देवभूमि से वीरभूमि तक हिमाचल का सफर

देश की आज़ादी व स्वाभिमान के लिए बलिदान देकर शौर्यगाथाओं के मजमून लिखने वाले वीरभूमि के शूरवीरों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलनी चाहिए। साथ ही हिमाचल रेजिमेंट भी दी जाए…

देश की आजादी के बाद 15 अप्रैल 1948 को 30 पहाड़ी रियासतों के एकीकरण के साथ हिमाचल प्रदेश स्वतंत्र भारत की इकाई के रूप में वजूद में आया था, लेकिन हिमालय के आंचल में बसे इस छोटे से पर्वतीय प्रदेश की गौरव-गाथाओं का प्राचीनतम इतिहास गौरवमयी रहा है। महाभारत के रणक्षेत्र से लेकर स्वतंत्रता संग्राम, विश्व युद्धों, आजाद हिंद सेना तथा देश के लगभग सभी सैन्य अभियानों व युद्धों में राज्य के वीर सपूतों ने असंख्य कुर्बानियां देकर हिमाचली रक्त को श्रेष्ठ साबित करके प्रदेश को देवभूमि के साथ वीरभूमि की कतार में भी खड़ा किया है। इसीलिए राज्य अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विशिष्टताओं के साथ देश के गौरवशाली सैन्य इतिहास के स्वर्णिम पन्नों पर भी पहचान बनाए हुए है।

राज्य में स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ, सिद्धपीठ व कई अन्य प्राचीन मंदिर, गुरुद्वारे, मठ आदि लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र हैं। हमारे धार्मिक ग्रंथों में हिमालय की पर्वतमालाओं को भगवान शिव का मूल वास व क्रीड़ास्थली माना गया है। वहीं राज्य प्राचीन से कई ऋषि-मुनियों की तपोस्थली, ध्यान, साधना का परमधाम रहा है। इनमें महर्षि भृगु, व्यास, मार्कण्डेय, पराशर, पांडव पुरोहित महार्षि धौम्य, रामायणकालीन महर्षि श्रृंगी, मांडव्य, लोमष ऋषि, जमदग्नि, रघुवंश के कुलगुरू महर्षि वशिष्ठ, परशुराम, कल्पी ऋषि तथा राज्य की सबसे प्राचीन रियासत त्रिगर्त राज्य के कुलगुरू महर्षि शेशिनारायण जैसे महान मनीषियों की भक्ति व तपोबल के व्यापक चिन्ह राज्य की मुकद्दस पर्वत श्रृंखलाओं में आज भी मौजूद हैं। आस्था का केन्द्र रहे राज्य के धार्मिक स्थलों के दर्शन दीदार, मानसिक शांति व सुकून के लिए लाखों श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं। यदि बात वीरभूमि के संदर्भ में करें तो जब भारत ब्रिटिश सत्ता का गुलाम था, दुनिया में बर्तानवी हुकूमत का कभी सूर्यास्त नहीं होता था, लोगों के जहन में अंग्रेजों की गुलामी का खौफ  इस कदर था कि मुल्क में कोई शख्स उनके खिलाफ आवाज बुलंद करने की हिमाकत नहीं करता था, उस दौर में सन 1846 में नूरपुर रियासत के बीस वर्षीय नौजवान ‘वजीर रामसिंह पठानिया’ ने इसी हिमाचल की धरती से फिरंगी हुकूमत के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह को अंजाम देकर आज़ादी का सफीना जारी कर दिया था। पठानिया की उसी बगावत की आग से उपजे इंकलाब ने देश के लाखों लोगों को आज़ादी का ख्वाब दिखा दिया।

अपनी शमशीर से विदेशी हुकूमत के वजूद को ललकार कर आज़ादी की शमां जलाने वाले राम सिंह पठानिया ने देश के लिए अल्पायु में ही जीवन कुर्बान कर दिया था। यदि आज जम्मू-कश्मीर भारतीय ध्वज तले हमारे मानचित्र पर मौजूद है तो इसका पूरा श्रेय हिमाचली शूरवीर ‘नेपोलियन ऑफ द ईस्ट’ महान जरनैल ‘जोरावर सिंह कहलुरिया’ को जाता है जिन्होंने 1840 में अफगानों को हराकर स्कर्दू, गिलगिट व बाल्टिस्तान को जीतने के बाद अपने सैन्य अभियानों से लेह-लद्दाख को जम्मू-कश्मीर रियासत की सरहदों में मिलाकर रणक्षेत्र में ही अपना बलिदान दे दिया था। लेह क्षेत्र में रण कौशल के माहिर उस योद्धा के पराक्रम की निशानी ‘जोरावर किला’ मौजूद है, मगर अफगान लड़ाकों को शिकस्त देने वाला कश्मीर का फातिम जनरल जोरावर सिंह तथा क्रांतिवीर राम सिंह पठानिया हिमाचल के इतिहास में गुमनामी के दौर में चले गए। देश में 1857 के देशव्यापी विद्रोह को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति के तौर पर माना जाता है, मगर उस संग्राम में मंगल पांडे व झांसी की रानी की तरह ब्रिटिश सत्ता की खिलाफत करने वाले कुल्लू की बदाह रियासत के कंवर युवराज प्रताप सिंह हिमाचल के अग्रणी योद्धा थे। उस क्रांतिवीर को अंग्रेजों ने गिरफ्तार करके 3 अगस्त 1857 को धर्मशाला के पुलिस मैदान में सार्वजनिक रूप से फांसी की सजा दे दी थी। 25 अगस्त 1944 को अंग्रेज सरकार ने मेजर दुर्गामल को लाल किले में फांसी पर चढ़ा दिया था जो कि ‘आज़ाद हिंद फौज’ के सैनिक थे। भारत व पाक के बीच हुए चार बड़े युद्धों में पाक सिपहसालारों का मुख्य केंद्र बिंदु कश्मीर ही रहा है। कश्मीर को महफूज रखने में हिमाचल की सैन्य कुर्बानियों का सिलसिला 1947 में पाक सेना के ऑपरेशन ‘गुलमर्ग’ से शुरू हो गया था जब मेजर सोमनाथ शर्मा ने 3 नवंबर 1947 में शहादत देकर श्रीनगर की धरती पर तिरंगा फहराकर पाक सुल्तानों के अरमानों पर पानी फेर दिया था। स्वतंत्र भारत के सर्वोच्च सैन्य सम्मान ‘परमवीर चक्र’ से सरफराज होने का गौरव उसी हिमाचली जांबाज को प्राप्त है। 1965 पाक ‘आपरेशन जिब्राल्टर’ में कश्मीर के पुंछ क्षेत्र में बिलासपुर के सिपाही सुखराम सिंह ठाकुर ‘वीर चक्र’ ने अदम्य साहस का परिचय देकर पाक सेना की मंसुबाबंदी को नेस्तानाबूद करके अपना बलिदान दिया था।

 10 दिसंबर 1971 की रात को पाक की सरहद में घुसकर भारत पर पाक सेना के हमले की पूरी तजवीज को ध्वस्त करके पाकिस्तान के शकरगढ़ में तिरंगा फहराने वाला जाबांज मेजर गुरूदेव सिंह जसवाल (22 पंजाब) भी हिमाचली सपूत था। युद्धक्षेत्र में उच्चकोटी के सैन्य नेतृत्व व पराक्रम के लिए मेजर जसवाल को ‘वीर चक्र’ (मरणोपरांत) से नवाजा गया था। मई 1999 में कारगिल के दुर्गम पहाड़ों की बुलंदियों पर पाक सेना की घुसपैठ का पता लगाने वाले कैप्टन सौरभ कालिया से लेकर उस युद्ध को अंजाम तक पहुंचाने में कैप्टन विक्रम बतरा ‘परमवीर चक्र’ सरीखे हिमाचल के 52 युवा सैनिकों ने मजीद किरदार अदा करके मातृभूमि की रक्षा में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। बेशक वर्तमान में हिमाचल प्रदेश शिक्षा, बागवानी, पर्यटन व कई अन्य विकास कार्यों में उन्नति करके उस मुकाम पर पहुंच गया है कि देश-विदेश में किसी तारूफ का मोहताज़ नहीं है, मगर देश की आज़ादी व स्वाभिमान के लिए बलिदान देकर शौर्यगाथाओं के मजमून लिखने वाले वीरभूमि के शूरवीरों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलनी चाहिए। केन्द्र सरकार को चाहिए कि सर्वोच्च सैन्य पदक दो ‘विक्टोरिया क्रास’ व चार ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित प्रदेश के रणबांकुरों के नाम पर राज्य में सैन्य संस्थान या वर्षों से चली आ रही ‘रेजिमेंट’ की मांग पर तवज्जो दे ताकि भावी पीढि़यां राज्य के शूरवीरों के अविस्मरणीय सैन्य योगदान व क्रांतिकारी ऐतिहासिक विरासत से अवगत हो सके।


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