पर्यावरण संरक्षण माह विशेष तक सीमित न रहे

प्रकृति पूजन की प्रथा को धार्मिक व आध्यात्मिक मान्यताओं से जोड़ना पर्यावरण संरक्षण तथा प्राकृतिक संसाधनों के वजूद को बरकरार रखने में हमारे मनीषियों की वैज्ञानिक सोच को दर्शाता है। इसलिए पौधारोपण व संवर्धन जैसे पुनित कार्य किसी विशेष अवसर के अलावा प्रतिदिन स्वेच्छा से होने चाहिए ताकि प्रकृति व पर्यावरण में संतुलन कायम रहे…

हमारे देश में वृक्षारोपण व संरक्षण के प्रति जागरूकता के लिए सन् 1950 से राष्ट्रीय स्तर पर वन महोत्सव मनाने की शुरुआत हुई है। प्रतिवर्ष जुलाई माह के प्रथम सप्ताह में इस महोत्सव का आगाज पौधारोपण के साथ होता है। पिछले डेढ़ वर्ष से मौत का साया बनकर लाखों लोगों की जिंदगी व हसीन सपने छीनने वाली विश्वव्यापी महामारी कोरोना की दूसरी खौफनाक लहर ने प्राणवायु ऑक्सीजन की अहमियत का एहसास पूरी शिद्दत से करवा कर यह तस्दीक कर दिया कि जीवन का आगाज तथा अंत दोनों का नाता ऑक्सीजन से ही जुड़ा है। कोविड की दूसरी लहर में कोरोना संक्रमित मरीजों के लिए अस्पतालों में ऑक्सीजन की किल्लत गंभीर समस्या बनी थी। उस भयंकर माहौल में सांसों के लिए संघर्ष की जद्दोजहद में लोग पल्स ऑक्सीमीटर जैसे उपकरण को कई गुना अधिक दामों पर खरीदने को मजबूर हुए। मगर पेड़ों से लबरेज अमूल्य वन संपदा जीवनदायिनी ऑक्सीजन का निःशुल्क भंडार है।

 शुद्ध वातावरण, वर्षा तथा जैव विविधता का वजूद भी सदाबहार वनों पर निर्भर है और वनों की पहचान व अस्तित्व समृद्ध पेड़ संस्कृति पर निर्भर करता है। भूमंडल में बढ़ते तापमान, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, बाढ़ तथा भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाओं से बचाव की क्षमता भी पेड़ व वन संपदा में ही है। ज्ञात रहे कि भारतीय संस्कृति अनादिकाल से ही प्रकृति संरक्षण की हितैषी व प्रबल समर्थक रही है। हमारे महान मनीषियों ने प्रकृति, जल व वायु को देवत्व की संज्ञा प्रदान की है। कोरोना काल में अस्पतालों में आक्सीजन के संकट ने लोगों को स्मरण करा दिया कि सनातन संस्कृति में ‘वायुदेव’ तथा ‘वनस्पति देव’ के पूजन की अनवरत परपंरा वास्तव में महान है। हमारे धार्मिक ग्रंथों में ‘दस विश्वदेवों’ में वनस्पति देव को प्रकृति का रक्षक माना गया है। आधुनिक विज्ञान इस बात की पुष्टि कर चुका है कि सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने वाला पीपल का वृक्ष ऑक्सीजन का सबसे बड़ा स्रोत है, मगर सनातन संस्कृति में पीपल को मुकद्दस मानकर प्राचीन से ‘देववृक्ष’ के रूप में पूजा की जाती है। कई धार्मिक अनुष्ठानों में पीपल को जल अर्पण करना तथा विवाह संस्कारों में पीपल परिक्रमा की रस्मों का प्रचलन आज भी कायम है। वर्तमान में हमारी सियासी व्यवस्था व निर्माण कार्यों में भूमिका निभा रहे सरकारी विभागों के अहलकार विकास कार्यों में आधुनिक तकनीक के दावे जरूर करते हैं, मगर हमारे पुरखों ने सदियों पूर्व सड़कें, मशीनीकरण, बिजली जैसी आधुनिक सुविधाओं के अभाव के बावजूद प्रकृति व पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना हजारों फीट ऊंचे पहाड़ों पर कई धार्मिक स्थलों का निर्माण कर दिया था। पीपल व वट वृक्षों के साए में उत्तम तकनीक व उत्कृष्ट वास्तुकला से सुसज्जित यही धार्मिक स्थल वर्तमान में देश-विदेश के श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र तथा धार्मिक पर्यटन उद्योग के तौर पर लोगों के रोजगार का साधन भी हैं। मगर मौजूदा दौर में कई मनीषियों के आध्यात्मिक ज्ञान व साधना का केंद्र तथा अरण्य संस्कृति को पुष्पित करने वाले वन जंगल माफिया, अनियंत्रित विकास कार्यों तथा आगजनी की बढ़ती घटनाओं की वजह से सिमट रहे हैं।

 विकास के नाम पर दशकों पुराने पेड़ों को चंद पलों में काट दिया जाता है। इन मसलों पर देश की अदालतों व एनजीटी को दखल देना पड़ता है। देश में जिस रफ्तार से जनसंख्या विस्फोट तथा सड़कों पर वाहनों की संख्या में इजाफा हो रहा है, प्राकृतिक संसाधनों का उसी गति से विनाश हो रहा है। देश में वनों व पेड़ों के संरक्षण के लिए कई आंदोलन भी हुए। पेड़ों के संरक्षण को लेकर मार्च 1973 में उत्तराखंड के चमोली जिले के रेणी गांव से ‘चिपको आंदोलन’ का आगाज हुआ था। उस चर्चित चिपको आंदोलन से संज्ञान लेकर तत्कालीन केंद्र सरकार ने वनों के विकास के लिए वन संरक्षण अधिनियम 1980 बनाया था तथा हिमालयी क्षेत्रों में 15 वर्षों तक वनों के कटान पर पूर्णतः रोक लगाई थी। राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार देश के 33 फीसदी भूभाग पर वन आवरण होना चाहिए जो कि 25 ंप्रतिशत से कम है। मगर हिमालय के आंचल में बसे राज्यों के लिए वन आवरण का पैमाना मैदानी राज्यों की अपेक्षा अधिक निर्धारित किया गया है। हालांकि 47 प्रतिशत वन हिमालयी क्षेत्रों में मौजूद हैं। कई किस्मों के पेड़ों व औषधीय पौधों का संरक्षक हिमालय कई प्रजातियों के वन्य जीवों व पशु-पक्षियों की सुरक्षित शरणस्थली भी है। हिमाचल प्रदेश भी इसी विशाल हिमालयी पर्वतीय श्रेणी का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। हिमाचल में वन क्षेत्र का हरित आवरण 27.72 फीसदी है। आगामी वर्षों में इसे बढ़ाने के प्रयास जारी हैं।

 हिमाचल प्रदेश में वृक्षारोपण प्रक्रिया के प्रोत्साहन के लिए ‘विद्यार्थी वन मित्र योजना’ तथा ‘वन समृद्धि जन समृद्धि’ जैसी कई योजनाएं आरंभ की गई हैं। मगर अक्सर देखा गया है कि वन महोत्सव व पर्यावरण दिवस तथा कई महापुरुषों की स्मृति में लगाए गए हजारों पौधों को सहेजना एक चुनौती बन जाता है। यदि पौधारोपण में अपनी भागीदारी दर्ज कराने वाले तमाम सरकारी इदारे, स्कूल, कॉलेज, ब्लॉक व पंचायतें अपने कार्यक्षेत्र में पौधों को सहेजने की जिम्मेवारी भी सुनिश्चित करें तो धरातल पर वृक्षारोपण के सकारात्मक परिणाम निकल सकते हैं। पौधारोपण व संरक्षण मुहिम को सफल बनाने में वन मंत्रालय, वन विभाग व पंचायतें ‘मनरेगा’ जैसी योजना की बेहतर सेवाएं ले सकते हैं। बहरहाल हमारी पौराणिक मान्यताओं में पर्यावरण संरक्षण के सूत्र विद्यमान हैं। यहां प्राचीन से प्रकृति वंदनीय रही है। अतः करोड़ों आबादी के लिए ऑक्सीजन के उत्पादक पेड़ व वनों को बचाने के लिए आंदोलन या कानूनी मसौदे की जरूरत नहीं होनी चाहिए। भारत का वैदिक साहित्य, पुराण, शास्त्र आदि प्रकृति संरक्षण का ही संदेश देते हैं। प्रकृति पूजन की प्रथा को धार्मिक व आध्यात्मिक मान्यताओं से जोड़ना पर्यावरण संरक्षण तथा प्राकृतिक संसाधनों के वजूद को बरकरार रखने में हमारे मनीषियों की वैज्ञानिक सोच को दर्शाता है। इसलिए पौधारोपण व संवर्धन जैसे पुनित कार्य किसी विशेष अवसर के अलावा प्रतिदिन स्वेच्छा से होने चाहिए ताकि प्रकृति व पर्यावरण में संतुलन कायम रहे।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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