यह ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ ही है

By: Apr 24th, 2021 12:05 am

सर्वोच्च न्यायालय की बिल्कुल सटीक टिप्पणी थी कि देश में ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ जैसे हालात हैं। ‘आपातकाल’ शब्द सुनते और पढ़ते ही एक सहमी और डरावनी-सी याद ताज़ा होने लगती है। आपातकाल 1975 में थोपा गया था। वह लोकतांत्रिक नहीं, बल्कि संवैधानिक शक्तियों का ‘तानाशाही’ इस्तेमाल था। उस काले अध्याय को देश के तमाम नागरिक भूलना चाहते होंगे! अब सर्वोच्च अदालत ने जिस ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ की चिंता जताई है, वह बुनियादी तौर पर कोरोना संक्रमण के क्रूर और बेतहाशा प्रहारों से जुड़ी है, लेकिन कार्यकारी और चिकित्सीय व्यवस्था पर भी सवाल उठाती है। भारत के संविधान में ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ से जुड़े अनुच्छेदों का उल्लेख है। अनुच्छेद 352 में युद्ध या बाहरी आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह सरीखी स्थितियों का उल्लेख किया गया है। दरअसल इसे ही ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ के रूप में जाना जाता है। इसके अलावा, अनुच्छेद 360 में व्याख्या की गई है कि भारत की वित्तीय अस्थिरता या ऋण के लिए खतरा होने के कारण ‘वित्तीय आपातकाल’ की घोषणा की जा सकती है। सभी तरह के आपातकालों का फैसला केंद्रीय कैबिनेट लेती है और राष्ट्रपति उसे अंतिम स्वीकृति देते हैं।

1980 में सर्वोच्च अदालत ने ही फैसला सुनाया था कि किसी भी तरह के आपातकाल की घोषणा को अदालत में चुनौती दी सकती है। दरअसल संविधान के अनुच्छेद 352 से 360 तक में आपातकाल से जुड़े उपबंधों की व्याख्या की गई है। मकसद यह है कि देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता, लोकतांत्रिक एवं राजनीतिक व्यवस्था और संविधान की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके, लिहाजा आपातकाल भी लगाया जा सकता है। फिलहाल सर्वोच्च अदालत ने जिन संदर्भों में ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ की टिप्पणी की है, वह देश की चौतरफा सुरक्षा के मद्देनजर इतनी गंभीर नहीं है, जितनी नाराज़गी व्यवस्था, स्वास्थ्य ढांचे और केंद्र सरकार की उदासीनता को लेकर जताई गई है। यकीनन यह कोरोना की भयावहता और मारक संक्रामकता का दौर है, लिहाजा सुप्रीम कोर्ट को संज्ञान लेना पड़ा है कि ऑक्सीजन की कमी, दवाओं की किल्लत, टीकाकरण की प्रक्रिया और तालाबंदी के अधिकार पर केंद्र सरकार की कोई राष्ट्रीय योजना या नीति है अथवा नहीं? सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर सुनवाई की है। उसके फैसले की मीमांसा बाद में करेंगे। फिलहाल ‘आपातकाल’ शब्द की चिंता और प्रासंगिकता का विश्लेषण अनिवार्य है। राजधानी के एक नामी अस्पताल में कोरोना के 25 मरीज मर गए, क्योंकि उन्हें ऑक्सीजन नहीं मिल पाई। महाराष्ट्र के विरार में एक कोविड अस्पताल में आग लग गई और 11 कोविड मरीज मर गए। देश की राजधानी दिल्ली में ही सुनते रहे हैं कि कहीं 45 मिनट की ऑक्सीजन बची है, तो कहीं 2-4 घंटों या कुछ ज्यादा देर के लिए प्राण-वायु शेष है।

कोरोना के असंख्य मरीज इन अस्पतालों में ऑक्सीजन के सहारे जिंदा हैं अथवा वेंटिलेटर पर सांस-दर-सांस ले रहे हैं। जीवन और मौत के बीच इतनी अनिश्चितता है कि आदमी सोचने पर मजबूर होता जा रहा है कि संक्रमण होने पर भी अस्पताल जाए अथवा नहीं। यह स्थिति ‘आपातकाल’ की नहीं है, तो क्या है? भारत सरकार के महंगे वकील सर्वोच्च अदालत में भी सरकार का पक्ष मजबूती से रख लेंगे और एक योजना का खाका भी पेश कर देंगे। लेकिन सरकार को पिछले लॉकडाउन के एक सप्ताह बाद ही चेतावनी दे दी गई थी कि देश में ऑक्सीजन की आपूर्ति की कमी हो सकती है। वह चेतावनी किसी विपक्ष की नहीं थी, बल्कि भारत सरकार ने जो 11 अधिकारप्राप्त समूह गठित कर रखे हैं, उनमें एक समूह ने ही बैठक के बाद चेताया था। बीती एक अप्रैल, 2020 को संपन्न बैठक की अध्यक्षता नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने की थी और करीब 7-8 मंत्रालयों के बड़े अफसरों ने भी भाग लिया था। उनकी चेतावनी का कोई तो सशक्त आधार होगा। आज फिर प्रधानमंत्री मोदी लगातार बैठकें कर रहे हैं। अफसर भी हैं और कोरोना से सबसे ज्यादा ग्रस्त 10 राज्यों के मुख्यमंत्रियों से भी संवाद किया गया है। ऑक्सीजन की कंपनियों के प्रमुखों से भी प्रधानमंत्री ने बातचीत की है। सवाल है कि एकदम हाथ-पांव क्यों फूलने लगे हैं? करीब एक साल पहले जिन संसदीय समितियों और समूहों ने सरकार को चेताया था, उस पर क्या अमल किए गए? अमल क्यों नहीं किए गए? यदि अमल किए गए, तो सरकार पहले से ही तैयार क्यों नहीं रही? त्रासदियां क्यों हो रही हैं? आशंकाएं और खतरे क्यों बरकरार हैं? आज विमान आकाश में उड़ते दिख रहे हैं। बड़ी कंपनियों के मालिक ऑक्सीजन की पेशकश कर रहे हैं। ‘दान’ की यह स्थिति क्यों है? सवाल व्यवस्था को लेकर उठ रहे हैं, लिहाजा आपातकाल की बात करनी पड़ी है।


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