कोरोना काल में कैसी हो शिक्षा?

संक्रमण कम होने के बाद प्रत्येक सौ परिवारों को एक इकाई मानकर दो शिक्षक और कुछ वॉलेंटियरों (स्वयंसेवकों) के माध्यम से खुले मैदान में कक्षाएं संचालित की जानी चाहिए। बेशक अलग-अलग स्कूलों और बोर्डों में पढ़ रहे बच्चे वहां होंगे, लेकिन इस असाधारण परिस्थिति में इस तरह के असाधारण प्रयोग करने की जरूरत है। इन सभी बच्चों के लिए एक जैसा पाठ्यक्रम बनाने की जरूरत होगी…

कोरोना की वैश्विक आपदा अब अपने भयानक दौर में प्रवेश कर गई है। खासकर हमारा देश इस वक्त अभूतपूर्व संकट में है। प्रतिदिन तीन लाख के करीब नए संक्रमण के केस सामने आ रहे हैं और आशंका जताई जा रही है कि यह संख्या पांच लाख तक भी पहुंच सकती है। पिछले साल सितंबर में, तब तक के अधिकतम सक्रिय मरीज करीब 10 लाख थे जो अब दोगुने हो गए हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि बहुत जल्दी ही यह संख्या भी द्विगुणित हो जाए। जाहिर है, हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था इतना बड़ा बोझ उठाने के लिए सक्षम नहीं है। महामारी के पहले साल में हमें तैयारी करने के लिए जो समय मिला था, उसे हमने उत्सव मनाने और चुनाव प्रचार करने में व्यर्थ गंवा दिया। लापरवाह राजनीतिक नेतृत्व का नुकसान अब पूरे देश को मिलकर उठाना पड़ रहा है। हमें याद रखना चाहिए कि हमने कभी इस बात की फिक्र नहीं की कि हमारी सत्ताएं देश के स्वास्थ्य को बेहतर करने के लिए कितना खर्च कर रही हैं? हमारी स्वास्थ्य सुविधाएं इतनी जर्जर क्यों हैं कि लोग ऑक्सीजन, इंजेक्शन, आईसीयू और वेंटीलेटर जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए भटक रहे हैं? पिछले एक साल में ही जनता के तौर पर हमने ये सवाल कितनी बार पूछा है? इस महामारी ने स्वास्थ्य के बाद शिक्षा और रोजगार को तहस-नहस किया है। शिक्षा के क्षेत्र में भी सबसे महत्त्वपूर्ण संसाधनों का अभाव है। इस बार यूनेस्को ने ‘शिक्षा के लिए वैश्विक पहल’ सप्ताह की थीम इसी बात पर केन्द्रित की है कि शिक्षा पर सरकारों द्वारा खर्च की जाने वाली राशि को बढ़ाना चाहिए और जहां तक संभव हो, सबको एक समान शिक्षा के लिए प्रयास करना चाहिए। हमारे देश में विगत आधी सदी से लगातार ये बात उठाई जाती रही है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का कम से कम छह प्रतिशत एवं केन्द्रीय बजट का न्यूनतम 10 प्रतिशत हिस्सा शिक्षा पर खर्च किया जाए।

 सभी पार्टियां और सरकारें वचन देती हैं, वायदे करती हैं, परंतु आज तक अमल की स्थिति ये है कि हम कभी भी 4 प्रतिशत से अधिक राशि शिक्षा पर नहीं खर्च कर सके हैं। इसका सीधा परिणाम ये होता है कि लोगों को अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा बच्चों की शिक्षा पर खर्च करना होता है और समाज के आर्थिक रूप से कमजोर तबके अपने बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित होते हुए देखने के लिए अभिशप्त होते हैं। कोरोना आपदा ने न केवल साल भर के लिए शालाओं को बंद कर दिया है, बल्कि ऑनलाइन शिक्षा के लिए भी दरवाजे खोल दिए हैं। नई शिक्षा नीति के माध्यम से सरकार इसे पहले ही प्रस्तावित कर चुकी थी। एक तरह से शिक्षा के व्यापार को नई दिशा देने में तो यह महामारी सहायक ही साबित हुई है, लेकिन जैसा कि साल भर के अनुभवों ने साबित कर दिया है कि ऑनलाइन शिक्षा में शिक्षा बहुत कम है और वह ऑनलाइन बाजार में उपलब्ध एक विक्रय वस्तु से अधिक कुछ और नहीं है। दरअसल ऑनलाइन क्लास में न शिक्षक सिखाने की स्थिति में रहते हैं और न बच्चे सीखने की। दोनों ही तरफ से यह एक समय गुजारने की गतिविधि बन गई थी, क्योंकि जब लॉकडाउन लगा तो इसके अलावा कोई और विकल्प ही नहीं था। फिर साल भर स्कूल खोले जाने लायक स्थितियां बन ही नहीं पाई और इस तरह पूरा सत्र ही ऑनलाइन क्लास की भेंट चढ़ गया। जब हम बच्चों अथवा शिक्षकों से बात करते थे तो दोनों का कहना यही होता था कि कक्षा में आमने-सामने की पढ़ाई का कोई विकल्प नहीं है। इसलिए जब मध्यप्रदेश में बड़ी कक्षाओं को मार्गदर्शन के लिए सीमित तौर पर खोला गया तो बच्चों का उत्साह देखते ही बनता था। इस साल फिर वही परिस्थितियां हैं। संभव नहीं दिखता कि इस सत्र में भी स्कूल पहले की तरह बच्चों के लिए खोले जा सकते हैं।

 इस बार संक्रमण की जद में बच्चे पिछली बार से अधिक ही हैं। तो ऐसे में अब क्या किया जाए? क्या ऑनलाइन शिक्षा को अब एक प्रमुख माध्यम की तरह स्वीकार कर लिया जाए अथवा और कोई रास्ते भी हैं? मुझे लगता है कि हर नई तकनीक के प्रति संदेह होता ही है, लेकिन आखि़रकार उसे समाज स्वीकार कर लेता है। ऑनलाइन शिक्षा को एकदम से ख़ारिज करने की बजाय उसके नियमन की दिशा में प्रयास किए जाने चाहिए और खासकर शिक्षकों का प्रशिक्षण ऑनलाइन कक्षाओं को बाल-मित्र बनाने के लिए किया जाना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि ये सब तात्कालिक उपाय हैं, जबकि शिक्षा राज्य और समाज से एक दीर्घकालीन नीति की अपेक्षा करती है। कोरोना की आपदा अभी खत्म होने वाली नहीं है, बल्कि अब शायद हमें उसके साथ जीने की आदत डालनी होगी। ऐसे में कोरोना की आपदा के बहाने शिक्षा से संबंधित एक बड़ा सबक हमारे सामने है। इससे हमारी शिक्षा व्यवस्था की एक बड़ी खामी निकलकर सामने आई है और वह है शिक्षा का एक ‘स्टेटस सिंबल’ या सामाजिक हैसियत में बदल जाना। इस कारण कुछ विशेष शालाओं में, विशेष अधिकार प्राप्त लोगों के बच्चों का पढ़ना होता है और बाकी बच्चों के लिए सुविधा-विहीन शासकीय शालाएं बचती हैं। एक तरफ बस्ती के पास एक सर्वसुविधा-युक्त निजी स्कूल मौजूद है, लेकिन बस्ती के बच्चे उसमें पढ़ने नहीं जा सकते तो दूसरी तरफ सरकारी अधिकारियों की कालोनी के पास के सरकारी स्कूल में वहां के बच्चे नहीं जाते। तमाम शिक्षाविद ‘पड़ोसी स्कूल’ की अवधारणा पर सहमत हैं और अभी तक की सभी शिक्षा नीतियों में भी सिद्धांत रूप में इस पर जोर दिया गया है, लेकिन इस पर रत्तीभर भी अमल नहीं किया गया है। कोरोना जैसी आपदा के समय यह बात बहुत बार कचोटती है कि यदि हर मोहल्ले के सभी बच्चे उस मोहल्ले के एक स्कूल में पढ़ रहे होते तो शायद उनका पूरा शैक्षणिक सत्र इस तरह से बेकार नहीं गया होता। संक्रमण जिस गति और तीव्रता से आगे बढ़ रहा है उसमें हिम्मत के साथ यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि अगले पूरे सत्र में भी शालाएं पहले की तरह खुल नहीं सकती हैं।

 इसलिए इस उपाय को अमल में लाने की जरूरत है। संक्रमण कम होने के बाद प्रत्येक सौ परिवारों को एक इकाई मानकर दो शिक्षक और कुछ वॉलेंटियरों (स्वयंसेवकों) के माध्यम से खुले मैदान में कक्षाएं संचालित की जानी चाहिए। बेशक अलग-अलग स्कूलों और बोर्डों में पढ़ रहे बच्चे वहां होंगे, लेकिन इस असाधारण परिस्थिति में इस तरह के असाधारण प्रयोग करने की जरूरत है। इन सभी बच्चों के लिए एक जैसा पाठ्यक्रम बनाने की जरूरत होगी, जिसके लिए गर्मियों के अवकाश में तैयारी की जा सकती है। आगे चलकर परीक्षा का एक जैसा फार्मेट बनाने की भी जरूरत होगी जो सभी बच्चों के लिए सहायक हो, चाहे वे निजी शालाओं में पढ़ रहे हों अथवा सरकारी स्कूलों में। हो सकता है कि मध्यमवर्गीय पालक इस सुझाव पर नाक-भौं सिकोड़ें। शिक्षा की असमानता को उन्होंने अपना जीवन-मूल्य बना लिया है, लेकिन ऑनलाइन शिक्षा के दिखावे से अधिक बेहतर है- कालोनी के पार्क में खेल-खेल में शिक्षा। इससे आपके बच्चे संभावित साइबर अपराधों से बचेंगे और देश एक समान शिक्षा की दिशा में एक कदम आगे चलेगा। यह न केवल कोरोना से निपटने की एक रणनीति होगी, बल्कि समावेशी और जिम्मेवार लोकतंत्र की दिशा में भी एक उठा हुआ कदम साबित होगा।

संपर्क :

सत्यम पांडेय

स्वतंत्र लेखक


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