सीसीटीवी या औचक निरीक्षण ही क्यों?

फ्रांस के सम्राट लुई चौदहवें ने नीदरलैंड के साथ काफी लंबे समय तक युद्ध किया। इस संघर्ष में जब उसे ख़ास सफलता नहीं मिली तो निराश होकर अपनी असफलता के लिए मंत्रियों को कोसने लगा। तभी उसके एक क़ाबिल मंत्री जीन कॉल्बर्ट ने करारा जवाब देते हुए कहा, ‘सर, किसी राष्ट्र का बड़ा या छोटा होना उसकी लंबाई और चौड़ाई से निर्धारित नहीं होता, बल्कि उस देश में रहने वाले लोगों के चरित्र से होता है।’…

कुछ रोज़ पहले ठियोग के एसडीएम एक ग्राहक बन कर शराब लेने ठेके पहुंचे और उन्होंने सेल्जमैन को एमआरपी से ज़्यादा कीमत लेते धर लिया और पचास हज़ार जुर्माना भी ठोक दिया। उधर अंब के एसडीएम ने चिंतपूर्णी के दर्शन करवाने के लिए लगी कतार में घुसाने के एवज़ में पांच सौ रुपए लेने पर एक होमगार्ड को पकड़ लिया। एक चोर रास्ते का भी पता लगा जहां से श्रद्धालुओं को दर्शन करवाने के ग्यारह सौ रुपए लिए जाते हैं। निःसंदेह अधिकारियों ने सराहनीय कार्य किया है। परंतु सवाल यह उठता है कि देश-प्रदेश में ऐसे कितने ठेके व मंदिर होंगे जहां ऐसा होता होगा। सवाल यह भी उठता है कि ऐसे कितने अधिकारी होंगे जो इन जगहों पर जाकर इस तरह की हेराफेरी को जांचते हैं। सवाल यह भी है कि क्या केवल शिकायत के आधार पर ही अधिकारियों को जांच-पड़ताल करनी चाहिए। बात केवल शराब के ठेकों या मंदिरों की नहीं, बल्कि इस तरह के अन्य गैर कानूनी, अनैतिक व भ्रष्ट गतिविधियों की भी है। श्रद्धालुओं या जनसाधारण की सोच का आलम भी देखो, 1100 या 500 रुपए की रिश्वत ले-दे कर भगवान तक पहुंचना चाहते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि कुछ लोग लालच में भ्रष्ट होते हैं और कुछ मजबूरी में भ्रष्टाचार का शिकार होते हैं। शुद्ध निचोड़ यह निकलता है-‘रहबरों के काफिले में हर मुसाफिर लुटेरा है।’ सारनाथ के अशोक स्तंभ पर लिखे वाक्य ‘सत्यमेव जयते नानृतं’ अर्थात ‘सत्य की जीत होती है, झूठ की नहीं’ को हम आदर्श मानते हैं। परंतु जब इसे जीवन में व्यावहारिक रूप देने की बात आती है तो मामला उल्टा होता है।

हम चाहे किसी रेस्तरां में हों, कहीं वार्तालाप कर रहे हों, परीक्षा हॉल में हों, किसी बस या रेलवे स्टेशन पर हों, कोई खरीददारी कर रहे हों, हमें नाइट विजन सीसीटीवी कैमरे चाहिए। मालूम नहीं किसके अंदर का चोर कब जाग जाए। मुझे कुछ वर्ष पहले की एक घटना याद आ रही है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी की एक आधिकारिक यात्रा में गए वरिष्ठ पत्रकार लंदन के लग्ज़री होटल से चांदी की चम्मचें चुराते पाए गए। उनकी यह हरकत सीसीटीवी कैमरे में कैद हो गई। एक साहब ने तो चुराई चम्मचों को अपने साथी के बैग में डाल दिया ताकि मामला सामने आने पर पकड़ में वह नहीं, उसका साथी आए। खैर सीसीटीवी कैमरे ने उसकी भी पोल खोल दी। मामला मुआफी मांग कर व ज़ुर्माना देकर थम गया। इसी तरह कई वर्ष पहले मैं एक दिन शिमला के माल रोड पर स्थित पुस्तकों की एक दुकान में पुस्तक खोज रहा था। तभी मेरी नज़र एक ग्राहक पर पड़ी जो अपने हाथ में ऑक्स्फोर्ड डिक्शनरी लेकर खड़ा था। सामने खड़े सेल्जमैन ने उसे डिक्शनरी वहीं छोड़ कर बाहर निकलने का संकेत किया। ग्राहक मंद-मंद मुस्कुराता हुआ दुकान से बाहर निकला और लिफ्ट की ओर चल पड़ा। दो या तीन मिनट के बाद वह सेल्जमैन भी उसके पीछे निकल पड़ा। लगभग सौ कदम आगे जाने के बाद सेल्जमैन मिडल बाज़ार की ओर मुड़ गया। सीढि़यां उतरते ही मिडल बाज़ार में वह ग्राहक को मिला।

ग्राहक ने फटाफट सेल्जमैन को 150 रुपए थमा दिए। सेल्जमैन ने 150 रुपए बना लिए और ग्राहक ने 350 रुपए बचा लिए। मालिक गया भाड़ में। कुछ दिनों बाद मालिक ने सेल्जमैन को काम से निकाल दिया  क्योंकि वह एक दिन पकड़ा गया। अर्थात हमारे बाहरी आवरण के नीचे गंदगी छुपी है। हमारे अंदर बड़ा चोर छुपा है। आज दोहरा जीवनयापन व पाखंड जीने का तरीका बनता जा रहा है। ठेके के सेल्जमैन ने सोचा होगा उसे कौन पूछेगा। चिंतपूर्णी के होमगार्ड ने भी यही सोचा होगा। लंदन के लग्ज़री होटल में चम्मच चुराने वालों ने यह सोचा होगा कि उन्हें कोई नहीं देख रहा या उन्हें अपने इस हुनर पर ज़्यादा ही विश्वास रहा होगा। उधर बुक शॉप पर सेल्जमैन और ग्राहक ने भी यही सोचा होगा कि उन्हें कौन पकड़ पाएगा। पर सत्य यही है कि झूठ की दुर्गंध ज़्यादा दिनों तक नहीं छुप सकती। क्या अंतःकरण या अंतश्चेतना का कोई स्थान नहीं? क्या सच्चरित्र, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी मायने नहीं रखते? क्या हमें ईमानदार बने रहने के लिए सीसीटीवी चाहिए ही चाहिए? क्या अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करने के लिए हमें सीसीटीवी और औचक निरीक्षण ही चाहिए? क्या अपनी ड्यूटी निभाने को हमें आदेशों या शिकायतों की आवश्यकता है। क्या ज़मीर, निष्ठा, आत्मबोध सब मर चुके हैं? ये सवाल हर एक को खुद से पूछने चाहिएं।

संस्कृत में कहा गया है- ‘यथा चित्तं तथा वाचो, यथा वाचस्तथा क्रिया’, अर्थात जैसा विचार मन में हो वैसा ही बोलो, जैसा बोलो वैसा ही कार्य करो। यदि आप चरित्र, ईमानदारी और निष्ठा की पैरवी करते हैं तो इन मूल्यों को अपने वास्तविक जीवन में जीओ। नैतिकता कोई विज्ञापन की वस्तु नहीं है, जिसका ढिंढोरा पीटा जाए। कुछ लोग किसी मार्किटिंग एजेंट की तरह ईमानदारी की बड़ी-बड़ी बात करते हैं और जब ईमानदारी दिखाने का सही अवसर होता है तो पाला बदलने में देर नहीं लगाते। ऐसे लोग आईने में अपनी सूरत देखने से भी कतराते हैं क्योंकि वे अपना सामना नहीं कर पाते। शीलम् पुरुषे प्रधानम् अर्थात मनुष्य में चरित्र सबसे ऊंचा स्थान रखता है। फ्रांस के सम्राट लुई चौदहवें ने नीदरलैंड के साथ काफी लंबे समय तक युद्ध किया। इस संघर्ष में जब उसे ख़ास सफलता नहीं मिली तो निराश होकर अपनी असफलता के लिए मंत्रियों को कोसने लगा। तभी उसके एक क़ाबिल मंत्री जीन कॉल्बर्ट ने करारा जवाब देते हुए कहा, ‘सर, किसी राष्ट्र का बड़ा या छोटा होना उसकी लंबाई और चौड़ाई से निर्धारित नहीं होता, बल्कि उस देश में रहने वाले लोगों के चरित्र से होता है।’ ईमानदार और सत्यनिष्ठ होने के लिए आपको बड़े ओहदे या महान होने की ज़रूरत नहीं होती। यदि आप जीवन के छोटे-छोटे कामों में ईमानदारी बरतते हैं तो स्वतः ही आप हर काम को ईमानदारी से ही करेंगे। हर काम को करने से पहले अंतःकरण की आवाज़ को सुनिए, खुद से पूछिए कि आप जो करने जा रहे हैं वह सही है या गलत। आपको सही राह मिलेगी क्योंकि कहा गया है- ‘जाके हृदय सांच है ताके भीतर आप।’


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