जीवन जीने को गुरु जी का मार्ग

क्षणिक लाभ के लिए आदमी लोभ की वृत्ति से ग्रसित हो जाता है और उसके कारण उसका सांसारिक और गृहस्थ जीवन प्रभावित होता है। मनोविकारों पर नियंत्रण पाना ही सबसे बड़ी साधना है…

देशभर में दशगुरु परंपरा के नवम गुरु श्री तेगबहादुर जी की चार सौवीं जयंती मनाई जा रही है। उनकी जन्मसाखी में एक सुंदर घटना का उल्लेख है। ढाका का कोई धनाढ़्य  व्यापारी गुरुजी के पास आता है। भजन-कीर्तन में उसका मन नहीं लगता। चेहरे पर चिंता की रेखाएं स्पष्ट देखी जा सकती हैं। गुरुजी उसे पूछते हैं कि तुम्हें क्या दुख है। उसका उत्तर था कि उसके पास सभी प्रकार के भौतिक पदार्थ हैं और उससे  प्राप्त होने वाले सभी सुख भी हैं, लेकिन उसे चिंता इस बात की है कि यदि कल ये सभी धन धान्य नष्ट हो गए तो उसका भविष्य क्या होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि वह व्यापारी यह मानता है कि उसका सुख उसके पास जो  भौतिक साधन हैं, उनके कारण है। यदि यह भौतिक सम्पत्ति, भौतिक साधन नष्ट हो गए तो उसका सुख भी नष्ट हो जाएगा। इस सुख के नष्ट होने की आशंका से वह भयभीत है। गुरुजी उसे सुख की अवधारणा समझाते हैं कि सुख भौतिक पदार्थों में नहीं है, बल्कि सुख तो मन की अवस्था है। ‘यदि मन भौतिक पदार्थों में फंसा रहेगा तब सुख का आभास तो मिलने लगेगा, लेकिन वह वास्तविक सुख नहीं होगा।’ भारतीय परंपरा में पुरुषार्थ चतुष्टय की साधना ही सुख का मूल है और यही आदर्श जीवन माडल है। ये चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इसी क्रम में कहे गए हैं। अर्थ की साधना तो समझ में आती है। भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए उद्यम करना। आज की भाषा में इसे रोटी, कपड़ा और मकान कहा जाता है। जब तक पेट में रोटी न होगी, तब तक बाक़ी सब बातें बेमानी होंगी। काम की साधना दूसरा पुरुषार्थ है। काम  पारम्परिक अर्थ में केवल यौन सुख नहीं है। इसमें साहित्य, संगीत, ललित कलाएं, चित्र कला, नृत्य इत्यादि सभी कुछ आ जाता है।

 यह साधना मानव मन की अभिव्यक्ति का माध्यम है। अर्थ साधना शरीर की भूख को शांत करती है और काम साधना मन की भूख को शांत करती है। लेकिन ये दोनों साधनाएं धर्म के दायरे में रहकर ही करनी चाहिएं। सामाजिक विधि-विधान ही धर्म है। लेकिन ज़्यादातर लोग अर्थ और काम की साधना को ही जीवन का लक्ष्य मान कर उसी में साथ की तलाश करने लगते हैं। भौतिक पदार्थ तो नश्वर हैं ही, उनकी साधना करने वाला आदमी स्वयं ही नश्वर है। इसलिए भारतीय परम्परा में जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष को बताया गया है। इसका क्या कारण है? प्रत्येक व्यक्ति का जीवन में अंतिम ध्येय मोक्ष की प्राप्ति है या होना चाहिए। वही सच्चा सुख या अंतिम सुख है। इतिहास में मोक्ष प्राप्ति के दो रास्ते बताए गए हैं। एक रास्ता है संसार को त्यागने का रास्ता। हिमालय की कन्दराओं में जाकर मोक्ष के लिए व्यक्तिगत साधना करना। दूसरा रास्ता समाज में रहकर अर्थ-काम की साधना करना, तभी भौतिक समृद्ध आएगी। यह रास्ता गृहस्थ जीवन का रास्ता है। दरअसल व्यक्ति की सामाजिक साधना ही धर्म है। इसी में अर्थ और काम साधना का समावेश करना चाहिए। पूछा जाता है कि गुरुजी सुख प्राप्ति के लिए किस रास्ते की संस्तुति करते हैं? वे तो स्वयं ही गृहस्थ आश्रम के साधक हैं। इसलिए उनका संदेश, रास्ता और मार्गदर्शन तो स्पष्ट ही है।  इसलिए उनके संदेश में अर्थ और काम की साधना से भौतिक पदार्थों की प्राप्ति का नकार नहीं है। मनुष्य मात्र की भौतिक जरूरतें हैं और उनकी पूर्ति के लिए परिश्रम करना भी आवश्यक है, क्योंकि भौतिक पदार्थों का अभाव भी जीवन में दुख का कारण हो जाता है। नकार वहां टिके रहने का है और आगे की यात्रा बंद कर देने का है। जो वहां टिक जाता है उसे भौतिक पदार्थों में ही आनंद आने लगता है। ढाका के उस व्यापारी की यही स्थिति है। वह भौतिक समृद्धि के मोड़ पर ही टिक गया है। इसी में उसे सुख का आभास होने लगता है। अलबत्ता वह तो इसी से भयभीत है कि जब यह भौतिक समृद्धि सिमट जाएगी, तब उसके भविष्य का क्या होगा। असली सुख तो यात्रा का ही है। मोक्ष की ओर की जाने वाली यात्रा। लेकिन यह यात्रा नियम क़ायदे के अनुशासन में रहकर ही की जानी चाहिए।

 यह नियम क़ायदा ही वास्तव में धर्म है। यदि यात्री इस रास्ते पर चलता हुआ नियम क़ायदे यानी धर्म का पालन न करे तो सारी यात्रा अधर्म के रास्ते पर चल पड़ेगी। लेकिन अच्छी भली धर्म के रास्ते पर चल रही यात्रा का गृहस्थ अधर्म के रास्ते पर चलने वाली यात्रा का हिस्सा कैसे बन जाता है? इससे भी बड़ा प्रश्न है कि इससे बचा कैसे जा सकता है। इसका उपाय गुरु जी ने बताया है। वे बार-बार चेतावनी देते हैं कि अर्थ और काम की साधना में लोभ, मोह, अहंकार, क्रोध इत्यादि विकारों से बचे रहना चाहिए। ढाका के उसी धनाढ़्य व्यापारी को जो उपदेश श्री तेग बहादुर जी ने दिया, उसकी बहुत सुंदर और भावपूर्ण व्याख्या गुरवाणी के विद्वान श्री सतबीर सिंह जी ने की है। व्यापारी को संबोधित करते हुए गुरुजी कहते हैं, ‘तुम सुख की कामना तो करते हो, पर अनजाने में तुम संसार के भौतिक पदार्थों को ही सुख समझ बैठे हो। हर समय तुम्हें भय बना रहता है कि ये भौतिक पदार्थ तो सदा रहेंगे नहीं। इसलिए चिंता का कारण ये भौतिक पदार्थ नहीं बल्कि भय है। लेकिन यह भय भी निर्मूल है। ये भौतिक पदार्थ तो तुम्हारे चाकर होने चाहिए थे, लेकिन तुम तो स्वयं ही इनके चाकर बन बैठे। इसलिए तुम साधना से इन भौतिक पदार्थों का स्वामी बन। सभी भौतिक पदार्थ नाशवान हैं। क्या कभी नाशवान पदार्थ भी स्थायी सुख दे सकता है? जो पदार्थ अंत तक साथ नहीं निभाएगा, उसके मोह में ग्रस्त नहीं होना चाहिए।’ सतबीर सिंह, साखी गुरु तेग बहादुर जी की, तारन सिंह, सम्पादक की पुस्तक गुरु तेग बहादुर जीवन, संदेश ते शहादत में संकलित, पटियाला, पंजाबी विश्वविद्यालय, 1997, पृ0 61-62 लक्ष्य मोक्ष है तो हरि की ओर तो निरंतर टकटकी लगाए तो रखनी ही पड़ेगी। उसके दोनों ही रूप हैं। साकार भी और निराकार भी। वह दीन दयाल है और दुखों का नाश करने वाला है। सदा ध्यान रखना होगा कि इस संसार में निवास स्थायी नहीं है। मामला रात के सपने के समान है।

 सुबह होते ही सपना ग़ायब हो जाता है। वर्तमान युग में गुरुजी के इस सिद्धांत या निष्कर्ष को समझने और उस पर चलने की और भी ज्यादा जरूरत है क्योंकि आजकल विश्व भर में आर्थिक जगत में अर्थ और काम साधना को नियंत्रित करने वाले दो ही माडल हैं, मार्क्सवाद  और पूंजीवाद। ये दोनों माडल मानते हैं कि यदि मनुष्य की भौतिक आवश्यकताएं पूरी हो जाएं तो वह सुखी या प्रसन्न हो जाता है।  ये  दोनों माडल भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति और भौतिक साधनों की उपलब्धि को ही सुख की चरम उपलब्धि  मानते हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने पूंजीवाद और  मार्क्सवाद, इन दोनों के विकल्प के तौर पर एकात्म मानववाद की अवधारणा प्रस्तुत की थी। इस अवधारणा की जडें़ कहीं न कहीं दशगुरु परंपरा विशेषकर श्री तेगबहादुर जी की बाणी और संकल्प में मिल जाएंगी। श्री गुरु तेगबहादुर जी ने सार्थक मनुष्य की परिभाषा करते हुए कहा है कि जो सुख और दुख को समान करके मानता है, यहां उनका सुख-दुख से अभिप्राय मानव जीवन में होने वाले उतार-चढ़ाव से ही है। आदमी चढ़ाव से प्रसन्न होता है, लेकिन उतार से दुखी होता है। श्री तेगबहादुर जी का मानना है कि दोनों स्थितियों में सम बना रहे, उसी को सार्थक कहा जाता है। क्षणिक लाभ के लिए आदमी लोभ की वृत्ति से ग्रसित हो जाता है और उसके कारण उसका सांसारिक और गृहस्थ जीवन प्रभावित होता है। मनोविकारों से बचना और इन पर नियंत्रण पाना ही सबसे बड़ी साधना है। गुरुबाणी बार-बार इसी का संकेत करती है।

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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