नोट छापने का फंडा

ज्यादा पैसा छापने का सबसे बड़ा खतरा महंगाई बढऩा ही है। हमारे पास कई देशों के उदाहरण हैं जहां ज़्यादा पैसे छाप लिए तो महंगाई हज़ारों गुना बढ़ गई। हालिया उदाहरण जिम्बाब्वे और वेनेजुएला के हैं। वहां अर्थव्यवस्था को खराब हालत से निकालने के लिए सरकारों ने मुद्रा छपवाई। बाजार में पैसा बढ़ा तो मांग भी बढ़ी। चीज़ों की कीमतें भी बढऩे लगी। जिम्बाब्वे में तो 2008 में महंगाई की वृद्धि दर करोड़ों में पहुंच गई थी। हालात ये हो गए कि छोटी सी चीज़ खरीदने के लिए भी बोरा भरकर पैसा लाना पड़ता था। ऐसा ही हाल हमने कुछ बरस पहले वेनेजुएला में देखा। इस स्तर तक महंगाई बढऩे को अर्थशास्त्र की शब्दावली में हाइपरइंफ्लेशन कहा जाता है। और किसी देश की अर्थव्यवस्था अगर एक बार हाइपरइंफ्लेशन में पहुंच जाए तो फिर वहां से निकलना मुश्किल होता है। इस तरह नोट छापना हमारे लिए एक बड़ा नुक्सान साबित हो सकता है…

अर्थव्यवस्था में संतुलन लाने के लिए कई बार मौद्रिक उपाय किए जाते हैं। अधिक नोट छापने को तकनीकी भाषा में ‘क्वॉन्टिटेटिव इज़ींग’ कहते हैं। मोटे तौर पर इसका मतलब है मुद्रा की उपलब्धता को बढ़ाना। दुनिया के कई देशों में इस तरीके को अपनाया गया है। अमरीका का फेडरल रिजर्व बैंक इस तरीके का इस्तेमाल हाल के वर्षों में कामयाबी के साथ कर चुका है, लेकिन वेनेजुएला और जि़म्बॉब्वे जैसे देशों में इसके बहुत ही घातक परिणाम हुए हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए सरकार को नोट छापने के सुझाव दिए जा रहे हैं। भारत में 1997 तक आरबीआई सरकारी घाटे की भरपाई नए करंसी नोट छापकर करता रहा है। हालांकि इस तरह से सरकारी घाटे की भरपाई करने के काफी नुकसान भी होते हैं। इसीलिए 1994 में तत्कालीन वित्त मंत्री और तत्कालीन आरबीआई गवर्नर ने 1997 से इस सुविधा को बंद करने का फैसला किया। लेकिन मौजूदा हालात में अनेक अर्थ शास्त्री कह रहे हैं कि सरकार को वित्तीय घाटे की भरपाई के लिए नए करंसी नोट छपवाने ही होंगे। उनका कहना है कि सरकारी कर्ज के मुद्रीकरण के बिना मांग में इतनी बड़ी वृद्धि का प्रबंधन नहीं किया जा सकता है। लेकिन ऐसे कई कारण हैं, सरकार ने अब तक आरबीआई से नए करंसी नोट छापने के लिए नहीं कहा है। कुछ आर्थिक विशेषज्ञों के मताबिक नोट छाप कर अर्थव्यवस्था में उपलब्ध करना बहुत ही जटिल मुद्दा है।

सरकार को इससे बचना चाहिए। इसके विकल्प के रूप में निश्चित तौर पर संकट के इस दौर में सरकार को कर्ज लेकर ज्यादा से ज्यादा खर्च चाहिए। ये सरकार की एक बड़ी जिम्मेदारी है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1991 में भुगतान संकट और 2013 में नजदीकी वित्तीय संकट वित्तीय लापरवाही का ही परिणाम था। आखिर नए करंसी नोट छापकर प्रसारित करने में सरकारी दिक्कत क्या हो सकती है? इसका जवाब करंसी नोट की छपाई से नहीं, बल्कि इसकी वापसी से जुड़ा है। विशेषज्ञों के मुताबिक सरकार को मांग बढ़ाने के लिए ये सुविधा दी जाती है। लेकिन अगर सरकार जल्द से जल्द इसका भुगतान नहीं कर पाती है तो दूसरे आर्थिक संकट की समस्या खड़ी जाती है। नए करंसी नोट और पुराने नोट एक साथ चलन में आने पर महंगाई आसमान छूने लगती है।

आर्थिक संकट के हालात कैसे बनते हैं, हमें इसे समझना होगा। सरकार नए छापे गए नोटों का इस्तेमाल लोगों की आय और निजी मांग बढ़ाने में करती है। इससे महंगाई बढ़ जाती है। महंगाई में हल्की वृद्धि अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी मानी जा सकती है, लेकिन अगर सरकार इसे समय पर नहीं थाम पाती तो पुरानी और नई करंसी के चलन में आने से बाजार में पैसे की बाढ़ सी आ जाती है। इससे महंगाई आसमान छूने लगती है। जब तक सरकार इस उच्च मुद्रास्फीति यानी महंगाई से निपट पाती है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। सरकार को यह समझने में देरी हो चुकी होती है कि उन्होंने जरूरत से ज्यादा कर्ज ले लिया। उच्च मुद्रास्फीति और बड़ा सरकारी कर्ज इकोनॉमी में अस्थिरता की जमीन तैयार कर देता है। इस समय भारत की अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी परेशानी उसका मांग पक्ष है। इस समय काफी लोगों के पास पैसे नहीं हैं कि वे खर्च करें, यानी कि अर्थव्यवस्था में खरीदने वाले खरीददारी नहीं कर रहे हैं। इस मांग पक्ष को बढ़ाने के कई तरीके हो सकते हैं। जिनके पास रोजगार नहीं है, उन्हें रोजगार दिया जाए। इसके अलावा दूसरी तरीके भी अपनाए जा सकते हैं। लेकिन इन सबके लिए पैसे की जरूरत पड़ेगी। पैसे को लेकर सलाह दी जा रही है कि सरकार को नोट छापना शुरू कर देना चाहिए।

सरकार को नोट छापने का सुझाव इसलिए भी दिया जा रहा है क्योंकि अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं है। पिछले साल कुछ बड़े अर्थशास्त्रियों ने सुझाव दिया था कि गरीब तबके के अकाउंट में सीधे पैसा भेजा जाना चाहिए और इसके लिए सरकार को नए नोट छापने चाहिए। याद रहे कि हर देश की अर्थव्यवस्था डिमांड और सप्लाई के नियम पर चलती है। अगर डिमांड और सप्लाई का संतुलन बिगड़ जाए तो अर्थव्यवस्था में या तो गिरावट आएगी या बेहताशा महंगाई बढ़ जाएगी। अभी देश की अर्थव्यवस्था में ज़रूरत है डिमांड बढ़ाने की, लेकिन इसके साथ ही खूब सारा पैसा छापकर लोगों में बांटने वाली इकनॉमिक्स इतनी सीधी नहीं है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिए एक देश में सिर्फ 5 ही लोग रहते हैं और हर आदमी की सालाना आमदनी 10 रुपए है। यानी 5 लोगों के पास कुल 50 रुपए। इस देश में साल के सिर्फ 5 किलो चावल ही होते हैं जो 10 किलो के भाव से मिलते हैं।

अब मान लीजिए इस देश में ज़्यादा पैसे छापे जाते हैं, तो लोगों की आमदनी 10 रुपए के बजाय 20 रुपए हो जाती है। अब लोगों के पास ज्यादा पैसा आ गया तो वो ज्यादा चावल खरीदना चाहते हैं। लेकिन चावल तो पहले जितना ही है। बस उसकी डिमांड बढ़ गई। इसलिए उसकी कीमत भी बढ़ जाएगी। यानी महंगाई बढ़ जाएगी। ज्यादा पैसा छापने का सबसे बड़ा खतरा महंगाई बढऩा ही है। हमारे पास कई देशों के उदाहरण हैं जहां ज़्यादा पैसे छाप लिए तो महंगाई हज़ारों गुना बढ़ गई। हालिया उदाहरण जिम्बाब्वे और वेनेजुएला के हैं। वहां अर्थव्यवस्था को खराब हालत से निकालने के लिए सरकारों ने मुद्रा छपवाई। बाजार में पैसा बढ़ा तो मांग भी बढ़ी। चीज़ों की कीमतें भी बढऩे लगी। जिम्बाब्वे में तो 2008 में महंगाई की वृद्धि दर करोड़ों में पहुंच गई थी। हालात ये हो गए कि छोटी सी चीज़ खरीदने के लिए भी बोरा भरकर पैसा लाना पड़ता था। ऐसा ही हाल हमने कुछ बरस पहले वेनेजुएला में देखा। इस स्तर तक महंगाई बढऩे को अर्थशास्त्र की शब्दावली में हाइपरइंफ्लेशन कहा जाता है। और किसी देश की अर्थव्यवस्था अगर एक बार हाइपरइंफ्लेशन में पहुंच जाए तो फिर वहां से निकलना मुश्किल होता है। इस तरह नोट छापना हमारे लिए एक बड़ा नुक्सान साबित हो सकता है।

डा. वरिंदर भाटिया

कालेज प्रिंसीपल

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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