भ्रष्टाचार रोकने को जनसहयोग लो

समस्या यह है कि यदि सरकार पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टी और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे संगठनों को मान्यता देती है तो इन संगठनों द्वारा भ्रष्ट नौकरशाही के साथ-साथ भ्रष्ट सरकार पर भी प्रश्न उठाए जाते हैं, जो कि सरकार को मान्य नहीं होता है। प्रतीत होता है कि इसलिए सरकार का प्रयास है कि सिविल सोसायटी को समाप्त कर दे जिससे उसके ऊपर स्वयं प्रश्न न उठे। परिणाम यह है कि सरकार के ऊपर प्रश्न न उठने के साथ-साथ भ्रष्ट अधिकारियों के ऊपर भी प्रश्न नहीं उठ रहा है और ऊपर से ईमानदार सरकार के सारे प्रयास निष्फल हैं। इसलिए प्रेस और सिविल सोसायटी को सबल बनाना होगा…

जीएसटी लागू करते समय सरकार द्वारा यह आश्वासन दिया गया था कि इससे टैक्स की चोरी कम हो जाएगी। इसके बाद ई-वे बिल लागू करते समय पुनः विश्वास दिलाया गया था कि सड़क पर चलने वाले वाहनों की जांच हो सकेगी और नंबर दो यानी बिना टैक्स चुकाए माल सड़क पर नहीं आ सकेगा। लेकिन आलम यह है कि टैक्स की चोरी बढ़ती ही जा रही है। हाल में मुझे एक ब्रैंडेड पंखा खरीदना था जो किसी बड़ी कंपनी द्वारा बनाया गया था। वह भी मुझे आसानी से बिना जीएसटी अदा किए उपलब्ध हो गया। या तो यह बड़ी कंपनी नंबर दो में माल सप्लाई कर रही है अथवा उसके बिल को घुमाया जा रहा है अथवा जिस कंपनी को या तो यह कंपनी नंबर दो में माल सप्लाई कर रही है अथवा उसके बिल को घुमाया जा रहा है। बिल उस कंपनी के नाम काटा जा रहा है जिसे जीएसटी का रिफंड मिल रहा हो और माल नंबर दो में बिना जीएसटी के बाजार में बेचा जा रहा है। अलावा वर्तमान में एक ही ई-वे बिल पर कई बार माल की ढुलाई की जा रही है। जैसे दिल्ली से गाजियाबाद के बीच का ई-वे बिल 24 घंटे तक मान्य होता है जिसमें उसी ई-वे बिल पर तीन बार माल का आवागमन हो जाता है। जीएसटी की चोरी को हवाई चप्पल का दाम 200 रुपया होता है, लेकिन इसका बिल 50 रुपया बनाया जाता है। इस प्रकार तमाम उपाय हैं जिनसे जीएसटी व्यवस्था को चकमा दिया जा रहा है।

नंबर दो की समानांतर अर्थव्यवस्था अभी पूरी तरह चालू है, जैसे जीएसटी के पहले चालू थी। अब सरकार ने योजना बनाई है कि जितनी गाडि़यां सड़क पर बिना ई-वे बिल के चलेंगी, उनकी भी डिटेल सरकार को इंटरनेट से उपलब्ध हो जाएगी और टोल प्लाजा इत्यादि पर इन्हें रोककर इनकी जांच की जा सकेगी। मेरा स्पष्ट मानना है कि तकनीक की एक सीमा है और यह तभी कारगर होगी जब मूल जीएसटी प्रशासन की नीयत ईमानदारी की हो अन्यथा भ्रष्ट अधिकारी और उद्यमी का गठजोड़ सभी तकनीक के बावजूद किसी न किसी प्रकार अपना स्वार्थ हासिल कर ही लेगा। सरकार ने इस परिस्थति को भांपते हुए किन्हीं भ्रष्ट अधिकारियों को सेवामुक्त किया है। लेकिन यह काम ऊपरी प्रशासन की सजगता से हुआ है। जीएसटी के शीर्ष अधिकारियों को सूचना मिली कि अमुक अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त है। उन्होंने उस पर एक्शन लिया और उस अधिकारी को सेवामुक्त कर दिया। इसमें संकट यह है कि यदि किसी ईमानदार अधिकारी की शिकायत भ्रष्ट अधिकारी के रूप में कर दी जाए तो ऊपर के अधिकारी अनायास ही ईमानदार अधिकारी को भी सेवामुक्त कर सकते हैं। देखा गया है कि सरकारी दफ्तरों में यदि कोई ईमानदार अधिकारी होता है तो उसके सहकर्मी घूस नहीं ले पाते हैं और अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए ईमानदार अधिकारी फंसाने का प्रयास करते हैं अथवा उसकी रपट उच्च अधिकारी से कर देते हैं।

 फलस्वरूप ईमानदार अधिकारी स्वयं संकट में आ जाते हैं। सरकार में सफलतापूर्वक काम करने का उपाय यह है कि आप स्वयं अन्य भ्रष्ट अधिकारियों की तरह भ्रष्ट हो जाएं, तभी आपकी नौकरी सुरक्षित रहती है। विचार करना है कि अमरीका में भ्रष्टाचार तुलना में कम क्यों है? यूनिवर्सिटी ऑफ मैरीलैंड के प्रोफेसर जॉन जोसफ  वालिस के अनुसार मूल कारण यह है कि उनके संविधान निर्माताओं को प्रमुख चिंता यह थी कि सरकार जनता पर भारी न हो जाए। वे चाहते थे कि प्रत्येक नागरिक को प्रतिनिधित्व और समानता का अधिकार उपलब्ध हो। इसलिए संपूर्ण तंत्र में आम आदमी की भूमिका को प्रमुखता दी गई है। अमरीकी प्रजातंत्र में विचार यह है कि सरकार पर जनता भारी हो, न कि जनता पर सरकार। लेकिन जैसा ऊपर बताया गया है सरकार जीएसटी को ऊपर से ठीक करना चाहती है। हम ऊपर के अधिकारियों की जानकारी से प्रशासन को चलाना चाहते हैं, न कि जनता की भागीदारी से। इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट अहमदाबाद के प्रोफेसर एरोल डिसूजा का कहना है कि भ्रष्टाचार के नियंत्रण में प्रेस और सिविल सोसायटी की अहम भूमिका है। जैसे देखा जाता है कि पुलिस की ज्यादती से जनता को राहत दिलाने के पीछे पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज जैसे संगठनों अथवा सरकारों की ज्यादती से जनता को राहत दिलाने के पीछे एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे संगठनों की प्रमुख भूमिका है। यदि ये संगठन प्रभावी होते हैं तो नीचे से भ्रष्ट अधिकारियों पर दबाव बनता है। नीचे से सिविल सोसायटी और ऊपर से ईमानदार प्रशासन के सहयोग से बीच की नौकरशाही को कुछ सीमा तक रोका जा सकता है, जैसे चिमटे से गरम रोटी को पकड़ा जाता है। इस दिशा में सरकार नीचे से जनता को ताकत नहीं दे रही है। केवल ऊपर से अधिकारियों को ठीक करना चाहती है। जैसे पांचवें वेतन आयोग में संस्तुति दी गई थी कि क्लास-ए अधिकारियों की हर पांच वर्ष पर ऑडिट कराई जाए। इस संस्तुति को सरकार ने दरकिनार कर दिया है। बाहरी ऑडिट का अर्थ हुआ कि सरकार के भ्रष्ट ढांचे से बाहर के लोग किसी अधिकारी की कार्यकुशलता की जांच करे।

इस प्रकार की जांच स्वतंत्र मूल्यांकन को बनाती है। ऐसी स्वतंत्र जांच पर ऊपर के अधिकारी एक्शन लें तो भ्रष्ट अधिकारियों पर शिकंजा कसा जा सकता है। मूल बात यह है कि ऊपर से ईमानदार सरकार और नीचे से सिविल सोसायटी अथवा जनता एवं प्रेस के सहयोग मात्र से बीच की भ्रष्ट नौकरशाही पर नियंत्रण किया जा सकता है। हाल ही में उत्तरप्रदेश के एक शीर्ष मंत्री ने मुझे अवगत कराया कि सरकार द्वारा तमाम भ्रष्ट पुलिस अधिकारियों को बर्खास्त किया जा चुका है, लेकिन पुलिस मानती ही नहीं और सरकार विवश है। समस्या यह है कि यदि सरकार पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टी और एमनेस्टी इंटरनेशनल जैसे संगठनों को मान्यता देती है तो इन संगठनों द्वारा भ्रष्ट नौकरशाही के साथ-साथ भ्रष्ट सरकार पर भी प्रश्न उठाए जाते हैं, जो कि सरकार को मान्य नहीं होता है। प्रतीत होता है कि इसलिए सरकार का प्रयास है कि सिविल सोसायटी को समाप्त कर दे जिससे उसके ऊपर स्वयं प्रश्न न उठे। परिणाम यह है कि सरकार के ऊपर प्रश्न न उठने के साथ-साथ भ्रष्ट अधिकारियों के ऊपर भी प्रश्न नहीं उठ रहा है और ऊपर से ईमानदार सरकार के सारे प्रयास निष्फल हैं। इसलिए सरकार को ऊपर मात्र से भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के स्थान पर प्रेस और सिविल सोसायटी को सबल बनाना होगा। तभी भ्रष्टाचार पर नियंत्रण पाया जा सकेगा। केवल तकनीक के माध्यम से जीएसटी अथवा किसी भी अन्य व्यवस्था में भ्रष्टाचार का नियंत्रण संभव नहीं है।

   संपर्क :       

डा. भरत झुनझुनवाला

आर्थिक विश्लेषक

ई-मेलः bharatjj@gmail.com


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