दश गुरु और मुगल परंपराएं

दारा शुकोह को तर्क से उत्तर देने की बजाय हथियार से उत्तर क्यों दिया गया? लेकिन दो धाराओं की इस टक्कर में दारा शुकोह का साथ देना एक प्रकार से भारत की सांस्कृतिक लिहाज़ से रक्षा करना ही था। परंतु मुग़लों के राजनीतिक आतंक के उस युग में कोई भी दारा शुकोह की धारा के साथ जाने को तैयार नहीं था। परंतु उस संकट काल में दशगुरु परंपरा ने दारा शुकोह की धारा का साथ दिया। दारा शुकोह अपने भोजन में मिले भयंकर ज़हर से बीमार  पड़ गया। भारत पर राज करने वाले विदेशी मुग़ल शासक इससे प्रसन्न थे। भारतीय संस्कृति की ओर अग्रसर एक धारा  का अंत निश्चित था। विष इतना भयानक था कि बच पाने की उम्मीद कम ही लगती थी। लेकिन दश गुरु परंपरा के सप्तम गुरु श्री हरि राय जी, जो आयुर्वेद के पंडित थे, ने  आयुर्वेद पद्धति से दारा शुकोह का इलाज करके उसे मरने से बचा कर एक धारा को समाप्त होने से बचा लिया। बाद में गुरु हरि राय जी को इसके कारण मुग़ल शासकों के कोप का शिकार भी होना पड़ा…

सप्त सिंधु अथवा पंजाब के इतिहास को समझने के लिए दो परंपराओं को समझना बहुत जरूरी है। पहली परंपरा दश गुरु परंपरा है जिसकी शुरुआत श्री नानक देव जी से हुई। दूसरी परंपरा विदेशी मुग़ल परंपरा है। मुग़ल परंपरा और दश गुरु परंपरा मोटे तौर पर समकालीन हैं। दश गुरु परंपरा ने अपने शुरुआती काल से ही मुग़ल परंपरा को चुनौती दी। यह चुनौती दो स्तरों पर थी। सांस्कृतिक स्तर पर भी और सामरिक स्तर पर भी।

उसका कारण यह भी था कि मुग़ल परंपरा का आक्रमण भी दोनों स्तरों पर हुआ था। जिन दिनों सप्त सिंधु क्षेत्र में मुग़ल-तुर्क शासक विसंस्कृतिकरण का आंदोलन चला रहे थे और लोगों को साम, दाम, दंड, भेद से इस्लाम नाम के मजहब में मतांतरित कर रहे थे, उन्हीं दिनों सप्त सिंधु अथवा पंजाब की धरती पर एक नए प्रयोग का उदय हो रहा था। एसटीएम मूल के विदेशी मुसलमान शासक और सैयद क़ाज़ी मौलवी भारत को दारुल-इस्लाम बनाने का प्रयास कर रहे थे, वहीं बहुत छोटे स्तर पर एसटीएम मूल के कुछ साधु-संत, पीर, सू़फी और क़लन्दर भारतीय संस्कृति के रंग में भी सराबोर हो रहे थे। वे यहां की मिट्टी से जुड़ ही नहीं रहे थे, बल्कि उसमें आत्मसात हो रहे थे। परंतु शासकों के स्तर पर दारुल इस्लाम ही ध्येय था। लेकिन सत्रहवीं शती  में शाहजहां के काल से ही मुग़ल परंपरा में अरब-तुर्क-मंगोल परंपरा से टूट कर एक नई धारा विकसित होने के संकेत मिलने लगे थे। वहां भी कुछ  ऐसी कोंपलें फूटने लगी थीं जिससे लगने लगा था कि अंततः भारतीय दर्शन, चिंतन और साधना का प्रभाव वहां भी दिखाई देने लगा था। मुग़ल शासकों में दारा शुकोह इसी नई धारा का प्रतीक बन कर उभरा था।

वह उपनिषदों का गहराई से अध्ययन ही नहीं कर रहा था, बल्कि उनका फ़ारसी भाषा में अनुवाद भी कर रहा था। देश भर में इसकी चर्चा भी होने लगी थी। वह उपनिषदों के प्रकांड पंडितों को निमंत्रित करता था और उनसे घंटों आध्यात्मिक प्रश्नों पर संवाद करता  था। मुग़ल शासकों का एक वर्ग यह मानने लगा था कि अब उन्हें भारत की विरासत से जुड़ना ही नहीं चाहिए बल्कि अपना सांस्कृतिक भारतीयकरण भी करना चाहिए। दारा शुकोह शाहजहां की सब संतानों में सबसे बड़ा था, इससे  वही राजगद्दी का उत्तराधिकारी था। लेकिन क़ाज़ी, सैयद मौलवी नहीं चाहते थे कि दारा शुकोह किसी भी तरीक़े से राज गद्दी तक पहुंचे। जिस गति से दारा शुकोह का सांस्कृतिक स्तर पर भारतीयकरण हो रहा था, उससे निश्चय ही दारा शुकोह को राज गद्दी दे देने का अर्थ था एक बार फिर से भारत का शासन वैचारिक लिहाज़ से भारतीयों के पास आ जाना। सैयद मौलवी उसे किसी भी हालत में राजगद्दी तक नहीं पहुंचने देंगे । इसको लेकर उस समय दो विचार समूह बन गए थे। पहला समूह उन मुल्ला मौलवियों, राजदरबारियों, एसटीएम मूल के मुसलमानों का था जिनकी जड़ें किसी न किसी रूप में अरब प्रदेश या मध्य एशिया में लगी हुई हैं। दारा शुकोह का अपना भाई औरंगज़ेब भी शामिल हो गया। औरंगज़ेब अपने मजहब में कट्टर तो था ही, वह सारे हिंदुस्तान को भी मोमिन बना लेना चाहता था।

 वास्तव में औरंगज़ेब उस धारा का प्रतीक या प्रतिनिधि बन कर उभरा था जो भारत पर शारीरिक शासन ही नहीं करना चाहती थी, बल्कि यहां सांस्कृतिक साम्राज्यवाद भी थोपना चाहती थी। इसके विपरीत दारा शुकोह धारा एसटीएम (सैयद-तुर्क-मुग़ल-मंगोल) का भी भारतीयकरण करना चाहती थी। विदेशी मुग़ल परंपरा की औरंगज़ेब धारा ने दारा शुकोह धारा का तार्किक स्तर पर मुक़ाबला करने या उसका उत्तर देने की बजाय उसका पशुबल से उत्तर देना ज़्यादा आसान समझा। औरंगज़ेब ने अपने भाई दारा शुकोह को मारने के लिए उसके भोजन में ज़हर मिला दिया। औरंगज़ेब ने दारा शुकोह की भारतीयकरण की विचारधारा को मारने के लिए ज़हर का प्रयोग किया। इसे फिर भी आसानी से समझा जा सकता है क्योंकि औरंगजेब के पास सभी प्रश्नों का उत्तर पशुबल ही था। लेकिन सैयद मुल्ला मौलवी भी औरंगज़ेब की इस रणनीति का समर्थन क्यों कर रहे थे! वे तो स्वयं को क़ाज़ी भी मानते व कहते थे और उनका यह भी दावा था कि उनके पास ज्ञान का भंडार है। दारा शुकोह को तर्क से उत्तर देने की बजाय हथियार से उत्तर क्यों दिया गया? लेकिन दो धाराओं की इस टक्कर में दारा शुकोह का साथ देना एक प्रकार से भारत की सांस्कृतिक लिहाज़ से रक्षा करना ही था। परंतु मुग़लों के राजनीतिक आतंक के उस युग में कोई भी दारा शुकोह की धारा के साथ जाने को तैयार नहीं था। परंतु उस संकट काल में दशगुरु परंपरा ने दारा शुकोह की धारा का साथ दिया।

दारा शुकोह अपने भोजन में मिली भयंकर ज़हर से बीमार  पड़ गया। भारत पर राज करने वाले विदेशी मुग़ल शासक इससे प्रसन्न थे। भारतीय संस्कृति की ओर अग्रसर एक धारा  का अंत निश्चित था। विष इतना भयानक था कि बच पाने की उम्मीद कम ही लगती थी। लेकिन दश गुरु परंपरा के सप्तम गुरु श्री हरि राय जी, जो आयुर्वेद के पंडित थे, ने  आयुर्वेद पद्धति से दारा शुकोह का इलाज करके उसे मरने से बचा कर एक धारा को समाप्त होने से बचा लिया। बाद में गुरु हरि राय जी को इसके कारण मुग़ल शासकों के कोप का शिकार भी होना पड़ा। लेकिन दश गुरु परंपरा के गुरुओं और उनके शिष्यों ने इसकी चिंता नहीं की। लेकिन दुर्भाग्य से भारत में अपना शासन समाप्त करने के बाद अंग्रेज़ों ने भी औरंगज़ेब परंपरा के इतिहास को ही प्रश्रय दिया। कांग्रेस तो अपने शासन काल में इससे भी एक क़दम आगे गई। उसने दारा शुकोह की परंपरा को ख़ारिज तो किया ही, उसने तो औरंगज़ेब की परंपरा को भारतीय कह कर उसे अपना ही लिया और उस परंपरा के विदेशी शासकों के नाम पर सड़कों के नाम ही रखने शुरू कर दिए।

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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