शरम आती है मगर…

By: Mar 9th, 2021 12:05 am

अजय पाराशर

लेखक, धर्मशाला से हैं

कई मर्तबा घंटी बजाने और दरवाज़ा खटखटाने के बाद जब पंडित जॉन अली बाहर नहीं निकले तो मजबूरन मुझे उनके घर में घुसने की हिमा़कत करनी पड़ी। वैसे उनका पड़ोसी और लंगोटिया होने के नाते मुझे पूरा इ़िख्तयार था कि मैं कभी भी मुंह उठाए उनके घर में घुस सकता था; बावजूद इसके यह हरकत पाकिस्तानी या चीनी ़कतई नहीं थी। मैं किसी अनहोनी से आशंकाग्रस्त होकर उनके घर में घुसा था। पूरा घर छानने के बाद जब मैं उनके डे्रसिंग रूम में पहुंचा तो देखा कि भाभी की चुन्नी सिर पर लिए, पंडित जी आईने के सामने शरमाने का अभ्यास कर रहे हैं। मुझे देखते वह ही किसी नगरवधू की तरह लज्जाते हुए गाने लगे, ‘‘शरम आती है मगर आज ये कहना होगा, अब हमें आपके कदमों में ही रहना होगा……।’’  मैं किसी तरह अपनी हंसी रोकते हुए बोला, ‘ खैरियत है जो इस तरह आईने के सामने शरमाते हुए गा रहे हैं।’’ वह तुनकते हुए बोले, ‘‘यार! विपक्ष की तरह एक ही सवाल बार-बार दागे जा रहे हो।

 मुझे अपना बयान तो पूरा कर लेने दो। जब से गब्बर सिंह ने सार्वजनिक रूप से मीडिया के सामने ऐलान किया है कि चाहे बसंती को धन्नो के साथ तांगा हांकते शरम आती नहीं, लेकिन उसे दो औरत ज़ात को बाज़ार में तांगे के साथ देखकर शरम आती है। तब से मैं भी सार्वजनिक रूप से शरमाने का अभ्यास करने लगा हूं। वैसे तो मैं जब किसी युवक या युवती को लो वेस्ट या फटी जीन्स में देखता हूं, शरमा जाता हूं। दो आदमियों का खाना कूडे़दान में डालने पर, मुझे रत्ती शरम नहीं आती। लेकिन जब गरीबों के पिचके पेट देखता हूं, शरम आने लगती है। द़फ्तर के अलावा अपने लिए चाहे सरकारी गाड़ी सौ किलोमीटर दौड़ा लूं, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। पर दूसरे अधिकारियों की गाडि़यों में उनकी बीवियों को सब्ज़ी-भाजी ़खरीदते या बच्चों को स्कूल-कॉलेज छोड़ते देखता हूं, शरमा जाता हूं। मुहल्ले में किसी से हाथापाई करने पर मुझे संकोच नहीं होता। किंतु जब सदन में माननीयों को लड़ते देखता हूं, शरम से पानी-पानी हो जाता हूं। ़खुद चाहे दिन में सौ बार झूठ बोलूं, कोई अंतर नहीं पड़ता।

पर किसी माननीय को चुनावी रैलियों, सम्मेलनों या मीडिया में झूठ बोलते देखता हूं, शरम से लिजलिजा उठता हूं। देश में बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विकास कार्यों की ना़कामियों के लिए सत्ता पक्ष, भले ही विपक्ष को ज़िम्मेवार ठहराए, शरम मुझे आने लगती है। यूं तो मैं कब, कहां, क्यों और कैसे शरमा जाऊं, मुझे ़खुद पता नहीं होता। किंतु अपने शरमाने को सार्वजनिक नहीं कर पाता। पर जब से सत्ता पक्ष कहने लगा है कि भले ही विपक्ष को हमें आरोपित करने में कोई शरम नहीं आती, लेकिन हमें शरम आती है। तब से मैं भी शरमाने की प्रेक्टिस करने लगा हूं। अब तो देश में शरम इतनी बढ़ गई है कि हर भारतीय को चाहे और कुछ आए न आए, कम से कम शरमाना तो आना ही चाहिए। वैसे मेरी शरम भी दूसरों के कृत्यों को लेकर ही जागती है, अपने कारनामों पर तो मैं भी गांधारी बन जाता हूं। ऐसे में हर देशवासी भले ही मौ़के-बेमौ़के किसी नई-नवेली दुल्हन की तरह लज्जा न पाए लेकिन उसे नगरवधू की तरह इतने मैनर्स तो आने ही चाहिए कि उसे पता हो कि कब, कहां, किस समय और कैसे सार्वजनिक रूप से शरमाना है।’’ पंडित जी इतना कहने के बाद एक बार फिर आईने के सामने शरमाने का अभ्यास करने लगे। कुछ सोचने के बाद मैं भी उनके बगल में रखे तौलिए को सिर पर ओढ़ कर, उनके साथ शरमाने की प्रेक्टिस में शामिल हो गया।


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