के महत्त्व को उपेक्षित नहीं किया जा सकता है। यदि आज के भौतिकतावादी, साधन-संपन्न, शिक्षित समाज में किसी बात की आवश्यकता है तो वह लोकसाहित्य में लोक कहावतों की परंपरा एवं विकास के लिए इनके संवर्द्धन, संग्रहण और उपयोग की है।
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