ग्रामीण क्षेत्रों का स्वास्थ्य ढांचा मजबूत हो

बहरहाल कोरोना के डेढ़ साल के सफरनामे का पैगाम है कि देश की विशाल आबादी को योग्य विशेषज्ञ डॉक्टर, प्रशिक्षित चिकित्सा स्टाफ, आईसीयू, एंबुलेंस सेवाएं जैसी पर्याप्त सुविधाओं से लैस सरकारी अस्पतालों की जरूरत है। बेशक कोरोना संक्रमण का बढ़ता ग्राफ  गिर रहा है, मगर कोविड पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ है। कोविड रोधी टीकाकरण ही कोरोना से सुरक्षा का विकल्प हो सकता है…

दुनिया भर में मौत का कहर मचाने वाली कोरोना महामारी के आगे विश्व के शक्तिशाली देश भी सरेंडर कर चुके हैं। कोरोना की दूसरी लहर इस विकराल रूप से पलटवार करेगी, शायद इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी, मगर हिमाचल प्रदेश कोरोना की दूसरी लहर से निपटने में भी देश के अन्य राज्यों से बेहतर स्थिति में रहा है। राज्य में कई गांव मिसाल बनकर उभरे हैं जहां कोरोना महामारी का कोई मामला सामने नहीं आया। मगर इस बात में कोई दो राय नहीं कि कोरोना महामारी की दूसरी लहर से उपजे खौफनाक प्रकोप का आकलन करने में देश का नेतृत्व करने वाली तमाम सियासी व्यवस्था व स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी वजारत पर आसीन हुक्मरान व प्रशासन विफल रहे तथा व्यक्तिगत तौर पर आम लोगों के गैर जिम्मेदाराना रवैये से भी यह संक्रमण ज्यादा बेकाबू हुआ। हालात इस कदर बिगड़ चुके हैं कि हरदम कोरोना के साए में रहने वाले चिकित्सा क्षेत्र को खुद के उपचार की जरूरत महसूस हो रही है।

 नदियों में तैरती लाशें, श्मशान घाटों पर शवों की कतारें, अस्पतालों में ऑक्सीजन के लिए जद्दोजहद, मातम के माहौल में सामान्य कपड़ों से ज्यादा कफन की बिक्री जैसे कई कड़वे अनुभव व कभी न भूलने वाले सबक सिखाने वाली तबाही की खौफजदा तस्वीरें सामने आ चुकी हैं, मगर इसके बावजूद यदि देश में डॉक्टर, सुरक्षाकर्मी व प्रशासन लोगों को फेस मास्क पहनने तथा हेल्थ प्रोटोकॉल की अनुपालना के लिए प्रेरित करे या शादी समारोहों व अन्य इजलास में भीड़ जुटाने पर कानूनी कार्रवाई की नौबत आए तो यह लापरवाही का आलम है। कुछ समय पूर्व हमारे देश की अजीम सियासी शख्सियतों ने जय जवान, जय किसान व जय विज्ञान के नारे को पूरी शिद्दत से बुलंद किया था। उनकी दूरदर्शी सोच सही साबित हो रही है। देश की सरहदों व नागरिकों की सुरक्षा का जिम्मा हमारे जवानों के कंधों पर है। विश्व की 18 प्रतिशत जनसंख्या भारत में निवास करती है। मुल्क की इतनी बड़ी आबादी को रोजमर्रा की खाद्य सामग्री की पूर्ति करना व देश में मौजूद दुनिया के सर्वाधिक पशुधन के पालन-पोषण तथा देश की कृषि अर्थव्यवस्था को बचाने की जिम्मेवारी हमारे गांवों के परिश्रमी किसानों पर निर्भर है। मगर शहरों व महानगरों का सुकून छीनकर कोरोना ने ग्रामीण इलाकों में दस्तक देकर आमजन के जहन में दहशत का माहौल पैदा कर दिया है। अब खरीफ की फसलों की बुआई का समय चल रहा है। किसानों को उर्वरक या बीज खरीद के लिए बीज वितरण केंद्रों में कतारों में लगना पड़ता है। ग्रामीण क्षेत्रों का स्वास्थ्य ढांचा इस महामारी से निपटने में सक्षम नहीं है। ऐसे हालात में बढ़ते संक्रमण की चुनौती को रोकने के कारगर प्रयास होने चाहिए अन्यथा खेत खलिहान में वीरानगी छाने से कृषि अर्थ व्यवस्था की स्थिति भी गर्त में जाएगी। चूंकि देश के कृषि अर्थशास्त्र की बुनियाद गांवों पर निर्भर करती है।

 लाजिमी है कृषि अर्थतंत्र का आधार स्तंभ हमारे गांव, देहात व अन्नदाता स्वस्थ तथा सेहतमंद रहें। कोरोना महामारी में तालाबंदी की बंदिशों में भी सुरक्षा बल व किसान तथा चिकित्सक अपने कार्यक्षेत्र में मुस्तैद हैं। युद्धकाल, आपदा या भीषण महामारी के दौर में देश की आबादी को बीमारियों से बचाने में हमारे वैज्ञानिकों व डाक्टरों का किरदार सदैव काबिले तारीफ रहा है। मगर कोरोना मरीजों को जानलेवा महामारी से बचाने में तैनात चिकित्सकों से मारपीट व बदसलूकी की घटनाएं शर्मिंदगी का सबब है। देश में जनसंख्या घनत्व की तुलना में सरकारी अस्पताल व डॉक्टरों की संख्या कम है, लेकिन कोरोना वायरस की इंतेहा में भी हमारे चिकित्साकर्मी व डॉक्टर अपनी क्षमता से अधिक काम करके धैर्य से देश के करोड़ों लोगों के इलाज के लिए जान जोखिम में डालकर दिन-रात सेवारत हैं। हमारे डाक्टरों व वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से ही देश-दुनिया की करोड़ों आबादी को कोविड रोधी वैक्सीन उपलब्ध हुई। कोरोना की दूसरी लहर में संक्रमित मरीजों के इलाज के दौरान 594 डॉक्टर खुद जिंदगी की जंग हार गए। कोविड-19 महामारी के इस भयानक दौर में स्वास्थ्य सेवाओं की बदइंतजामी पर देश की न्यायपालिकाओं ने सरकारों की कार्यप्रणाली पर कई सवाल उठाए, जिसका जवाब किसी भी सियासी दल के पास नहीं था। लेकिन हमारी अदालतों को देश में तेज रफ्तार से हो रहे जनसंख्या विस्फोट जैसे संवेदनशील मुद्दे पर भी संज्ञान लेकर ठोस कदम उठाने चाहिए। वास्तव में तेजी से बढ़ रही आबादी कई समस्याओं का कारण बन रही है। एक ओर कोरोना महामारी लोगों की जान की दुश्मन बनी, साथ ही महंगी स्वास्थ्य सेवाएं तथा ऑक्सीजन की किल्लत ने अस्पतालों की दहलीज से पहले ही कई मरीजों की सांसें रोक दी।

 आवाम कोरोना से लडे़ या सरकारी तंत्र की बेरुखी से निपटे। देश की आबादी का एक बड़ा तबका गुरबत में ही जीवनयापन कर रहा है। निजी अस्पतालों में महंगी स्वास्थ्य सेवाओं के मद्देनज़र करोड़ों लोग वहां इलाज कराने से महरूम रह जाते हैं। नतीजतन लोग आस्था का सहारा लेते हैं या अंधविश्वास की शरण में जाते हैं। इसलिए देश के हुक्मरानों को गुरबत से जूझ रहे लोगों की मानसिक पीड़ा को महसूस करके सरकारी अस्पतालों के बुनियादी ढांचे को मजबूत करके स्वास्थ्य से ताल्लुक रखने वाली उच्च दर्जे की चिकित्सा सेवाओं को प्राथमिक लक्ष्य बनाना होगा। बहरहाल कोरोना के डेढ़ साल के सफरनामे का पैगाम है कि देश की विशाल आबादी को योग्य विशेषज्ञ डॉक्टर, प्रशिक्षित चिकित्सा स्टाफ, आईसीयू, एंबुलेंस सेवाएं जैसी पर्याप्त सुविधाओं से लैस सरकारी अस्पतालों की जरूरत है। बेशक कोरोना संक्रमण का बढ़ता ग्राफ  गिर रहा है, मगर कोविड पूरी तरह नष्ट नहीं हुआ है। लॉकडाउन व कर्फ्यू जैसी बंदिशें कोरोना संक्रमण की चेन तोड़ने में कारगर हैं, मगर पूर्ण समाधान नहीं है। इसलिए कोविड रोधी टीकाकरण ही कोरोना से सुरक्षा का विकल्प हो सकता है। लेकिन 135 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी देश की आबादी को एक साथ वैक्सीन उपलब्ध कराना भी चुनौती है। अतः आमजन को कोरोना हिदायतों का संजीदगी से पालन करके हर हालत में एहतियात बरतनी होगी ताकि कोरोना संक्रमण का दायरा न बढे़।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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