किसान आंदोलन में नया पेंच

कैप्टन अमरेंद्र का विरोध भी समझ में आता है। आखिर किसान का जो पैसा आढ़ती के पास आता है, वह उसे अकेले थोड़ा पचा पाता होगा। हो सकता है उसमें अकेले पचा पाने की क्षमता भी हो, लेकिन आसपास की जुंडली भला उसे अकेले पचाने देगी। इसलिए कैप्टन साहिब का विरोध देख कर भी आश्चर्य नहीं होता। लेकिन जो किसान नेता आंदोलन चला रहे हैं वे भी इस नई व्यवस्था का विरोध कर रहे हैं। उनका भी यही कहना है कि किसी भी हालत में हम यह नहीं होने देंगे कि केन्द्र सरकार किसानों को उनकी फसल की क़ीमत हाथों हाथ उनके बैंक खाते में जमा करवा कर दे दे। उनका भी यही कहना है कि किसान की फसल की क़ीमत तो आढ़ती को ही मिलेगी। यह सचमुच चौंकाने वाला समीकरण है। आढ़ती और किसान नेता एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं। शेर-भेड़ एक ही घाट पर।  बुद्धिजीवी इसे सामाजिक समरसता कहेगा, लेकिन खेत में खपने वाला किसान जानता है कि यह उसके खिलाफ रचा गया बहुत बड़ा षड्यंत्र है…

पंजाब के किसान आंदोलन का मुख्य आधार यह था कि किसानों को अपनी फसल सरकार द्वारा स्थापित और निर्धारित मंडियों में ही बेचनी होगी। इतना ही नहीं, उसे अपनी फसल सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य पर ही बेचनी होगी। कुछ महीने पहले सरकार ने इसमें एक संशोधन कर दिया। मोटे तौर पर उसने कहा कि किसान अपनी फसल कहीं भी और किसी को भी बेच सकता है। अलबत्ता यदि उसको लगता है कि बाहर बाज़ार में उसे अपनी फसल की कीमत कम मिल रही है तो वह सरकारी मंडी में आकर सरकारी कीमत पर तो जब चाहे अपनी फसल बेच सकता है। सरकारी मंडी में फसल बेचने की एक निश्चित पद्धति है। फसल सरकार ख़रीदती है लेकिन वह सरकारी मंडी में पंजीकृत आढ़ती के माध्यम से ही ख़रीदती है। इसलिए वह क़ीमत की अदायगी भी आढ़ती को ही करती है। आढ़ती उस क़ीमत में से अपना कमीशन काट कर किसान को अदायगी करता है। लेकिन नए संशोधनों से आढ़ती चौकन्ना हो गया। यदि किसान को मंडी से बाहर  अपनी फसल की क़ीमत ज़्यादा मिलती है तो वह सरकारी मंडी में भला क्या करने आएगा? सरकारी मंडी में नहीं आएगा तो आढ़ती को अपना कमीशन कहां से मिलेगा? उसने किसानों को डराया। मान लो चार दिन तुम्हें फसल के ज्यादा दाम मिल भी गए, लेकिन बाज़ार में मंदी और तेज़ी आती रहती है, जब मंदी आएगी  तो फिर कहां जाओगे?

किसानों ने कहा फिर सरकारी मंडी में आकर बेच देंगे। वहां तो भाव निश्चित ही होगा। आढ़ती ने डराया। लेकिन तब तक ये सरकारी मंडियां तो उजड़ जाएंगी। लेकिन आढ़ती जानता था कि वह और सब कुछ कर सकता है लेकिन अपनी आढ़त की गद्दी छोड़ कर इन नए प्रावधानों के खिलाफ आंदोलन नहीं कर सकता। लेकिन वह आंदोलन की सहायता तो कर ही सकता है। इसलिए आंदोलन में आगे कुछ किसान संगठन हुए। यह सभी जानते हैं कि हर किसान संगठन के पीछे कोई न कोई राजनीतिक दल है या फिर नया दल बनाने की इच्छा रखने वाले कुछ नेता। दरअसल केजरीवाल के ‘आंदोलन में से राजनीतिक दल’ वाले सफल प्रयोग से अनेक अतृप्त आत्माओं की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं जागृत हो गई हैं। आढ़तियों ने आंदोलनकारियों को धन-धान्य से मालामाल कर दिया। लेकिन अब इस आंदोलन में   एक नया पेंच आ गया है। गेहूं की फसल तैयार हो गई है। अभी की व्यवस्था में वह सरकारी मंडियों में ही आएगी और ख़रीददारी भी केन्द्रीय सरकार ही करती है। केन्द्र सरकार ने कहा है कि वह जिस किसान की फसल ख़रीदेगी, उसके बैंक खाते में क़ीमत के पैसे डाल देगी।

 अलबत्ता सरकार ने इतना जरूर कहा कि अपनी फसल लेकर मंडी में आने वाला किसान यह भी बता दे कि उसके कितने खेत हैं और उसने कितने खेतों में गेहूं बो रखी थी। इससे अंदाज़न पता चल जाएगा कि उस किसान की अपनी कितनी फसल है। इसकी जरूरत शायद इसलिए पड़ी क्योंकि जांच से पता चला था कि कुछ गिरोह अनेक वर्षों से  बिहार इत्यादि से सस्ता गेहूं लाकर पंजाब की सरकारी मंडियों में महंगे दाम पर बेच कर लक्ष्मी के दरबार में लोटपोट हो रहे थे। लेकिन किसानों ने कहा इतनी जल्दी यह सारा काम करना संभव नहीं है। सरकार ने फिलहाल यह शर्त भी हटा दी। बस अब इतना ही बचा कि किसान अपना गेहूं बेचे और सरकार पैसे उसके बैंक खाते में डाल देगी।  बीच में किसी दलाल की जरूरत नहीं है। लेकिन इस एक ही नुक्ते से आंदोलन से जुड़े सभी पक्ष अपने असली रूप में नंगे होने लगे हैं। सबसे पहले आढ़तियों ने इस व्यवस्था का विरोध किया। उन्होंने कहा पैसे किसी भी हालत में सीधे किसान के पास नहीं जाने चाहिएं। उसे फसल की क़ीमत आढ़तियों के माध्यम से ही दी जाए। किसी ने पूछा, संतुष्ट कौन? उसने कहा, मैं खाहमखाह। यह खाहमखाह ही किसान की पूंजी को नियंत्रित करने वाला बन बैठा है। आढ़तियों का विरोध फिर भी समझ में आता है। जिनके घर से  मुफ़्त की लक्ष्मी विदाई लेगी, वह चिल्लाएगा ही। लेकिन पंजाब की कांग्रेसी सरकार तो नई व्यवस्था का आढ़तियों से भी ज्यादा विरोध कर रही है। कैप्टन अमरेंद्र सिंह भी कह रहे हैं कि किसान के पास सीधा पैसा किसी भी हालत में जाने न पाए। सबसे पहले उसे आढ़ती अपने हाथ लगा कर पवित्र करेगा, उसके बाद वह अपना हिस्सा अलग से निकाल लेगा और बचा-खुचा किसान को देगा। उसके लिए भी न जाने कितने चक्कर लगाने पड़ेंगे किसान को।

कैप्टन अमरेंद्र का विरोध भी समझ में आता है। आखिर किसान का जो पैसा आढ़ती के पास आता है, वह उसे अकेले थोड़ा पचा पाता होगा। हो सकता है उसमें अकेले पचा पाने की क्षमता भी हो, लेकिन आसपास की जुंडली भला उसे अकेले पचाने देगी। इसलिए कैप्टन साहिब का विरोध देख कर भी आश्चर्य नहीं होता। लेकिन जो किसान नेता आंदोलन चला रहे हैं वे भी इस नई व्यवस्था का विरोध कर रहे हैं। उनका भी यही कहना है कि किसी भी हालत में हम यह नहीं होने देंगे कि केन्द्र सरकार किसानों को उनकी फसल की क़ीमत हाथों हाथ उनके बैंक खाते में जमा करवा कर दे दे। उनका भी यही कहना है कि किसान की फसल की क़ीमत तो आढ़ती को ही मिलेगी। यह सचमुच चौंकाने वाला समीकरण है। आढ़ती और किसान नेता एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं। शेर-भेड़ एक ही घाट पर।  बुद्धिजीवी इसे सामाजिक समरसता कहेगा, लेकिन खेत में खपने वाला किसान जानता है कि यह उसके खिलाफ रचा गया बहुत बड़ा षड्यंत्र है। वह धीरे-धीरे समझ रहा है कि उसके साथ एक ही घाट पर पानी पीने वाले आंदोलन के शेर किसी भी तरह उसकी ऊन उतारने की फिराक़ में लगे हैं। फिर चाहे वे कैप्टन हों, चाहे उगराहां हो या आढ़ती हों।

ईमेलः kuldeepagnihotri@gmail.com


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