यह भिखारियों का देश है क्या?

By: Mar 18th, 2021 12:05 am

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.com

सत्यजीत रे बड़े फिल्म निर्देशक थे। उन्होंने बड़ी खूबसूरती से भारत की गरीबी को अपनी फिल्म ‘अपुर संसार’ में बेचा। ज़माने में हर चीज़ बिकाऊ हो जाने के साथ-साथ भारतीयता के नाम पर न केवल हमारी गरीबी बिकी, बल्कि हमारे रुआंसे और उदास गीत भी मंडी सज़ा कर बैठ गए। कवि शैले ने तो केवल कहा ही था कि ‘हैं सबसे मधुर वे गीत जिन्हें हम दर्द के सुर से गाते हैं।’ तलत महमूद साहिब ने तो इसे गाकर गायन क्षेत्र में अपना नाम अमर कर लिया। अंग्रेज़ों की राय थी कि अपना देश सांपों, मदारियों और भिखारियों का देश है। जब तक हम अपने किरदार से उनकी इस राय को सही साबित करते रहे, प्रधानमंत्री जी को भीख का कटोरा लेकर विदेशों में जाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। हां, यह प्रधानमंत्री अपने कार्यकाल में विदेशों की सौ फेरियां लगा आए।

 वहां बसे प्रवासी भारतीय ‘मोदी मोदी’ चिल्लाते हैं। संभवतः यह सुनने के लिए, अपना लाखों-करोड़ों के निवेश समझौतों पर समझ समझौते करने के लिए। यह दीगर बात है कि उनमें से अधिकांश समझौते सार्थक नहीं हुए, क्योंकि विदेशी अभी भी भारत की उसी सांपों, मदारियों और भिखारियों वाली छवि के प्रति आश्वस्त हैं। उन्हें भारत की सहायता करने वाली अपनी दानवीर की छवि ही भाती है। भला वे हमें बराबर का भागीदार क्यों मानें? अपने यहां का बाबा आदम निराला है, यहां नारे तरक्की के लगते हैं। विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़े जाते हैं, लेकिन पूरा देश सुरक्षित तभी महसूस करता है अगर उसे पिछड़ेपन और पद्दलित होने का आरक्षण दे दिया जाए। सरकार भी भूखों को यह आरक्षण का लालीपॉप देने में कोई कोताही नहीं करती। अभी दलित, अनुसूचित और अन्य पिछड़ी जातियों को 49.9 प्रतिशत तक का आरक्षण तो दे ही रखा था, अब दस प्रतिशत ऊंचे वर्ग के गरीबों को भी दे दिया है। उनकी गरीबी का पैमाना आठ लाख रुपए वार्षिक या लगभग सत्तर हज़ार रुपए महीना या तेईस सौ रुपया दिहाड़ी रखा है।

 जबकि इससे पहले सरकारी घोषणा भी की कि जो व्यक्ति गांव में सत्ताईस रुपया औसत और पैंतीस रुपया औसत शहर में दिहाड़ी कमाए, वह संपन्न है। ऐसे सभी संपन्न लोग सरकारी आरक्षण प्राप्त करने के लिए अब गरीब कहला रहे हैं, औसत से सौ गुणा अधिक कमाने के बावजूद देखिए, गरीबी के पैमाने बदल रहे हैं। अब वातानुकूलित गाड़ी से उतरा आदमी भी आरक्षित होगा क्योंकि वह सफल कर चोर है और अपनी रिटर्न यूं भरता है कि मात्र शून्य टैक्स देता है। बताइए गरीबी रेखा से नीचे जाते हुए करोड़ों लोगों का क्या होगा? इनके सिर पर छत नहीं, तन पर कपड़ा नहीं, पेट में एक जून रोटी है। मदद इनकी होनी चाहिए थी। लेकिन इनकी ओर देखने की फुर्सत किसे? अब तो नए आठ लखटकिया गरीब पैदा हो गए। आरक्षण नौकरी का हो या शिक्षा का हर जगह ये हिस्सा बटाएंगे। सरकार ऐसे गरीबों की भूख मिटाने के लिए साझी रसोइयां बना रही है, जहां मुफ्त के भाव खाना ही नहीं, नाश्ता भी मिलेगा। नेकी की दुकानें खुल रही हैं, जहां इन नए-पुराने गरीबों को तन ढकने को कपड़े-लत्ते फ्री मिल जाएंगे। पहले सस्ते अनाज की दुकानें खुली थी, उन्हें तो काला धंधा करने वाले चोर बाज़ारियों ने बंद करवा दिया। अब इन मुफ्त रसोइयों के बाहर और नेकी की दुकानों पर घोषित गरीबों की कतारें लंबी होने लगी। नए-पुराने गरीब सभी वहां खड़े हैं, अपने लिए ओढ़ने को गुलबंद और खाने के लिए आरक्षित ब्रांड पुलाव मांग रहे हैं।


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