चीड़ वनों को मिश्रित वनों में बदलें

इस समय विपरीत सुधार वानिकी की जरूरत है। यानी जिन वनों और चरागाहों को जबरदस्ती एकल चीड़ रोपणियों में बदला गया है, उन्हें फिर से मिश्रित वनों और स्वस्थ चरागाहों में बदला जाए। हिमाचल प्रदेश में साठ प्रतिशत से अधिक वन भूमि होने के बावजूद चारे का संकट होने से ही पता चल जाता है कि वन प्रबंध स्थानीय आजीविका के लिए नहीं किया गया, बल्कि पशुपालन को वन प्रबंधन के लिए सबसे बड़ा खतरा प्रचारित करके लोगों को पशु संख्या कम करते जाने के लिए प्रेरित किया गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि आज पशु धन बेसहारा होकर सड़कों पर आ गया है। पंजाब से दस-बारह रुपए किलो चारा खरीद कर कैसे पशु पालन लाभदायक हो सकता है। यदि वनों में चारा उत्पादन पर जोर दिया जाए तो पशु पालन को बहुत बड़ा प्रोत्साहन मिल जाएगा। यदि डेढ़ लाख हैक्टेयर में से आधा क्षेत्र भी उत्तम चरागाह और चारे के पेड़ों से भर दिया जाए तो प्रति हैक्टेयर चार से पांच पशुओं के लिए पूर्णकालिक चारा उपलब्ध करवाया जा सकता है…

पिछले डेढ़ सौ वर्षों के व्यापारिक वन प्रबंधन ने स्थानीय आजीविका के लिए जरूरी वन संसाधनों पर भारी कुठाराघात किया है। बहुउद्देश्यीय मिश्रित वनों को एकल प्रजाति के इमारती लकड़ी के खेतों में बदल दिया गया जिससे स्थानीय आजीविकाओं पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ा है। खास तौर पर चरागाह भूमियों को चीड़ और सफेदा वनों में बदलने का काम सुधार वानिकी के नाम पर किया गया। ऊंचे क्षेत्रों में बान और बुरांस के वनों को देवदार और रैई, तोष के वनों में बदला गया। तर्क दिया गया कि वन क्षेत्र का ज्यादा कीमती उत्पादन के लिए प्रयोग करना ही बुद्धिमानी है। किंतु इस बदलाव के कारण पशुपालन, भेड़-बकरी पालन और दस्तकारी के लिए कच्चे माल का अकाल पड़ता गया। जड़ी-बूटी और अन्य गैर इमारती वन उत्पादों के उत्पादन में भारी गिरावट आ गई, क्योंकि एकल प्रजाति का वन रोपण वानस्पतिक विविधता की शत्रु है। और चीड़ सफेदा तो आग को निमंत्रण देने वाली प्रजातियां हैं जिनमें बार-बार आग लगने से जैव विविधता नष्ट हो जाती है। इसका सीधा नुकसान स्थानीय आजीविकाओं पर पड़ता है। हिमाचल प्रदेश में इस समय लगभग साढ़े बारह लाख हैक्टेयर क्षेत्र में वन हैं, जिसमें से डेढ़ लाख हैक्टेयर में केवल चीड़ का कब्जा है। चीड़ का भी स्थानीय हितों के लिए कुछ प्रयोग तो होता है, किंतु उसके लिए सारी चरागाह स्थलों को एकल प्रजाति चीड़ रोपण की भेंट चढ़ाना तार्किक नहीं ठहराया जा सकता। 60 के दशक में चीड़ रोपण का आज़ादी के बाद का सबसे जोरदार दौर रहा।

 और इसमें ज्यादातर चरागाह भूमियों को ही निशाना बनाया गया। चरागाह द्रख्तान और बिला द्रख्तान यानी वृक्ष रहित चरागाह और वृक्ष सहित चरागाह भूमियां ही ज्यादातर चीड़ वनों के प्रसार का शिकार हुईं। रही सही कसर मिश्रित वनों को सुधार वानिकी के नाम पर गर्डलिंग करके सुखा कर उपलब्ध संसाधन में भारी कमी पैदा की गई और उनमें चीड़ सफेदा रोपण कर दिया गया। चीड़ एक ऐसी प्रजाति है जिसकी जड़ें उथली होती हैं। इसकी जड़ों और पत्तियों में तेज़ाब होता है। इसलिए यह एक ओर जहां मिट्टी को खुरखुरा बना देती है और जल संरक्षण या मिट्टी निर्माण में भी कोई भूमिका नहीं  निभा सकती है, दूसरी ओर इसमें बार-बार आग लगने से जैव विविधता का नाश होने के साथ-साथ मिट्टी  की ऊपरी परत के जल जाने से यह तेज़ गति से भूक्षरण का शिकार हो जाती है। यही कारण है कि चीड़ के वनों में हमेशा पथरीली जमीन मिलेगी और बान  के वनों में आपको बढि़या मिट्टी मिलेगी। इस अंतर को समझना जरूरी है ताकि वनों का बहुआयामी उद्देश्य हवा, पानी और मिट्टी संरक्षण-मिट्टी निर्माण भी पूरा हो सके और स्थानीय  समुदायों को आजीविका के साधन भी उपलब्ध होते रहें। इसलिए वनों का स्वरूप कैसा हो, यह प्रश्न सबसे महत्त्वपूर्ण है, जिसे वैज्ञानिक वानिकी कहा गया।

 वह असल में कुछ व्यापारिक प्रजातियों को सघनता से उगाने और फैलाने की प्रतिबद्धता तक ही सीमित रहा है। आज भी इसमें कोई ज्यादा अंतर नहीं आया है। हां कुछ सामाजिक प्रतिरोध स्वरूप मिश्रित प्रजातियों को बढ़ावा मिलने लगा है, किंतु अभी तक भी चीड़ के प्रति मोह बना ही हुआ है। इस समय विपरीत सुधार वानिकी की जरूरत है। यानी जिन वनों और चरागाहों को जबरदस्ती एकल चीड़ रोपणियों में बदला गया है, उन्हें फिर से मिश्रित वनों और स्वस्थ चरागाहों में बदला जाए। हिमाचल प्रदेश में साठ प्रतिशत से अधिक वन भूमि होने के बावजूद चारे का संकट होने से ही पता चल जाता है कि वन प्रबंध स्थानीय आजीविका के लिए नहीं किया गया, बल्कि पशुपालन को वन प्रबंधन के लिए सबसे बड़ा खतरा प्रचारित करके लोगों को पशु संख्या कम करते जाने के लिए प्रेरित किया गया, जिसका नतीजा यह हुआ कि आज पशु धन बेसहारा होकर सड़कों पर आ गया है। पंजाब से दस-बारह रुपए किलो चारा खरीद कर कैसे पशु पालन लाभदायक हो सकता है। यदि वनों में चारा उत्पादन पर जोर दिया जाए तो पशु पालन को बहुत बड़ा प्रोत्साहन मिल जाएगा। यदि डेढ़ लाख हैक्टेयर में से आधा क्षेत्र भी उत्तम चरागाह और चारे के पेड़ों से भर दिया जाए तो प्रति हैक्टेयर कम से कम चार से पांच पशुओं के लिए पूर्णकालिक चारा उपलब्ध करवाया जा सकता है और इसके अलावा दूसरी लाभकारी स्थानीय प्रजातियों को भी मिश्रित रूप से उगाया जा सकता है।

 यदि हम 15 सौ पेड़ प्रति हैक्टेयर के हिसाब से लगाएं तो छह सौ पेड़ चारे के लगाने के बाद नौ सौ पेड़ फल, ईंधन, खाद, रेशा और दवाई देने वाली प्रजातियों के लगा कर आजीविका के विविध साधन खड़ा कर सकते हैं। इसका बड़ा लाभ यह होगा कि समाज स्वावलंबी बनता जाएगा और सरकार पर रोजगार प्रदान करने का दबाव भी कम होता जाएगा। जब जिंदा पेड़ रोजगार प्रदान करेगा तो समाज का लाभ पेड़ों को जिंदा रखने में होगा, काट कर बेचने में नहीं। इससे पर्यावरण संरक्षण का कार्य भी स्वतः ही बेहतर ढंग से निभता जाएगा। जैव विविधता भी बढ़ेगी। वन्य पशुओं को भी फलने-फूलने का ज्यादा अवसर मिलेगा क्योंकि चीड़ सफेदे में तो उन्हें भी खाने को कुछ नहीं मिलता। इस तरह के वन प्रबंधन को सफल बनाने के लिए स्थानीय समुदायों को पूरा गणित समझा कर जोड़ना भी आसान होगा। और इसके लिए हमारे पास वन अधिकार अधिनियम 2006 भी उपलब्ध है, जिसका समुचित उपयोग करके सशक्त सामुदायिक वन प्रबंधन व्यवस्था खड़ी की जा सकती है। सर्वांगीण टिकाऊ विकास की दिशा में बढ़ने के लिए वन प्रबंधन में यह क्रांतिकारी बदलाव लाना बहुत  आवश्यक और सामयिक कार्य सिद्ध हो सकता है। यह दिशा उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और अन्य हिमालयी राज्यों के लिए भी उतनी ही उपयुक्त साबित हो सकती है। अतः बदलाव की जरूरत है।

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान


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