भारतीय चिकित्सा पद्धति का गौरवशाली इतिहास

ऐसा नहीं है कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश भारत में प्रतिभाओं की कमी है या उच्च शिक्षण संस्थानों व मेडिकल कालेजों की दरकार है, लेकिन शिक्षा तंत्र व स्वास्थ्य सेवाओं पर निजी क्षेत्र का कब्जा होने से दोनों क्षेत्रों का व्यवसाय बेहद महंगा साबित हो रहा है। आम लोग दोनों क्षेत्रों की सेवाएं लेने में असमर्थ हैं। भारत के चिकित्सकीय ज्ञान को पहचान दिलाने की पैरवी होनी चाहिए…

विश्व भर में मौत का कहर मचाने वाली कोविड-19 महामारी के भयंकर व डरावने माहौल में कोरोना संक्रमण के चक्रव्यूह में अपनी जान की परवाह किए बगैर बेखौफ होकर घुसने का साहस यदि किसी ने किया तो वे अग्रदूत हमारे डॉक्टर हैं। कोरोना से उपजी लॉकडाउन जैसी बंदिशों में भी चिकित्साकर्मी कोरोना संक्रमित मरीजों के इलाज में मुस्तैद थे। मातम का माहौल पैदा करने वाले कोरोना पर डॉक्टरों की ही कारगर रणनीति व प्रयासों से नियंत्रण हुआ है। हमारे देश में सन् 1991 से एक जुलाई का दिन हरदम मरीजों की सेवा में समर्पण का किरदार अदा करने वाले डॉक्टरों को समर्पित है। यह दिवस डा. विधान चंद्र रॉय के जन्मदिन व पुण्यतिथि दोनों के तौर पर मनाया जाता है। उन्हीं के सम्मान में देश में सन् 1976 से डा. वीसी रॉय राष्ट्रीय पुरस्कार की शुरुआत भी हुई है। बेशक आज के आधुनिक दौर में कई बीमारियों का पता लगाने वाले उपकरण व आधुनिक मशीनों का आविष्कार हो चुका है। कई बीमारियों से निजात दिलाने वाली दवाइयां मेडिकल स्टोरों में उपलब्ध हैं। लेकिन चिकित्सा क्षेत्र में भारत का गौरवशाली इतिहास सृष्टि के शुरुआत से ही चला आ रहा है। हमारे पौराणिक साहित्य में देवताओं के चिकित्सक ‘अश्विनी कुमारों’ का पर्याप्त जिक्र है।

 धार्मिक ग्रंथों में ‘महर्षि शुक्राचार्य’, ‘सुषेण वैद्य’ तथा ‘हर्षमित्र’ (दुर्योधन के राजवैद्य) जैसे संजीवनी बूटी के पारंगत महान चिकित्सकों का व्यापक वर्णन हुआ है जो मृत शरीर को पुनः स्वस्थ करने में सक्षम थे। सदियों से भारत में आयुर्वेद तथा शल्य चिकित्सा पद्धति का समृद्ध इतिहास रहा है। भारत के लिए गौरव का विषय है कि ऑस्टे्रलिया में मेलबॉर्न के ‘रॉयल कॉलेज ऑफ सर्जन’ तथा अमरीका में कोलंबिया इरविंग मेडिकल सेंटर में भारतीय महर्षि सुश्रुत की प्रतिमा लगाई गई है। उन कॉलेजों में डॉक्टरी की पढ़ाई करने वाले कई देशों के छात्रों को बताया जाता है कि महर्षि सुश्रुत ‘फादर ऑफ  सर्जरी’ थे। कई देश स्वीकार कर चुके हैं कि प्लास्टिक सर्जरी की शुरुआत हजारों वर्ष पूर्व भारत में हुई थी। सर्जरी के पितामह व शिक्षक महर्षि सुश्रुत द्वारा शल्य चिकित्सा पर संस्कृत भाषा में रचित सबसे प्राचीनतम ग्रंथ ‘सुश्रुत संहिता’ का अरबी भाषा की ‘किताब-ए-सुसुद्र’ नामक पुस्तक के रूप में अनुवाद हो चुका है। सुश्रुत ही वह महान ऋषि थे जिन्होंने प्रत्येक वनस्पति में औषधीय गुण होने का खुलासा किया था। अपनी श्रेष्ठता को साबित कर चुका कई सिंद्धातों पर आधारित चिकित्सा विज्ञान आयुर्वेद हमारे मनीषियों द्वारा विश्व के लिए अमूल्य उपहार है। कई देश आयुर्वेद में वर्णित औषधियों पर शोध करके इस चिकित्सा पद्धति को उत्तम मानकर अपना रहे हैं। इस आयुर्वेद के विशारद महर्षि ‘चरक’ भारतीय औषधि विज्ञान के मूल प्रवर्त्तक थे। आयुर्वेद का अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ‘चरक संहिता’ महर्षि चरक की रचना है। इसीलिए उन्हें ‘फादर ऑफ  इंडियन मेडिसिन’ भी कहा जाता है। अश्व चिकित्सा पर विश्व की प्रथम पुस्तक ‘शालिहोत्र संहिता’ के रचयिता आचार्य शालिहोत्र थे। भारत में सदियों पूर्व तक्षशिला, नालंदा व विक्रमशिला जैसे विश्वविख्यात विश्वविद्यालयों में चिकित्सा अध्ययन की उत्तम व्यवस्था थी। विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय ‘तक्षशिला’ चिकित्सा शास्त्र का सर्वोपरि केंद्र रहा था।

इसी तक्षशिला विश्वविद्यालय से उच्चकोटी के आयुर्वेदाचार्य, बालरोग विशेषज्ञ तथा शल्यविद ‘जीवक कौमारभच्च’ ने चिकित्सा शास्त्र का सफलतापूर्वक अध्ययन करके स्नातक की उपाधि हासिल की थी। जीवन की मूलभूत सुविधाओं के साथ शिक्षा देश के युवावेग के भविष्य की बुनियाद तथा स्वास्थ्य सबसे बड़ी दौलत है। भारत अतीत से शिक्षा के साथ चिकित्सा क्षेत्र में भी आत्मनिर्भर था, मगर वर्तमान में हमारा देश ‘विश्व हेल्थकेयर इंडेक्स’ में पिछड़ रहा है। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के तय मानक नियमों तथा विशाल आबादी के मद्देनजर देश चिकित्सकों की भारी कमी से जूझ रहा है। ऐसा नहीं है कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश भारत में प्रतिभाओं की कमी है या उच्च शिक्षण संस्थानों व मेडिकल कालेजों की दरकार है, लेकिन शिक्षा तंत्र व स्वास्थ्य सेवाओं पर निजी क्षेत्र का कब्जा होने से दोनों क्षेत्रों का व्यवसाय बेहद महंगा साबित हो रहा है। आम लोग दोनों क्षेत्रों की सेवाएं लेने में असमर्थ हैं। जब अभिभावकों को प्राइवेट स्कूलों की बढ़ती फीस से परेशान होकर शासन से फरियाद लगानी पडे़ या प्रशासन को ज्ञापन सौंपने पड़ें तो डॉक्टरी की करोड़ों रुपए की महंगी शिक्षा आम लोगों के बच्चों के लिए महज ख्वाब बनकर रह जाएगी। इसलिए सरकारी स्कूलों व सरकारी अस्पतालों की दयनीय स्थिति तथा तमाम सरकारी इदारों के बुनियादी ढांचे को दुरुस्त करने की सख्त जरूरत है। देश की उभरती प्रतिभाओं के भविष्य को कुचलने वाली व्यवस्था व समाज को विकलांग बनाने वाली नीतियों पर जोरदार सियासी रायशुमारी होनी चाहिए।

 मुफ्तखोरी की योजनाएं, आरक्षण, जातिवाद तथा कई धार्मिक मुद्दे सियासी जमातों के लिए वोट बैंक का आधार व मजबूरी बन चुके हैं। लेकिन कोरोना जैसे घातक संक्रामक रोग से निपटने के लिए चिकित्सा क्षेत्र में विशेषज्ञ चिक्तिसक व गुणवत्तायुक्त विश्वस्तरीय स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत है। अतः समय की मांग है कि मुफ्तखोरी व आरक्षण की बैसाखियों को हटाकर प्रतिभाओं की योग्यता को प्राथमिकता देकर उचित मंच प्रदान किया जाए, ताकि देश को योग्य विशेषज्ञ चिक्तिसक व अफसरशाही उपलब्ध हो। बहरहाल महर्षि सुश्रुत, चरक, पतंजलि, जीवक, च्यवन, धनवंतरी, अग्निवेश तथा शालिहोत्र जैसे महान आचार्यों ने अपने तपोबल, ज्ञान व शोध के अथक प्रयासों से भारतीय चिकित्सा व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण व प्रभावी योगदान दिया था। अंग्रेज हुकूमत की पाश्चात्य मानसिकता ने हमारे जिस चिकित्सा ज्ञान को उपेक्षित किया था, आज वही देश आयुर्वेद व भारतीय संस्कारों की महानता को समझ कर अपनी जीवनशैली में अपना रहे हैं। लाजिमी है कि पुरातन से भारतभूमि का गौरव अपने पुरखे ऋषि मुनियों के चिकित्सकीय ज्ञान की परंपरा व विरासत को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने की पैरवी होनी चाहिए।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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