गांधी की आर्थिकी का महत्त्व

महात्मा गांधी के स्वदेशी के सिद्धांत का महत्त्व भी नए सिरे से रेखांकित हो रहा है। औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत में बहुत अन्यायपूर्ण ढंग से आयात किए गए, जिसके कारण हमारी दस्तकारियां तेजी से उजड़ने लगीं। अतः स्वदेशी का एक आरंभिक संदर्भ यह था कि ऐसे अन्याय का सामना हम अपने यहां के उत्पादों के उपयोग द्वारा करें। महात्मा गांधी ने शीघ्र ही स्पष्ट किया कि उनकी सोच इससे भी कहीं व्यापक है। उन्होंने बताया कि वे अपने दस्तकार, जुलाहे या किसी छोटे गांव-कस्बे के स्तर के उत्पादन को स्थानीय पूंजीपति की अन्यायपूर्ण स्पर्धा से भी बचाना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि अंग्रेज चले जाएंगे तो भी यह प्रयास जारी रहेगा। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि जिन उत्पादों को हम स्थानीय स्तर पर गांव-कस्बे के स्तर पर उत्पादित कर सकते हैं, उन्हें उस स्तर पर ही प्राप्त करें…

आज के समय में अर्थ-व्यवस्था को लेकर दिए गए महात्मा गांधी के विचारों की प्रासंगिकता उजागर होने लगी है। अनेक राष्ट्र प्रमुखों से लेकर चोटी के अर्थशास्त्रियों तक कई लोग हैं जिन्हें गांधी के आर्थिक विचारों पर भरोसा होने लगा है। गांधी जी के आर्थिक विचार क्या हैं और आज के संदर्भ में उनकी प्रासंगिकता क्या है, इस आलेख में इसी विषय को समझने की कोशिश करेंगे। आज बढ़ती आर्थिक विषमताओं और बेरोजगारी तथा आर्थिक विकास के मुख्य प्रचलित मॉडल से बढ़ते असंतोष के बीच विश्व स्तर पर महात्मा गांधी के आर्थिक विचारों के महत्त्व को नए सिरे से समझने के प्रयास किए जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त जैसे-जैसे पर्यावरण का संकट विकट हो रहा है, वैसे-वैसे यह समझ भी बन रही है कि इसके बुनियादी समाधान के लिए आर्थिक सोच में गहरे बदलाव भी जरूरी हैं। इस संदर्भ में भी महात्मा गांधी के आर्थिक विचारों के महत्त्व पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है। हालांकि महात्मा गांधी के विचारों को नए सिरे से रेखांकित करने की प्रवृत्ति बड़े पूंजीपतियों व ‘याराना पूंजीवाद’ व बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पैरोकारों को नापसंद है, पर जो लोग सार्थक बदलाव व दुनिया की प्रमुख समस्याओं का वास्तविक समाधान चाहते हैं, वे गांधी जी के विचारों पर अधिक ध्यान दे रहे हैं।

पूंजीवाद इन दिनों अधिक आक्रामकता के दौर में है। इसके पैरोकार ऐसे तकनीकी व अन्य बदलावों की वकालत करते हैं जिनसे बेरोजगारी बहुत बढ़ेगी और यह करते हुए उनके चेहरे पर शिकन भी नहीं आती है। इसकी वजह यह है कि वे आर्थिक सोच को नैतिक सोच से अलग रखते हैं। पर महात्मा गांधी आर्थिक सवालों को भी जरूरी तौर पर नैतिकता से नजदीकी तौर पर जोड़कर ही देखते हैं। वे तो किसी बदलाव या नीति के संदर्भ में सबसे पहले यही सोचते हैं कि इसका आम लोगों की आजीविका पर क्या असर होगा, सबसे गरीब और जरूरतमंद लोगों पर क्या असर होगा और इस आधार पर ही निर्णय लेने के लिए कहते हैं। महात्मा गांधी के स्वदेशी के सिद्धांत का महत्त्व भी नए सिरे से रेखांकित हो रहा है। औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत में बहुत अन्यायपूर्ण ढंग से आयात किए गए, जिसके कारण हमारी दस्तकारियां तेजी से उजड़ने लगीं। अतः स्वदेशी का एक आरंभिक संदर्भ यह था कि ऐसे अन्याय का सामना हम अपने यहां के उत्पादों के उपयोग द्वारा करें। महात्मा गांधी ने शीघ्र ही स्पष्ट किया कि उनकी सोच इससे भी कहीं व्यापक है। उन्होंने बताया कि वे अपने दस्तकार, जुलाहे या किसी छोटे गांव-कस्बे के स्तर के उत्पादन को स्थानीय पूंजीपति की अन्यायपूर्ण स्पर्धा से भी बचाना चाहते हैं।

 उन्होंने कहा कि अंग्रेज चले जाएंगे तो भी यह प्रयास जारी रहेगा। हमारा प्रयास यह होना चाहिए कि जिन उत्पादों को हम स्थानीय स्तर पर गांव-कस्बे के स्तर पर उत्पादित कर सकते हैं, उन्हें उस स्तर पर ही प्राप्त करें और इस तरह दैनिक जीवन की अनेक जरूरतों को पूरा करने के लिए बहुत से छोटे उद्योग, दस्तकारियां पनपते रहेंगे, उनमें रोजगार का सृजन होता रहेगा। स्थानीय जरूरतों के आधार पर उत्पाद बनेंगे तो ही सहूलियत होगी, गुणवत्ता सही होगी, उत्पादक व उपभोक्ता में सीधा संबंध होगा। विज्ञापन व यातायात का बहुत सा अपव्यय बचेगा। महंगाई कम होगी, रोजगार बढ़ेंगे। छोटे स्थानीय उद्योग में भारी मशीनें कम होंगी, मजदूर अधिक होंगे। अतः रोजगार बढे़गा। दैनिक जीवन की जरूरतें पूरी करने में स्थानीय स्तर पर आत्म-निर्भरता बढ़ेगी। बाहरी उतार-चढ़ाव का असर दैनिक आवश्यकताओं की आपूर्ति व रोजगारों पर कम पड़ेगा। इसी तरह खादी के सिद्धांत का अधिक व्यापक महत्त्व था। पहला संदर्भ तो निश्चय ही ऐसे कपड़े से था जो हाथ का काता और हाथ का बुना था, पर इसका व्यापक संदर्भ यह है कि ग्रामीण दस्तकारों, किसानों को आत्म-निर्भर व्यवस्थाओं की ओर बढ़ना है। एक मिल मालिक ने गांधी जी को कहा कि हमारी मिल का सूत हम हैंडलूम जुलाहे को उपलब्ध करवाएंगे। आप हाथ की कताई और चरखे को छोड़ दीजिए। गांधी जी का जवाब था कि यदि अपने कच्चे माल या धागे के लिए जुलाहा उसी मिल पर निर्भर हो गया जो उसकी प्रतिस्पर्धा में है तो इसका काम बहुत दिनों तक नहीं चलेगा। अतः उन्होंने कहा कि हाथ के बुने कपड़े के लिए कताई भी हाथ से की जाए।

आज किसान की आत्म-निर्भरता भी बहुत कम हो गई है क्योंकि वह बाहरी रासायनिक खाद, कीटनाशक, खरपतवारनाशक, मशीनरी आदि पर बहुत निर्भर हो गया है। खादी के सिद्धांत का किसान के लिए यह संदेश है कि आत्म-निर्भरता की ओर बढ़ो, बाहरी निर्भरता को कम करो। इस तरह अनेक संदर्भों में गांधी जी के आर्थिक विचारों का महत्त्व अधिक व्यापक हो रहा है, बढ़ रहा है। गांधी जी का आर्थिक दर्शन मजबूत गांव की बात करता है। एक ऐसा गांव व ऐसी पंचायत, जो आत्म-निर्भर हो। आज अगर गांवों को मजबूत करना है तो वहां वे सभी सुविधाएं जुटानी होंगी जो एक सुविधाजनक जीवन जीने के लिए जरूरी हैं। एक शहर में जो सुविधाएं मिलती हैं, वही सुविधाएं गांवों में भी मिलनी चाहिएं। सड़कें, बिजली, पानी, सीवरेज, स्कूल, स्वास्थ्य सुविधाएं तथा अन्य आधारभूत सेवाएं गांवों में भी उपलब्ध करवानी होंगी। इससे शहरों की ओर पलायन रोकने में मदद मिलेगी। हाल के दिनों में शहरों से गांवों की ओर लाखों मजदूर लौटे हैं। अब वे कृषि कार्य, जो उन्होंने पहले त्याग दिया था, को फिर से अपना रहे हैं। कृषि को मजबूत करने की भी जरूरत है। किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उनकी दूसरों पर निर्भरता कम करनी होगी। कृषि एक ऐसा सेक्टर है, जो असंख्य लोगों के लिए रोजगार पैदा करता है। इसलिए सरकार को प्राथमिकता के साथ इस सेक्टर के लिए काम करना होगा। सार रूप में कहें तो आज गांव और खेतीबाड़ी को मजबूत करने की जरूरत है। यही बात महात्मा गांधी ने कही है। ऐसा करके ही हम आत्मनिर्भर गांव बना पाएंगे।

-(सप्रेस)

भारत डोगरा

स्वतंत्र लेखक


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