हिमाचली लोकसाहित्य में लोकरमायण परंपरा

By: May 16th, 2021 12:05 am

डा. गौतम शर्मा ‘व्यथित’

मो.-9418130860

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस शृंखला का विषय है। यह शृंखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 31वीं किस्त…

रामचरित मानस के महानायक मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम भूखंडों की सीमाओं को तोड़कर विश्व जनमानस में व्याप्त हैं। प्रायः सर्वत्र श्री रामचरित को पढ़ा, गाया-सुनाया जाता है। नाट्य-मंचों के माध्यम से भी भारत में परंपरित ‘रामलीला’ को स्थानक भाषा, संगीत व गेयता के माध्यम से अभिनीत किया जाता है। विश्व के हर क्षेत्र के रचनाकारों ने ‘मति अनुरूप राम गुन गावऊं’ अर्थात अपनी-अपनी भावना और मति के अनुसार रामचरित गान किया है। श्री रामचरित कथा तो ‘नाना निगम पुराणागमारिसम्मत’ है। विद्वानों के अनुसार राम की प्राथमिक उपस्थापना महर्षि वाल्मीकि ने त्रेता युग में ही कर दी थी। पौराणिक मान्यता के अनुसार राक्षसों की अधार्मिक प्रवृत्तियों को नष्ट करने के लिए ही भगवान विष्णु ने राम के रूप में अवतार लिया और सामाजिक मर्यादा प्रतिष्ठित की। एक मतानुसार यह ऐतिहासिक घटना समाज के मार्गदर्शन के लिए थी। श्री राम के अवतरण की आवश्यकता की पृष्ठभूमि में यही सद्चिंतन प्रमुख रहा। साहित्य सृजन के उपजीव्य रूप में लोक मानस की भूमिका को नकार नहीं सकते। श्री रामकथा अपने मूल स्वरूप में सनातन, सार्वभौम है जो महर्षि वाल्मीकि रामायण और संत तुलसी दास के काव्य दोनों रचनाओं में घटनाक्रम में अंतर होना स्वाभाविक है। इन रचनाओं के आधार होने में भारतीय प्रादेशिक भाषाओं में श्रुत परंपरा में प्रचलित-परंपरित रामायण या रामकथा प्रसंगों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। इस पक्ष में अनेक विद्वानों ने शोध किए हैं। दो दशक पूर्व रामानंद सागर द्वारा प्रस्तुत रामायण सीरियल में हमने देखा कि उन्होंने कितने ही रामायण गिनाए हैं जिनके कथानकों का सम्यक अध्ययन कर इसकी सृजना हुई है। महर्षि वाल्मीकि का रामायण संस्कृत में आदि महाकाव्य है और तुलसी कृत रामचरित मानस अवधी/हिंदी भाषा में है। प्रथम की शैली श्लोक है, दूसरे की दोहा, चौपाई आदि छंद। एक रचना विद्वानों तक सीमित रही, दूसरी कथावाचकों, रामलीला नृत्य-नाट्यों की मंडलियों के माध्यम से घुम्मकड़-स्वरूप पाकर नगरों, गांवों-कस्बों में विचरण करती, लोकरंजन के साथ धार्मिक महत्त्व पाती, सर्वव्यापक हो गई।

ऐसे प्रभाव हिमाचल के हर भूभाग में बसे लोकमानस में भी घर कर गए जिसके फलस्वरूप यहां की स्थानक भाषा-बोलियों में लोकरामायण की रचना हुई जो श्रुत परंपरा में प्रचलित रही। हिमाचली में रामकथा या लोकरामायण का गायन ऐहंचली, बरलाज, ठामरू आदि शैलियों में परंपरित है। रमैणी, रमीणी आदि इसकी स्थानक संज्ञाएं हैं। हिमाचली भाषा रूप भारोपीय और तिब्बती परिवार प्रभावित है। अतः हिमाचल के समतलीय और पर्वतीय या जनजातीय भूभागों में प्रचलित लोकरामायण के कथा-बिंदुओं या घटना-वर्णन में स्थानीय लोकमानस की विद्यमानता के कारण बड़े रोचक और भिन्न कथा-प्रसंग भी मिलते हैं। प्रदेश में व्याप्त हिमाचली लोकरामायण की श्रुत परंपरा का संकलन, संपादन और प्रकाशन हो, इस दिशा में हि. प्र. भाषा, कला-संस्कृति अकादमी के प्रथम पूर्व सचिव श्री हरिचंद पराशर द्वारा ‘पहाड़ी लोकरामायण’ पुस्तक का प्रकाशन हुआ। तत्पश्चात डा. विद्याचंद ठाकुर के कार्यकाल में ‘पहाड़ी रामायण के लोक प्रसंग’ पुस्तक प्रकाशित हुई जिनके माध्यम से इस प्रदेश के समतलीय क्षेत्रों में परंपरित लोकरामायण के कथा प्रसंग और उनका शैलीगत स्वरूप सामने आया। दोनों प्रयास इस वाचक परंपरा के संरक्षण और अध्ययन में सहायक बने। वर्ष 2020 में सम्प्रतिकालीन अकादमी सचिव डा. कर्म सिंह के संपादन में ‘हिमाचल प्रदेश ः लोकरामायण’ का पुनर्प्रकाशन हुआ जो इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि उसमें जनजातीय क्षेत्रों यथा लाहुल-स्पीति और किन्नौर में (स्थानीय भाषा में) परंपरित रामकथा प्रसंगों को हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशित किया गया है। इस पुस्तक में 391 पृष्ठ हैं जिसमें 16 अध्यायों में क्रमशः चंबा, कांगड़ा, कुल्लू, हमीरपुर, ऊना, बिलासपुर, मंडी, सोलन, शिमला, लाहुल, किन्नौर, सिरमौर के अतिरिक्त हिमाचल लोक संस्कृति में रामायण, ठामरू लोकगायन परंपरा और राजा रघु के प्रसंग भी संकलित हैं। इसमें चंबा का पांगी (पंगवाली में लोकरामायण) पृथक रूप से नहीं है, संभवतया गद्दयाली की ‘रमीणी’ ही समस्त जनपद में परंपरित है। हि. प्र. अकादमी के नवप्रकाशित ‘हिमाचल प्रदेश लोकरामायण’ में, जो उल्लेखनीय है, वह ठामरू लोकरामायण में रामकथा के प्रसंग हैं। श्री दीप राम गर्ग द्वारा संग्रहीत, संपादित ठामरू लोकरामायण इस प्रकाशन में पृष्ठ 303 से 387 पृष्ठ तक है।

ठामरू-1 में यह गायन ‘धारा नगरी आए दानो सामणे/कल पड़े देवते रे घरे/उजुए बाईया लछमणा, तां हेरू पाणी खे जाणा’ से शुरू होकर पृष्ठ 382 पर ‘एक तेरी नाड़ी अटला-अटला, तीरथा बेरता के बोलो/दुजी नाड़ी तेरी नहल-नहला बोलो ब्याहणी रामा री सीता/समाप्त हुई है। अंत में कुछ स्थानक चिंतन प्रसंग भी दिए हैं। इस संकलन में पंगवाली-पांगी भूभाग अछूता रहा है। इस पुस्तक के माध्यम से हमें हिमाचली लोकमानस में परंपरित बोली-भाषा रूपों के साथ उनके स्थानक मनोविज्ञान, पौराणिक कथाओं के प्रति संरचना अवधारणा, श्रुत परंपरा में गृहीत कथा प्रसंगों को निजी और श्रोता मानस के अनुरूप कथा-गाथाओं की बनावट और उसे स्मृति में संभाले रखने की क्षमता का बोध भी होता है। जहां चंबयाली, भरमौरी, कांगड़ी में रामकथा गायन ऐहंचली शैली में परंपरित है, वहां सिरमौर-सोलन आदि क्षेत्रों में बरलाज-ठामरू गायन शैलियों में परंपरित है। इसके गायन-प्रस्तुतिकरण का आनुष्ठानिक विधान है जिसे हिमाचली लोक श्रद्धा से पालन करता है। इसी प्रसंग में कहना चाहूंगा कि हिमाचली लोकसाहित्य में पंडवीणी, शवीणी अर्थात महाभारत और शिव पुराण संबंधी गायन -कथाएं भी लोक व्याप्त हैं। ये भी श्रुत परंपरा में हैं। अतः इनके संकलन, संपादन, प्रकाशन, दस्तावेजीकरण की आवश्यकता है। आशा है हि. प्र. भाषा, कला-संस्कृति अकादमी इस दिशा में भी सक्रिय होगी। समाहार रूप में यह कहना पर्याप्त होगा कि हिमाचली भाषा की हर बोली में परंपरित लोकसाहित्य में रामकथा के स्थानक रूप विभिन्न गेय शैलियों में प्रचलित हैं। यह आश्चर्य का विषय है कि इस महाकाव्य का विस्तृत कथानक अपनी मूल कथा में जीवंत रहता हुआ भी अनेक स्थानक प्रासंगिक कथा प्रसंगों से भरपूर है जिनमें स्थानीय लोकमानस प्रतिबिंबित होता है।

विमर्श के बिंदु

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -31

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

सामाजिक संबंधों के दस्तावेज किन्नौर की लोक कथाएं

मुकेश चंद नेगी

मो.-8628825381

किन्नौर जिला की लोक कथाएं पारिवारिक सहयोग व संबंधों का यथार्थ लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं। जहां इतिहास के पन्ने मूक हैं, अतीत की स्मृतियां धुंधला गई हैं, वहां किन्नौर की लोक कथाएं अतीत एवं वर्तमान को समन्वित कर एक मार्ग प्रशस्त करती हैं। किन्नौर जिले को उच्च आदर्शों एवं सांस्कृतिक वैभव का प्रतीक माना जाता है। यहां संयुक्त व एकल परिवार व्यवस्था दोनों ही रूप मिल जाते हैं। मूलरूप से प्राचीनकाल में संयुक्त परिवार का ही प्रचलन अधिक रहा है। परिवार के सारे सदस्य एकजुट होकर सभी की मदद के लिए तत्पर रहते हैं। परिवार का मुखिया एक होता है। किन्नौर के लोकजीवन का लोकसाहित्य सामाजिक संस्कारों एवं परंपराओं की अभिव्यक्ति करता है। प्रचलित लोक कथाओं में यहां का सामाजिक जीवन पूर्ण रूप से दिखाई देता है। परिवार में भाईचारा, प्रेम, सद्भावना के साथ रहता है। परिवार में ही ईर्ष्या, कलह, द्वेष पैदा होते हैं।

 सृष्टि की रचना तथा मानव जाति के उत्थान के साथ-साथ मानव मन में अपने आसपास की घटनाओं का संबंध रहा और कालांतर में यही यादें लोक कथाएं बन गईं। लोक कथा का शाब्दिक अर्थ है लोक में प्रचलित मौखिक कथा। लोक में मौखिक परंपरा से चले आने वाली कहानियां इसी वर्ग में आती हैं। लोक कथाएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक परंपरा के रूप में चलती हैं। इन लोक कथाओं में लोकजीवन, लोक संस्कृति एवं लोक विश्वासों की अभिव्यक्ति होती है। समय परिवर्तन के अनुसार इनमें भी परिवर्तन होता रहता है तथा नए कथानक जुड़ते हैं। किन्नौर में लोक कथाओं की चर्चा शीत ऋतु में अग्नि के चारों ओर बैठकर आग तापने वाले ग्रामीण कहते हैं या पशुओं को चराने वाले चरवाहे किसी वृक्ष की शीतल छाया में बैठकर छोटी-छोटी कहानियां चुटकी में सुनाते हैं। यहां की कथाओं में राजा-रानी, देवी-देवता, शिव-पार्वती, पांडवों, रामायण, भाई-बहन, माता-पिता, बुजुर्गों की कथाएं सुनाई जाती हैं। बचपन से ही कथाएं बुजुर्गों, जैसे कि दादा-दादी व नाना-नानी से सुनने को मिलती हैं, जिनमें कुछ न कुछ उपदेश मिलता है। राक्षसों की कथाएं सुनकर बच्चों का मनोरंजन किया जाता है, जिनमें लोक कहावतों का भी महत्त्व है। लोक कथाओं का उद्भव अति प्राचीन रहा है।

 आदिकाल से ही मानव में सुनने-सुनाने की प्रवृत्ति रही है। लोक कथाओं के बीज स्रोत वेदों, उपनिषदों, पुराणों तथा संस्कृत साहित्य में उपलब्ध होते हैं, जो धीरे-धीरे समाज में प्रचलित हो गए। बुजुर्गों व शिक्षित व्यक्ति द्वारा आगे बढ़ता गया। सभी क्षेत्र में वृद्धों ने बाल मनोविनोद के लिए कथाएं सुनाई हैं। बौद्ध दर्शन व राक्षसों की कथा मनोरंजन प्रदान करती है। सुनने-सुनाने की प्रवृत्ति द्वारा मनुष्य निरंतर अपनी पृष्ठभूमि की ओर ध्यान आकर्षित करता है और कुछ जिज्ञासा हासिल करना चाहता है। आज भी बुजुर्गों के पास बैठकर पूर्वजों के बारे में जानकारी चाहता है। देवी-देवताओं की स्तुति किस प्रकार की जाती है, कहां से आए होंगे और आकर किस प्रकार गांव को बसा दिया। प्रजा को सुख-समृद्धि प्रदान किया। लोक कथाओं का सामाजिक महत्त्व नकारा नहीं जा सकता। इनमें समाज के उद्भव एवं विकास, सामाजिक रीति-रिवाज एवं परंपराओं का सहज चित्रण मिलता है। समाज में नारी की स्थिति, सामाजिक बुराइयां, युद्ध-संघर्ष का लेखा-जोखा हमें लोक कथाओं के माध्यम से मिलता है। लोक कथाओं को लोक का सामाजिक इतिहास माना जाता है।

 राजाओं के नाम पर, किसी पराक्रमी, नागों की तरह यहां के देवता बन गए हैं। उनकी हमेशा स्तुति की जाती है। उद्भव के स्थान पर पूजा की जाती है। लोक गाथाएं कालांतर में कंठस्थ हो गईं और लोक गीतों, कथाओं के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान करने लगीं। लोक कथाएं लिखित रूप में अब उपलब्ध होने लगी हैं, जो कि लेखकों द्वारा गद्य रूप में ही रचित होती हैं, जो मौखिक परंपरा के अनुरूप चली आ रही हैं। प्रत्येक क्षेत्र के लोक में मौखिक परंपरा लिखित रूप में कथाकार की रचना-धर्मिता के अनुसार परिवर्तित होने लगी है। किन्नौर की लोक कथाओं में मौखिक परंपरा कम और लिखित की प्रामाणिकता के अनुसार बढ़ रही हैं। अलौकिक की प्रधानता, चमत्कार की प्रवृत्ति, मनुष्य से पशु बनना, पशु-पक्षियों द्वारा मनुष्य की बोली बोलना, शिव को बनाना, लोक विश्वासों व धार्मिक आस्थाओं से परिपूर्ण होती हैं। यहां कथाएं स्थानीय संस्कारों, विश्वासों, रीति-रिवाजों के अनुरूप चली हैं। उपदेश से पूर्ण लटी सरजंग हिना डंदुब की कथा में पुत्र माता-पिता दोनों को बचाने के लिए राज नहीं खोलता है। बता दिया तो या पिता मरेगा, नहीं तो मां मरेगी। द्वंद्व की स्थिति पैदा करती है। यहां की कथाओं में प्रकृति का भी सुंदर वर्णन है। भाषा-शैली की दृष्टि से सुंदर मुहावरों व स्थानीय बोली की रोचक रंगत होती है। किन्नौर की लोक कथाओं में सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, चमत्कारिक, उपदेशात्मकता, नीति, मनोरंजक, हास्य कथाओं का समावेश है। इन कथाओं के संरक्षण व संवर्धन में लेखकों, लोक कलाकारों, गायकों व कथाकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

पुस्तक समीक्षा

अरूज़ और काव्य का अनूठा संगम

हाल ही में युवा कवि सतीश कुमार की काव्य पुस्तक ‘दरख्त की छांव में’ प्रकाशित हुई है। यह पुस्तक हिंदी-उर्दू का एक अनोखा संगम है। पुस्तक तीन भागों में है। पुस्तक का भाग एक हिंदी कविताओं से सुसज्जित है। आरंभ में कवि ‘मां हिंदी’ के माध्यम से हिंदी भाषा का सम्मान करते हुए इसे विश्व धरोहर कहता है। ‘बलि : एक अभिशाप’ एक बेहतरीन कविता है जो बलि प्रथा पर एक जबरदस्त प्रहार है। कविता ‘महाभारत’ में कवि मनुष्य को जीवन के कुरुक्षेत्र में बोझिल, क्षुब्ध, विक्षिप्त व कशाकशी से ग्रस्त पाता है। ‘औरतें अनशन पर हैं’ एक और बेहतरीन व मार्मिक कविता है जो नारी जीवन की व्यथा को व्यक्त करती है। कविता ‘दहशत’ बढ़ते गुनाहों के बीच आम जन में पनपते भय को दर्शाती है। इसी तर्ज़ पर ‘सियासत’ में कवि सियासत पर आक्षेप करते हुए कहता है, ‘अब तो गुनाह की परिभाषा एक ही शब्द में दी जा सकती है और वो है सियासत।’ ‘अब कवि कवि नहीं’ बेहतरीन अंदाज़ में लेखकों की बिकी हुई व चापलूसी करती कलम पर तीखा प्रहार करती है। ‘दादी का चश्मा’ में कवि दादी को याद करते हुए जीवन के सवालों को उनके तज़ुर्बे से हल करने की कोशिश करता है। ‘मां का पीहर’ में जहां मां अपने पिहर को रोज़ निहारती है, वहीं यह कविता बदलते वक्त के साथ हो रहे परिवर्तन को प्रतिपादित करती है।

 ‘यात्रा’ में कवि मनुष्य की भौतिक व आध्यात्मिक यात्रा की बात करता है। अन्य कविताएं भी सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करती हैं। इन कविताओं को किसी निर्धारित प्रतिरूप में नहीं लिखा गया है। इन्हें मुक्त छंद कविता कहा जा सकता है। सरल, आसान व उचित शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। ख्याल बेहतरीन है और गद्यात्मक शैली लिए हुए इन कविताओं में रवानगी है। भाग दो व भाग तीन में हिंदी भाषा का कवि उर्दू का शायर जान पड़ता है। शायर खुद भी कहता है कि उसके इजहार-ए-ख्याल खालिस गज़लें नहीं हैं। परंतु शायर ने का़िफया व रदीफ़  का इस्तेमाल करते हुए गज़ल जैसी ही बेहतरीन चीज़ पेश की है। नाम के अनुसार पुस्तक आवरण आमुख पर दरख्त की छांव में बैठे व्यक्ति का रेखा चित्र है। पुस्तक का डिजाइन व प्रिंट आकर्षक है। कुल मिलाकर ‘दरख्त की छांव में’ उर्दू अरूज़ और हिंदी काव्य का अनूठा संगम है। अलग तरह की यह पुस्तक साहित्य प्रेमियों के लिए रुचि व जिज्ञासा का सबब बनी रहेगी।

-जगदीश बाली

समाज से जुड़ी कविताओं का संग्रह

जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान सोलन में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत डा. कला वर्मा का पहला काव्य संग्रह ‘स्वरांजलि’ पाठकों के लिए तैयार है। इस कविता संग्रह में छोटी-छोटी 131 कविताएं संकलित हैं। 96 पृष्ठों पर आधारित यह कविता संग्रह 350 रुपए मूल्य का है। लघु कविताओं के माध्यम से समाज से जुड़े मसलों पर कई कुछ कहने की कोशिश की गई है। कवयित्री ने हिंदी साहित्य में प्रवेश लेने का शानदार प्रयास किया है जिसे उन्होंने नाम दिया है ‘विविध कविता रूप’। इस संग्रह में कविता के विविध स्वरूप झलकते हैं। कविताओं की भाषा की बात करें तो हिंदी, उर्दू शब्दों के साथ-साथ अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग भी हुआ है। इस संग्रह की सभी कविताएं किसी न किसी रूप में समाज से जुड़ी हैं। कविताओं के शीर्षक अपने आप में सच्चाई साबित करते हैं। सभी कविताएं साधारण भाषा में लिखी गई हैं जिन्हें समझने में एक आम पाठक को भी किसी प्रकार की समस्या नहीं आती है। कई कविताएं गीतों के रूप में प्रकट की गई हैं।

 अधिकतर कविताएं पाठकों में कौतूहल पैदा करने में सफल हुई हैं। वासना, बसंत, ओट में, धन-जन में, बेटी, शेष ही में विशेष, जो डूब चुका वो क्या खाक तैरेगा, गीतों से खोज, दुस्वप्न, तुम से प्यारा, आघात, पूजा, नाव, पुकारो, राही, दया न करना, नन्हा शिशु, स्वामी, वेला, ढक रखो, नींद, स्वप्न, शांति की खोज, मिलन, सिंहासन से, सोचा जो हुआ ठीक हुआ, मेरे गीत, मेरे अपने, मेरा मन, साथ दोगे क्या, अपना लो मुझे, सहा नहीं जाता, मां, रहस्य, भला किया, गोद बिछाई तथा अन्य कई कविताएं समाज से जुड़े मसलों पर निःसंकोच बात करती हैं। आशा है कि पाठकों को यह कविता संग्रह पसंद आएगा। कवयित्री डा. कला वर्मा को इस लघु कविता संग्रह के प्रकाशन पर बधाई है।

-फीचर डेस्क


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