स्वाभिमान के प्रतीक राष्ट्र नायक महाराणा प्रताप

अफसोसजनक है कि हमारे धार्मिक स्थलों को ध्वस्त करके बेगुनाहों का खून बहाकर धर्मांतरण व कई नगरों का नाम तब्दील करने वाले विदेशी आक्रांताओं को महान् पढ़ाया गया, मगर तलवार से दुश्मन का हलक सुखाकर भारत की गौरव पताका फहराने वाले, धर्म-संस्कृति, आत्मसम्मान के रक्षक व मातृभूमि का रक्त से अभिषेक करने वाले राष्ट्रनायक महाराणा प्रताप सिंह भारतीय इतिहास की किताबों में महान् नहीं कहलाए…

भारतवर्ष का गौरवशाली इतिहास प्राचीन काल से कई रणबांकुरों की असंख्य वीरगाथाओं से भरा पड़ा है। रणभूमि में कई शौर्यगाथाएं दर्ज करने वाले क्षत्रियों को सदियों से धर्म रक्षा, शस्त्र संचालन में पारंगत व शूरवीरता की संस्कृति के लिए जाना जाता है। मातृभूमि के प्रति समर्पण तथा रणक्षेत्र में शत्रु के समक्ष ‘विजय या वीरगति’ को क्षत्रिय धर्म माना गया है। देश के पराक्रमी योद्धाओं के नामों की फेहरिस्त काफी लंबी है। मगर क्षत्रिय शिरोमणि महाराणा प्रताप एक ऐसे वीर योद्धा हुए जिनमें जन्म से ही देशभक्ति, आक्रामक तेवर व निडरता जैसे गुण मौजूद थे। मुगल सेना के लिए खौफ  का दूसरा नाम व युद्ध कौशल के महारथी महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 ईस्वी को राजस्थान की मेवाड़ रियासत के कुंभलगढ़ में राणा उदय सिंह व रानी जयवंतबाई के घर हुआ था। महाराणा प्रताप 1572 में मेवाड़ के सिंहासन पर विराजमान हुए थे। अपने राज्य की बागडोर संभालते ही महाराणा के सामने कई चुनौतियां शुरू हो चुकी थीं। उस दौर में अकबर देश की कई रियासतों पर अपना वर्चस्व बढ़ाने में लगा था। कई रियासतें उसकी अधीनता स्वीकार कर रही थीं। अकबर ने मेवाड़ को भी अपने अधीन करने की बहुत कोशिश की, मगर महाराणा प्रताप ने संधि, मित्रता जैसे सभी प्रस्ताव व प्रलोभनों को ठुकरा कर मुगल सेना को युद्धभूमि में चुनौती देना ही मुनासिब समझा।

 इसके परिणामस्वरूप 18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध हुआ। उस युद्ध में महाराणा की सैन्य तादाद मुगल सेना की अपेक्षा कम थी, मगर उनकी सेना के मनोबल व जुझारूपन में कोई कमी नहीं थी। युद्ध में महाराणा प्रताप ने स्वयं अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया था जिसके चलते साहसी राजपूत हजारों की संख्या के मुगल लाव-लश्कर को भयभीत करके मार भगाने में सफल हुए। इस युद्ध के बाद महाराणा ने विशाल मुगल सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध नीति को इजाद किया जिसके लिए उन्होंने महलों व सुख-सुविधाओं का त्याग करके अरावली की पर्वल श्रृखंलाओं को अपना आशियाना बनाया। उस समय राजस्थान की गाडि़या लोहार समुदाय के हजारों लोगों ने भी अपना घरबार त्याग कर महाराणा की सेना में शामिल होकर जंगलों में तलवार, भाले, तीर आदि हथियारों का निर्माण करके देशभक्ति की अनूठी मिसाल कायम की थी। महाराणा प्रताप का सशस्त्र संघर्ष सत्ता प्रप्ति या किसी जाति विशेष के लिए नहीं था, बल्कि मुगलों के अत्याचार से समाज के सभी वर्गों, धर्म संप्रदाय, मानवता तथा संपूर्ण भारत के स्वाभिमान के लिए उन्होंने सशस्त्र क्रांति व बलिदान की राह चुनी थी। मुगलों ने महाराणा प्रताप को हिरासत में लेने के लिए कई वर्षों तक पूरी ताकत झोंक दी, मगर नाकाम रहे। प्रतिशोध से भरी राजपूतों की सेना ने 1582 में दिवेर के युद्ध में मुगल सेना पर जोरदार हमला बोलकर दुश्मन को करारी शिकस्त दी। इस युद्ध में मुगल सेनापति सुल्तान खां को महाराणा के पुत्र अमरसिंह राणा ने तथा अकबर के क्रूर सिपहसालार बहलोल खान को महाराणा प्रताप ने अपनी तलवारों के वार से जहन्नुम का रास्ता दिखा दिया था।

 नतीजतन खौफजदा हुई मुगल सेना को राजपूतों के समक्ष आत्मसमर्पण करना पड़ा। उस दिवेर के युद्ध से जुड़ी कई कहावतें आज भी राजस्थान की लोक संस्कृति में मशहूर हैं। कठोर निर्णय के लिए अडिग महाराणा प्रताप ने मुगल सेना के खिलाफ जो दृढ़ संकल्प व प्रतिज्ञा ली थी, वो वीरता, इच्छाशक्ति देश व दुनिया की कई सेनाओं के लिए प्रेरणा बन चुकी थी। अमरीका के साथ बीस साल तक चले भीषण युद्ध में विजय प्राप्त करने वाले छोटे से देश वियतनाम के जननायक ‘हो.ची.मिन्ह’ ने इस बात का खुलासा किया था कि विश्व के शक्तिशाली देश अमरीका की सेना को शिकस्त देने की जुझारूपन प्रेरणा उन्हें भारत के राजपूत राजा महाराणा प्रताप की युद्धनीति व जीवनी से प्राप्त हुई। महाराणा प्रताप के उच्चकोटि के सैन्य नेतृत्व व अदम्य साहस से भरे इतिहास से अंग्रेज भी प्रभावित हुए थे। भारतीय सेना में ‘राजपूत रेजिमेंट’ तथा ‘राजपूताना राइफल’ राजपूतों के गौरव का प्रतीक हैं। आज हमारे देश के कई सियासी रहनुमा अपनी सियासी जमीन को मजबूत करने के लिए कई मशवरे व तकरीरें पेश करते हैं। कई सियासत को अपनी जागीर मानकर बैठे हैं, मगर 1947 में अंग्रेज हुकूमत से आज़ादी के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था की बहाली के लिए देश की जिन 562 रियासतों ने विलय कर देश को अखंड भारत बनाने का बेमिसाल त्याग किया, उनमें ज्यादातर रियासतों पर भी राजपूत शासकों का ही अधिकार था जिनमें हिमाचल प्रदेश की 30 पहाड़ी रियासतें भी राजपूत वर्चस्व वाली थी। मगर देश के एकीकरण के लिए अपने पूर्वजों की सदियों पुरानी विरासतों के त्याग भरे उस बलिदान का जिक्र कहीं नहीं होता।

 बहरहाल गोगुन्दा, चावंड, कुंभलगढ़, दिवेर जैसे 21 भीषण युद्ध जीत कर मुगलों के कई भ्रम दूर करने वाले महाराणा प्रताप जब तक जीवित रहे, मुगल दास्तां स्वीकार नहीं की और न कभी अपने धर्म व कर्म से विमुख हुए। दुश्मन के खून से सनी महाराणा की शमशीर ने कभी अपने म्यान में विश्राम नहीं किया। अपने पुरखों की विरासत सम्पूर्ण मेवाड़ पर राजपूत साम्राज्य कायम करने के लिए अपना क्षत्रिय धर्म बखूबी निभाया। मेवाड़ को मुगल सल्तनत का हिस्सा बनाकर उस पर इस्लामिक परचम लहराने की अकबर की ख्वाहिश कभी पूरी नहीं हुई। लेकिन अफसोसजनक कि हमारे धार्मिक स्थलों को ध्वस्त करके बेगुनाहों का खून बहाकर धर्मांतरण व कई नगरों का नाम तब्दील करने वाले विदेशी आक्रांताओं को महान् पढ़ाया गया, मगर तलवार से दुश्मन का हलक सुखाकर भारत की गौरव पताका फहराने वाले, धर्म-संस्कृति, आत्मसम्मान के रक्षक व मातृभूमि का रक्त से अभिषेक करने वाले राष्ट्रनायक महाराणा प्रताप सिंह भारतीय इतिहास की किताबों में महान् नहीं कहलाए। जिन महान योद्धाओं की शूरवीरता के बिना देश का रक्तरंजित इतिहास फीका पड़ जाए, उनकी महानता की परिभाषा का सही मूल्यांकन होना चाहिए। असीम शौर्य व पराक्रम के प्रतीक महाराणा प्रताप को राष्ट्र उनकी जयंती पर शत्-शत् नमन करता है।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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