एसआर हरनोट साहित्यकार

मत कोसिए मौसम को, नदियों को, पहाड़ों को, सावन भादो को…अपने भीतर झांकिए, पश्चाताप कीजिए, सोचिए हम अपने बच्चों को क्या और कौन से संस्कार दे रहे हैं, आप इजाद कर लीजिए पहाड़ों और नदियों को गायब करने की अत्याधुनिक मशीनें, तरकीबें, खूब धन कमा लीजिए, परंतु उस प्रकृति के आगे, उसकी क्रूरता के समक्ष

सड़क से संसद तक, घर से बाजार तक अब बोलबाला इसी ‘बैल’ का ही है। असली तो अब ‘ऑरगेनिक‘ के नाम से बिक रहा है। मनुष्य भी असली कहां रहे हैं अब। वे भी ‘लोहे के बैलों’ में परिवर्तित हो गए हैं। वहां भी यही दोगलापन है… यह मौसम खरीफ की फसल बवाई का है।

व्यर्थ पैसा जो भवनों, इमारतों, दफ्तरों, अपनी सुविधाओं के लिए दिल खोल कर लगाया जा रहा है, उस सभी को स्वास्थ्य सुविधा के लिए दे देना चाहिए। बजाय इसके कि सरकार पेंशनरों को भी न बख्शे… हमारे मुख्यमंत्री उन्हीं गांव से हैं जिनसे हम सभी हैं। गांव का परिवेश बहुत स्वच्छ, सुंदर, सकारात्मक और विनम्र

कल अपने गांव आया तो बद्री सिंह भाटिया जी के गांव के सामने सड़क पर काफी देर खड़ा रहा और उनके पुराने और बहुत मेहनत से बनाए नए घर को देखता रहा। कितना उदास लगा था वह गांव…घर और आंगन। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने नया घर बनाया था, बहुत प्यार से। उनका शिमला मन ही

क्या अब समय नहीं आ गया है कि आपका, जनता का अपना भी कोई मेनिफेस्टो हो। ऐसी न्यायपालिका हो और जब कोई नेता या पार्टी चुनाव में जाएं तो वे जनसुविधाओं की गारंटी का एफिडेविट दें, अगर वे वादे पूरे न करें तो उन पर एक्शन हो… चुनाव आते हैं तो हम चुपचाप अपने अधिकारों

जिस पहले राज्य सम्मान के निर्णायक निर्मल वर्मा जी थे, वे राज्य सम्मान पिछले पंद्रह सालों से बंद पड़े हैं। यशपाल सृजन पीठ का अता-पता नहीं है। निर्मल जी जिस घर में जन्मे, फिर भज्जी हाउस में कब और क्यों शिफ्ट हुए, इसका कोई रिकार्ड मौजूद नहीं… आज तीन अप्रैल है। साहित्यिक दृष्टि से विशेषकर