नारी के हिस्से की धूप

जिस नारी के आंचल में दूध है, उसकी आंखों में आखिर पानी क्यों? पापा के आंगन की मल्लिका आखिर मर्द द्वारा स्थापित वर्जनाओं व वासना के बाहुपाश में दासी कैसे बन जाती है? खुद को प्रगतिशील घोषित करने वाले पुरुष समाज के लिए ये लानत भरे सवाल हैं…

कभी देवी की सूरत, कभी श्रद्धा की मूरत, कभी पूजनीय, कभी ताड़नीय, कभी ममता की गगरी, कभी दुख भरी बदरी। समाज में नारी का रुतबा, सम्मान व परिस्थितियां पुरुष की सुविधानुसार बदलती रही हैं। नारी जीवन की व्यथा से प्रतीत होता है कि उसकी दशा का निर्धारण पुरुष द्वारा निर्मित उस सिक्के को उछालने से होता रहा जिसके दोनों ओर केवल हैड था। पुरुष सिक्का उछालता रहा और टॉस जीतता रहा। कहने को पुरुष धर्मराज बना रहा, परंतु जुए की बिसात पर शकुनियों के पासों के आगे परास्त होकर वो नारी को ही दांव पर लगाता रहा। इस तरह नारी के हाथ में आते रहे पुरुष के आदेश, उपदेश, प्रताड़ना व वर्जनाएं। कई बेटियों के बाद बेटे की चाहत, माहवारी के समय महिला को अछूत समझ कर किसी पुरानी कोठरी में या किसी पशुशाला में बिठा देना, मंदिर में उसका प्रवेश वर्जित करना, ये सब बातें नारी के प्रति हमारे समाज की संकीर्णता व खोखली सोच की बानगी है। प्रश्न वही पुराना है, क्या नारी को उसके हिस्से की धूप मिल पा रही है?

वास्तव में नारी की व्यथा उसके जन्म व पालन-पोषण की परिणति है। घर में जब कोई मेहमान आता है, तो मां-बाप कहते हैं, ‘बेटी चाय तो बना लाओ।’ बेटा चाहे पास बैठा हो या टीवी पर क्रिकेट मैच देख रहा हो या मोबाइल फोन पर गेम खेल रहा हो, उसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा जाता। अगर उससे ऐसा कह भी दिया जाए तो छोटे लाल कहते हैं, ‘ये तो दीदी करेगी क्योंकि वो लड़की है।’ मां थकान महसूस कर रही हो, तो वो कहती है, ‘बेटी जरा बर्तन तो धो लो। आज ज़रा चपाती तो बना लो। बेटी, जरा झाड़ू तो लगा।’ ये मत करो, वो मत करो, इतनी देर कहां थी, ये मत पहनो, वो मत पहनो, तुम लड़की हो। औरों के घर जाओगी, तो वे क्या कहेंगे? इन्हीं रूढ़ जुमलों से बने हिसारों और दीवारों में हमारी बेटियां पल कर बड़ी होती हैं। बेटी से बहन, पत्नी और मां बनते-बनते भेदभाव व पूर्वाग्रह दुर्लंघ्य लक्ष्मण रेखा बन जाती है। नारी इसे अपनी नियती समझ कर अपना किरदार चाहे-अनचाहे निभाती जाती है। उसके जीवन के सफर में ‘आंचल में दूध और आंखों में पानी’ की दास्तान वैसी ही रहती है। केवल पात्रों के नाम बदलते रहते है। वो तब सीता या द्रौपदी बनी और आज उसे निर्भया, गुडि़या या आसिफा के रूप में पुरुष की दरिंदगी का शिकार होना पड़ता है। आज भी वह शोषण, बलात्कार, दहेज, भ्रूण हत्या, अशिक्षा से जूझ रही है। मैं ये तो नहीं कह रहा हूं कि नारी ने तरक्की नहीं की है।

 दरअसल हमारा नारी समाज दो वर्गों में बंटा है। एक वर्ग में सरोजनी नायडू, इंदिरा गांधी, किरन देसाई, नीरजा भनोट, निर्मला सीतारमण, सुषमा स्वराज, कल्पना चावला, किरन बेदी, साइना नेहवाल, पीवी सिंधू, दीपा कर्माकर, मैरी कॉम, बबीता फोगाट जैसी प्रगतिशील और सशक्त महिलाएं हैं, जिन्होंने यही सिद्ध किया है कि महिलाएं अपने बलबूते अपने आप को बुलंदियों पर स्थापित कर सकती हैं। परंतु नारी समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसी महिलाओं का है, जो कोने में दुबक कर एक शून्य की जिंदगी जी रही हैं। वे पुरुष प्रधान समाज की रूढि़वादी सोच को या तो अपना भाग्य मान बैठी हैं या फिर धर्म मान कर रिश्ते निभा रही हैं। वो पति की सेवा कर रही हैं और पुरुष की ज़्यादती को सहन कर रही हैं। ज़ुल्म होने पर भी शिकायत नहीं करती, अगर करती हैं तो उनकी आवाज़ को दबा दिया दिया जाता है। वे पुरुष की ताड़ना और प्रताड़ना का शिकार बन जाती हैं। उनके लिए प्रिया रमानी जैसा साहस बटोर पाना अकल्पनीय है। यही वह वर्ग है जिसमें नारी शून्य की जि़ंदगी गुज़ार रही है। नारी सशक्तिकरण का मामला नारी और पुरुष दोनों की मानसिकता से जुड़ा हुआ सवाल है। प्राचीन काल से पितृसत्तात्मक समाज में कायदे कानून पुरुष ही बनाता आया है। उसे जब-जब जैसा सुविधाजनक लगा, उसने तब-तब नारी को उस सोच में ढाल दिया। कभी-कभी उसने कहा, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।’ फिर उसने कहा, ‘ढोर, गंवार, शूद्र, पशु और नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।’ उसने कहा, ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो…।’ अर्थात पुरुष ने अपनी सुविधा के अनुसार नारी को परिभाषित करने का प्रयास किया। उसने हमेशा नारी को अपने आदेशों, उपदेशों व वर्जनाओं में बांधाना चाहा और नारी बंधती चली गई। पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष नारी पर विजय चाहता है और नारी समर्पित होती चली जाती है, पुरुष उसे लूटना चाहता है और नारी लुटती चली जाती है। अग्नि में बैठकर अपने आपको पवित्र प्रमाणित करने वाली स्वच्छ सीता पितृसत्तात्मक समाज में नारी वेदना की परिचायक है। इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था से उगने वाली मनोवृत्ति व रूढि़ता से पुरुष को बाहर आना होगा।

 जरा सोचिए आप ने अपने-अपने घरों में अपनी मां, पत्नी, बहन और बेटी को कितनी भागीदारी, आज़ादी व अधिकार दिए हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि आप गलियों मैं नारी सम्मान का ढोल पीटते हैं और अपने घर में उन पर अपने मर्द होने की धौंस जमाते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसे अबला समझ कर आप उसे नज़रअंदाज़ कर देते हैं? आप उन्हें घर के सामाजिक व आर्थिक निर्णय लेने में कितनी भागीदारी देते हैं? कहीं आप बेटा और बेटी को शिक्षा दिलाने के मामले में बेटी के साथ अन्याय तो नहीं कर रहे हैं? ये सवाल अपने आप से कीजिए। नारी को भी अपनी शक्ति को स्वयं पहचानना होगा। नारी किसी भी समाज का आधा हिस्सा होता है और पुरुष का आधा अंग। इस आधे हिस्से और अंग के बगैर न कोई व्यक्ति फल-फूल सकता है और न ही समाज उन्नति कर सकता है। आखिर नारी को भी अपने हिस्से की धूप चाहिए, अपने हिस्से का आसमां चाहिए, अपने हिस्से का जहां चाहिए। जिस नारी के आंचल में दूध है, उसकी आंखों में आखिर पानी क्यों? पापा के आंगन की मल्लिका आखिर मर्द द्वारा स्थापित वर्जनाओं व वासना के बाहुपाश में दासी कैसे बन जाती है? मर्द द्वारा दिए गए चुनरी के उस दाग के लिए वो जि़म्मेदार कैसे है जिसे धोते-धोते वो अस्तित्वहीन हो जाती है। खुद को प्रगतिशील घोषित करने वाले पुरुष समाज के लिए ये लानत भरे सवाल हैं।


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