पारदर्शिता और जवाबदेही

By: May 20th, 2021 12:08 am

पारदर्शिता और जवाबदेही की प्रक्रिया तय की जानी चाहिए, सिस्टम बनना चाहिए ताकि संबंधित अधिकारियों के लिए उस सिस्टम के अनुसार काम करना आवश्यक हो जाए और भ्रष्टाचार पर रोकथाम की शुरुआत हो सके। प्रक्रिया और सिस्टम के अभाव में ही हम भ्रष्ट जीवन जीने को विवश हैं, अब इससे मुक्ति की आवश्यकता है। इस विषय में जनता को ही जागरूक होना होगा, तभी यह लागू होगा, वरना राजनीतिज्ञ और सरकारी अधिकारी तो यथास्थिति बनाए रखने का ही प्रयत्न करेंगे। हमें इसी का मुकाबला करना है…

अस्सी के दशक की बात है, मैं कानपुर में एक मित्र के पास गया हुआ था। मेरे उन मित्र का छोटा भाई पीडब्ल्यूडी-बीएंडआर में ठेकेदारी करता था। मेरे मित्र के उस भाई को उसी दिन एक टेंडर एलाट हुआ था जिस दिन मैं उनके यहां पहुंचा तो चर्चा भी उसी परियोजना की हो रही थी। मेरे मित्र का भाई बता रहा था कि उन्हें जो टेंडर एलाट हुआ है वह एक पुलिया बनाने का ठेका है। बहुत बड़ा काम नहीं था वो, पर उसमें जो हेर-फेर हुआ था मैं उसकी चर्चा करना चाहूंगा। सरकार की ओर से एक परियोजना को स्वीकृति मिली थी कि आसपास के गांवों की पहुंच सड़क पर 9 छोटे-छोटे पुल, जिन्हें आम भाषा में पुलिया और अंग्रेजी में कलवर्ट कहा जाता है, बनाए जाएं और उसके लिए एक निश्चित धनराशि तय की गई थी। जब ठेकेदारों से उसके लिए कोटेशन ली गई तो अधिकारियों की आंखें खुलीं। दरअसल सभी कोटेशन ऐसे थे कि केवल एक ही पुलिया बनाने का खर्च उस धनराशि से थोड़ा ही कम था जितनी राशि नौ पुलियाएं बनाने के लिए स्वीकृत थी।

 सरकार, सरकार होती है और अधिकारी, अधिकारी। अधिकारियों ने अपना खेल खेला और फाइल पर यह नोटिंग लिख दी इस टेंडर में हम पैसा बचा रहे हैं। स्वीकृत धनराशि के 90 प्रतिशत खर्च में काम कर रहे हैं, और यह बात गोल कर गए कि 9 पुलियाओं की जगह सिर्फ  एक पुलिया बनाई जा रही है। अधिकारियों का कहना था कि परियोजनाओं के लिए धनराशि स्वीकृत करने का आधार वह खर्च है जो आजादी से भी पहले आता था। अब महंगाई बढ़ गई है, मजदूरी की दर बदल गई है, लेकिन परियोजनाओं के लिए धनराशि स्वीकृत करने के आधार में परिवर्तन नहीं हुआ है। तो यह सिस्टम की बात है। सिस्टम अगर गलत हो, आधार ही गलत हो, तो भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा ही क्योंकि सीधे तौर पर काम करना संभव ही नहीं रह जाता। किसी भी एक कारण से अगर भ्रष्ट अथवा अनैतिक तरीके से काम करने की शुरुआत हो गई तो फिर भ्रष्ट अथवा अनैतिक आचरण एक रुटीन बन जाता है और जीवन में उतर आता है। भ्रष्ट व्यक्ति हर काम को भ्रष्ट तरीके से करेगा। हमारे सिस्टम ने हमें भ्रष्ट बनने पर विवश किया है। यह सिस्टम की भी कमी है। मुझे एक और उदाहरण याद आता है। शायद 1995 की बात है।

 मनोहर जोशी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे और मेरी उनसे मुलाकात तय थी। उनसे मुलाकात के बाद मेरे पास सारा दिन खाली था और मैं अपने जिस मित्र के पास ठहरा हुआ था वे मुंबई उच्च न्यायालय में वकालत करते थे। दिन बिताने की नीयत से मैं अपने वकील मित्र के पास उच्च न्यायालय परिसर में चला गया। वहां अदालत की मुख्य सीढि़यों के पहले पायदान पर ही एक तरफ बड़े से पट्ट पर इमारत के निर्माण के विवरण दर्ज हैं। ‘कार्य आरंभ होने की तिथि : 1 अप्रैल 1871, कार्य पूर्ण होने की तिथि ः नवंबर 1878, व्यय का स्वीकृत पूर्वानुमान : 1647196 रुपए, व्यय जो वास्तव में हुआ : 1644528 रुपए।’ इस सूचना के अलावा भी उस पट्ट पर उन लोगों के नाम भी हैं जिन्होंने परियोजना को मंजूरी दी और इसका काम पूरा किया। इस सूचना के दो पहलू हमें तत्काल प्रभावित करते हैं। पारदर्शिता और जवाबदेही। ट्रांसपेरेंसी एंड एकाउंटेबिलिटी। इस परियोजना को मिला धन, समय और इसके लिए उत्तरदायी लोगों के बारे में जनता को बता दिया गया है। इसे पूरा करने के लिए कितना वक्त दिया गया था, यह तो नहीं बताया गया है, लेकिन जब वास्तविक खर्च पूर्वानुमान से कम है तो साफ  है कि काम सख्त देरखरेख में पूरा हुआ और परियोजना वक्त पर ही पूरी हुई। तब तक 117 वर्ष से ज्यादा वक्त गुज़र चुका था, पर यह इमारत तब भी मजबूती के साथ खड़ी थी। मैंने जब अपने मित्र से इसकी चर्चा की तो उन्होंने मुझे ऐसी ही एक और बुलंद देन के दर्शन करवाए। वे मुझे मुंबई नगरपालिका के कार्यालय ले गए। मुझे यह देखकर हैरानी हुई कि वहां भी ऐसी ही सूचना प्रमुखता से लगी थी। आज जब मैं यह लेख लिख रहा हूं तो महाराष्ट्र कोरोना की चपेट में है। सरकारी कामकाज ठप हैं और मेरे वह वकील मित्र कोरोना से जंग हार कर परमात्मा के श्री चरणों में जा विराजे हैं। मेरे पास इस समय कोई साधन नहीं है कि मैं यह जांच सकूं कि मुंबई उच्च न्यायालय में और मुंबई नगरपालिका कार्यालय में अब भी वह पट्ट मौजूद है या नहीं, और मुझे अफसोस होता है कि तब तक भारतवर्ष में कैमरे वाले मोबाइल फोन तो क्या, मोबाइल फोन ही नहीं आए थे, वरना मैं उन दोनों जगहों की फोटो ले चुका होता।

 हालांकि उम्मीद यही है कि किसी सरकार का उस पट्ट की ओर शायद ध्यान नहीं गया होगा, वरना अपनी शर्म छुपाने के लिए कोई सरकार ही उस पट्ट को हटवा देती। स्वतंत्रता के बाद के भारत में परियोजनाओं की प्रगति अनिश्चित हो गई है। यह सब उस ‘प्रतियोगता’ का परिणाम है जो लोक हित के विरुद्ध आर्किटेक्टों, बिल्डरों, ठेकेदारों, आपूर्तिकर्ताओं, टेंडर जांचने वालों और विविध विभागों से प्रमाणपत्र जारी करने वालों को भिड़ाए रखती है। अब इतने सारे लोग अपना-अपना हिस्सा मार ले जाते हैं तो अंत में खोखला ढांचा भर ही खड़ा हो पाता है। इस लूट को सुरक्षा की भी जरूरत होती है और यह सारा खेल गोपनीयता के परदों में छुपा रहता है। कभी-कभार किसी जिज्ञासु नागरिक के आगे आने पर सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचनाओं के माध्यम से ही ऐसे कुछ तथ्य निकल कर आ पाते हैं वरना आम जनता को सरकार और अधिकारियों के खेल का पता ही नहीं चलता। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि जवाबदेही किसी की भी नहीं रह जाती।

आजादी से भी पहले के समय में तत्कालीन सरकारी अधिकारियों और बिल्डरों ने जो नज़ीर कायम की है, उसके अनुकरण की ज़रूरत है और इस बारे में कानूनी व्यवस्था भी की जानी चाहिए। हर परियोजना और कम से कम सार्वजनिक क्षेत्र की मुंबई उच्च न्यायालय और नगरपालिका भवनों के निर्माताओं द्वारा लगाई गई तख्ती जैसे पट्ट लगाकर वे सारी सूचनाएं उसी रूप में दी जानी चाहिएं। देश जब गुलाम था, अगर तब यह हो सकता था तो आज जब हम स्वतंत्र हैं और लोकतंत्र का दम भरते हैं, तब तो यह होना ही चाहिए। पारदर्शिता और जवाबदेही की प्रक्रिया तय की जानी चाहिए, सिस्टम बनना चाहिए ताकि संबंधित अधिकारियों के लिए उस सिस्टम के अनुसार काम करना आवश्यक हो जाए और भ्रष्टाचार पर रोकथाम की शुरुआत हो सके। प्रक्रिया और सिस्टम के अभाव में ही हम भ्रष्ट जीवन जीने को विवश हैं, अब इससे मुक्ति की आवश्यकता है। इस विषय में जनता को ही जागरूक होना होगा, तभी यह लागू होगा, वरना राजनीतिज्ञ और सरकारी अधिकारी तो यथास्थिति बनाए रखने का ही प्रयत्न करेंगे। हमें इसी का मुकाबला करना है। काश, ऐसा जल्दी हो सके।

संपर्क :

पी. के. खुराना, राजनीतिक रणनीतिकार

 ईमेलः indiatotal.features@gmail.com


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