अर्द्धसैनिक बल और चुनाव

हिमाचल में बीते दिनों चार नगर निगमों के चुनावों के जो परिणाम आए हैं, उनसे 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव के बारे में लोगों के मन का अंदाजा लगाया जा सकता है। चार नगर निगमों में जहां दो नगर निगम एक पार्टी ने जीते, जबकि मुख्यमंत्री के अपने गृह जिले में ही सत्ताधारी पार्टी कामयाब हो सकी। सबसे रोचक परिणाम धर्मशाला नगर निगम के रहे जिसमें महापौर बनाने के लिए निर्दलीयों की भूमिका अहम रहेगी। शायद कुछ ही समय में होने वाले फतेहपुर और मंडी के उपचुनाव से तस्वीर और भी ज्यादा साफ  होती नजर आएगी। चुनावों के दौरान चाहे वह नगर निगम के हों, विधानसभा के या लोकसभा के, उनका आयोजन करवाने की जिम्मेदारी चाहे चुनाव आयोग की रहती है, पर इसमें कोई दो राय नहीं कि चुनावों को शांतिपूर्ण ढंग से सफल बनाने की सबसे अहम भूमिका अर्द्ध सैनिक बलों की रहती है। सेना का एक ऐसा अंग जिसे गृह मंत्रालय जरूरत के अनुसार देश की आंतरिक सुरक्षा के लिहाज से इस्तेमाल करता है। अगर अर्द्ध सैनिक बलों की बात की जाए तो यह एक ऐसा सैन्य हिस्सा है, जो शांति के समय में सीमाओं की रक्षा के साथ-साथ आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार होता है। दो दशक पहले आई वाजपेयी सरकार, जिसमें आडवाणी जी गृह मंत्री थे, ने अर्द्ध सैनिक बलों की पेंशन बंद करने पर एक अहम फैसला लिया था। जिस तरह भारतीय सेना के हर मुद्दे पर फैसला रक्षा मंत्रालय लेता है, उसी तरह अर्ध सैनिक बल के हर मुद्दे पर फैसला गृह मंत्रालय लेता है।

आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार गृह मंत्रालय जिस तरह से सेना के इस अंग की नियुक्तियों में निर्णय लेता है, उस पर विचार करने की जरूरत है। पिछले दिनों एक सीनियर रैंक के अधिकारी का वर्तमान गृह मंत्री के साथ डाइनिंग टेबल पर फोटो सोशल मीडिया में काफी चर्चा का विषय बन रहा है। प्रशासनिक अधिकारियों का राजनेताओं के साथ उठना-बैठना तथा उनकी कार का दरवाजा खोलना या चाय की प्याली सर्व करना अक्सर देखा जाता है, पर एक अर्ध सैनिक बल के अधिकारी का यह सब करना नए रिवाज का आगमन है। इसके अलावा एक और चिंता का विषय जिस पर मंथन और तार्किक बहस होना बड़ा जरूरी है, वह यह कि चुनाव के दौरान एक तरफ  तो अर्द्ध सैनिक बल चुनाव को सफल करवाने के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं, पर चुनावों के समय में ही अर्धसैनिक बलों की  शहादत चिंता का विषय है। पिछले लोकसभा  चुनावों से पहले जब ज्यादातर बटालियन चुनावी सुरक्षा की तैयारी में व्यस्त थीं, तब पुलवामा होना तथा अब जब यही सेनाएं पांच राज्यों की चुनावी सुरक्षा में दिन-रात पहरेदारी कर रही हैं, तब नक्सली मुठभेड़ में बीसीयों सैनिकों की शहादत चिंता का विषय है। अभिनंदन और राकेश्वर के मुद्दे पर सरकार जरूर अपनी पीठ थपथपा रही है, पर इन सब घटनाओं पर गंभीरता से सोचना होगा तथा ऐसी घटनाएं भविष्य में न हों, उसके लिए सही रणनीति बनाना अति आवश्यक है। सवाल यह है कि आखिर सैनिक कब तक शहादत देते रहेंगे?


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