अब जीवन सख्त पाबंदियों से ही बच सकता है

व्यर्थ पैसा जो भवनों, इमारतों, दफ्तरों, अपनी सुविधाओं के लिए दिल खोल कर लगाया जा रहा है, उस सभी को स्वास्थ्य सुविधा के लिए दे देना चाहिए। बजाय इसके कि सरकार पेंशनरों को भी न बख्शे…

हमारे मुख्यमंत्री उन्हीं गांव से हैं जिनसे हम सभी हैं। गांव का परिवेश बहुत स्वच्छ, सुंदर, सकारात्मक और विनम्र होता है। निःसंदेह ये सभी बातें उनमें और उनके मंत्रिमंडल के प्रतिनिधियों में भी होंगी। परंतु मुझे लगता है कि आसपास जिस तरह का घेराव ब्यूरोक्रेसी बनाए रखती है उससे ये सब कुछ विछिन्न होता दिखता है। ऐसा भी नहीं कि वहां भी सभी एक जैसे हैं, कुछ इसी परिवेश में भी बढ़े-पले होते हैं। इसके कोविड समय में अनेकों उदाहरण उन आदेशों में देखे जा सकते हैं जो अभी हुए और थोड़ी देर बाद बदल दिए गए। केवल महामहिमों के साथ अनेक दोस्तियों और व्यापारियों की सुख-सुविधाओं की खातिर। हमारी सरकार यदि पंचायत और नगर समितियों, ब्याह शादियों पर समय रहते पूर्ण प्रतिबंध लगा देती, किसी को कुंभ न नहलाती, दुकानें-दफ्तर बंद हो जाते, बसों की आवाजाही बंद कर देती, पर्यटन बंद हो जाता, जो आज किया है उसे पहले कर देती तो यह संक्रमण गांव-गांव न फैलता। आज स्थिति यह है कि अब  तकरीबन हर गांव में दो-चार लोग संक्रमित हैं जहां केवल निर्भरता आशा वर्करों पर है। गांव के जो स्वास्थ्य केंद्र हैं, वहां कोविड समय में न पर्याप्त स्टाफ है, न आपातकाल के लिए कोई नर्स या डॉक्टर। कितना अच्छा होता इन केंद्रों में डॉक्टर भेज दिए जाते, पूरा स्टाफ  होता तो गांव के लोगों में एक उत्साह बना रहता और इस महामारी का भय भी कम होता।

 बहुत दुख होता है कि इस बारे में न स्थानीय विधायक और न ही पंचायतों ने कोई पहल की। विधायक महोदय अधिकतर अपने-अपने बंगलों से ही जनता का, अपना बचाव करते हुए, मार्गदर्शन देते रहे। कितना अच्छा व सुखद होता कि उनकी सक्रियता चुनाव काल में जिस तीव्रता से रही, शादी-ब्याहों में जिस गति से रही, गांव में इस संक्रमण काल में भी हो पाती। वे अपने ग्रामीण चुनाव क्षेत्रों में स्वास्थ्य की उचित व्यवस्था करते, पंचायतों के साथ, जन संस्थाओं के साथ बैठकें करते तो आज गांव में भय का माहौल न होता। मैंने हिमाचल पर्यटन निगम के आशियाना रेस्तरां की और सचिवालय कैंटीन की पोस्टें डाली थीं कि किस तरह वहां कर्मचारी संक्रमित होते हुए भी जलपान करवाते रहे। उन्हें स्वयं भी पता नहीं था कि वे संक्रमित हैं। सचिवालय कैंटीन में हिमाचल से बाहर के व्यापारियों से भी ज्यादा संक्रमण फैला। बहुत से सरकारी दफ्तरों में इसी दौरान टेंडर खुले, बहुत सी स्कीमों के, शायद बाहर से आने वालों पर कोई पाबंदी नहीं थी, न कोई रिपोर्ट की शर्त अपनाई गई। साथ ही निगम के पीटरहॉफ, फागू और कुछ अन्य होटलों में बहुत से कर्मचारी संक्रमित होकर भी प्रशासन के निर्देशों का मजबूरन पालन करते रहे। प्रशासन ने बहुत सी बातें न केवल छिपाई, बल्कि न जाने कमाई के चक्कर में कितने लोगों को अपने कर्मचारियों के साथ मौत के मुंह में धकेल दिया गया। सूत्र बताते हैं कि सचिवालय के बहुत से शीर्ष अफसर संक्रमित होकर आइसोलेशन में हैं। जीवन जब रहेगा सब कुछ तभी बचा रह सकता है, सरकार भी, व्यापार भी, काम भी और नौकरी भी। लेकिन सरकार पर निजी क्षेत्र के इतने दबाव रहे होंगे कि सरकार को बार-बार उनके आगे नतमस्तक होना पड़ा। होटल खुले रहे, ट्रांसपोर्ट चलता रहा, बैठकें, धामें होती रहीं और कोरोना सबसे मित्रता करता रहा। जिस दिन सरकार ने कोरोना कर्फ्यू लगाया तो उसकी आलोचना सर्वत्र हुई। उसे ‘पहाड़ी कर्फ्यू’ का नाम दिया गया।

यानी पावंडियों के नाम एक आई वाश। मुख्यमंत्री ने प्रचलित परंपरा के तहत बुद्धिजीवियों को दोषी ठहरा दिया कि वे भ्रमित कर रहे हैं। शायद किसी शब्दकोश में उन्होंने और सरकारी भक्तों ने इस बुद्धिजीवी शब्द के अर्थ ही नहीं देखे…तो क्या मुख्यमंत्री सहित उनके मंत्री, सरकारी अफसर, सलाहकार सभी ‘बुद्धिविहीन’ हैं, क्या वे बुद्धिजीवी नहीं हैं? और परिणाम हमारे सामने था कि हिमाचल की भयावह स्थिति बनते देख रात-रात को उन्हें पूर्ण बंदी लगानी पड़ी। यदि आलोचक, बुद्धिजीवी की श्रेणी में एक गलत भाव से रखे गए तो इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है? निःसंदेह वे ही सबसे बड़े और विश्वसनीय मार्गदर्शक होते हैं, परंतु उन्हें तो देशद्रोह जैसी श्रेणियों में रखा जाने लगा है। हिमाचल जैसे राज्य में शायद ही सरकार का कोई दुश्मन होगा। न ही बुद्धिजीवी और न ही लेखक-पत्रकार, परंतु असली दुश्मन सरकार में ही कई ‘प्रारूपों’ में बैठे होते हैं जो अच्छे से अच्छे निर्णयों को एक पल में बदलवा देने की क्षमता रखते हैं। इस बात को कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि सरकार के भीतर और शीर्ष पर बैठे वही ‘बुद्धिजीवी’ सरकार की लोकप्रियता और जन सुधार के कार्यों में सेंध लगवाने के लिए पर्याप्त होते हैं। क्योंकि उनके पास हर सुविधा मौजूद है…न ऑक्सीजन की चिंता, न बीमारी में अस्पताल बिस्तर की फिक्र, न पैसों और महंगाई की। एक फोन पर तमाम ‘साखियां’ हाजिर। दशा, दुर्दशा, मुसीबतें सारी आमजन के नाम। मुख्यमंत्री जी को निदा ़फाज़ली की ग़ज़ल का यह शेर जरूर स्मरण रखना चाहिए ः ‘हर आदमी में होते हैं, दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना हो, कई बार देखना।’ परंतु देर से ही सही, अच्छा निर्णय हुआ। पूर्ण बंदी। यह अब लंबी होनी चाहिए अन्यथा गांव के गांव संक्रमित होंगे और हम दूसरे राज्यों की तरह सामूहिक नरसंहार की तरफ बढ़ते जाएंगे। इस संक्रमण को अब किसी भी कीमत पर यहीं रोक दिया जाना चाहिए। कमाई और शासन के लिए जीवन पड़ा है, वही न रहेगा तो सब कुछ समाप्त।

अब जो निर्माण कार्य चल रहे हैं, वे संक्रमण के कोविड केंद्र बनने वाले हैं। इसलिए उन्हें तुरंत बंद करने की आवश्यकता है। हिमाचल के गांव में नब्बे प्रतिशत जनता रहती है। अधिकतर शहर में नौकरीपेशा मूलतः गांव में ही रहते हैं। इसलिए जो गरीब मजदूर तपका गांव में है, उनके लिए कमाई का मनरेगा बड़ा साधन है जिसे नियमों के साथ संचालित रखा जाना चाहिए। शहरों में पंजीकृत मजदूरों और कामगारों को रोटी-पैसे की व्यवस्था मालिकों और सरकार को मिलकर एक-दो महीनों के लिए सामूहिक रूप से करनी चाहिए। व्यर्थ पैसा जो भवनों, इमारतों, दफ्तरों, अपनी सुविधाओं के लिए दिल खोल कर लगाया जा रहा है, उस सभी को स्वास्थ्य सुविधा के लिए दे देना चाहिए। बजाय इसके कि सरकार पेंशनरों को भी न बख्शे। कोविड टेस्टिंग और वैक्सीन लगाने में जितनी परेशानी वरिष्ठ नागरिकों को हो रही है, और किसी को नहीं। कई बार अति वरिष्ठ नागरिक पंक्तियों में अपनी-अपनी बारी का इंतजार करते दिन गुजार देते हैं, इसलिए जरूरी है सरकार ऐसे वरिष्ठों की सुविधा के लिए घर-घर वैक्सीनेशन का अभियान शुरू कर दे ताकि वे भीड़ में संक्रमित न हों। गांव में अब एहतियात बरतने की सख्त जरूरतें हैं।

एसआर हरनोट

साहित्यकार


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