खेला होबे, खेला…

By: Mar 16th, 2021 12:05 am

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

पंडित जॉन अली अपने आंगन में फूलों की गुड़ाई करते हुए तान छेड़ रहे थे, ‘‘खेला होवे खेला, यह दुनिया का मेला, भीड़ में कोए अकेला, मिलकर खेलो खेला….।’’ जब मुझसे रुका नहीं गया तो मैं उनके पास जा पहुंचा। किसी खांगड़ अधिकारी की तरह मुझे घूरते हुए पंडित जी बोले, ‘‘मैं तो फूलों से खेल रहा था, पत्तों से खेल रहा था, तुझको मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं?’’ मैं हँसते हुए बोला, ‘‘पंडित जी, आज सुबह ही गोबिंदा की तरह मिर्ची लगाने लगे। ़खैरियत तो है। खेला, मेला, भीड़, अकेला, मिलकर और फूल-पत्तों से खेलने से आपकी मुराद क्या है?’’ वह गंभीर होते हुए बोले, ‘‘अगर मुराद होगी भी तो क्या तुम पूरी कर दोगे? तो जाओ, गोदी मीडिया को मुक्त कर दो। न्यायपालिका की रीढ़ सीधी कर दो। खादी-़खाकी के दा़ग धो डालो। ़खैर छोड़ो। जब खेला ही खेला नहीं रहा तो क्या खेलना? हां, दुनिया का मेला अब भी है। लेकिन भीड़ होते हुए भी सभी अकेले हैं। त्रेता युग में इतनी भीड़ होने के बावजूद राम ने जल समाधि अकेले ही ली थी।

 द्वापर में इतनों का उद्धार करने के बावजूद श्रीकृष्ण व्याध का बाण झेलने के लिए अकेले ही बचे थे। मरता हुआ आदमी भीड़ में होने के बावजूद अकेला ही मरता है। मिलकर तो हो-हल्ला ही हो सकता है। कभी रेत के घरौंदे बनाकर खेलने वाले बच्चे भी अब उन वीडियो गेम्स को पसंद करते हैं, जहां विरोधी को मनमरज़ी से मारा, काटा-पीटा जा सकता है। ऐसी भीड़ तुम्हें 33 कोटि देवताओं के मंदिरों से लेकर सत्ता के मंदिरों में हर जगह देखने को मिल जाएगी। जब हम भीड़भाड़ कहते हैं तो भीड़ उनके लिए होती है जो उसका ़फायदा उठाते हैं और भाड़, होता है भीड़ के लिए। जहां धरम और सत्ता के भड़भूंजे भीड़ को अपनी इच्छा और सुविधानुसार भूनते हैं। भीड़ तो हमेशा बे़गानी शादी में दीवानी हुई रहती है। शादी में लोग कैसे-कैसे नाचते हैं। याद है, फत्तू की शादी में तुमने भी नागिन डांस किया था। धार्मिक समागमों में तथाकथित धर्मगुरुओं के बेसुरे भजनों पर भीड़ कलात्मक नृत्य प्रस्तुत करती है। जन सभाओं में ऐसे-ऐसे लोग शामिल होते हैं, जो न नेता को जानते हैं और न नेता उन्हें। लेकिन नेता के दर्शनों से अपने को धन्य मानते हैं। नेता किसी भी क्षेत्र का हो सकता है। धर्म, समाज, ़कबीला, अर्थ, खेल, संस्कृति, राजनीति व़गैरह। सत्ता सुख, नेता भोगता है और भागते लोग हैं। ऐसे बौराए लोगों को हांकना मुश्किल नहीं होता। हां, मेला ज़रूर लगा रहता है। अगर खेला होगा तो नियम भी होंगे।

 लेकिन मेले में कोई नियम नहीं होते। खेला तो अब सि़र्फ केला बन कर रह गया है, जिसके छिलके विरोधियों को गिराने के लिए इस्तेमाल होते हैं। कभी किसी के ़का़िफले पर हमला हो जाता है तो कभी किसी के हाथ-पांव में चोट आ जाती है। किसी के मुंह पर आरोपों की कालि़ख पोतना उसके चेहरे पर क्रीम लगाने जैसा हो गया है। बेचारी नैतिकता अपनी प्यास बुझाने के लिए ओस चाटती रह जाती है और मुस्टंडे जी भर कर सत्ता का अमृत छकते हैं। खेला में जो ़खुद करते हैं, वही पुण्य होता है। पाप, हमेशा दूसरे ही करते हैं। लेकिन ऐसे खेला में आदमी भूल जाता है कि हरा तभी तक दिखाई देता है, जब तक ़िकस्मत हरी होती है। पतझड़ शुरू होते ही आदमी अकेला पड़ना शुरू हो जाता है और उसके मरने की खबर आने पर ही पता चलता है कि वह अभी तक ज़िंदा था।’’ इतना कहने के बाद पंडित जी फिर गुड़ाई में व्यस्त हो गए और मेरे हाथ आंगन में पड़े टेडी बियर की ओर बढ़ने लगे थे।


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