मीना कुमारी : अदाकारा से शायरा तक

इस शायरा ने अपनी एक गज़ल में लिखा है : ‘आगाज तो होता है, अंजाम नहीं होता। जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता।’ कई बार ऐसा लगता है जैसे मीना कुमारी ने ये शेर अपने और मशहूर शायर और गीतकार गुलज़ार के रिश्ते के बारे में कहा हो क्योंकि खुद उनकी जिंदगी की दास्तान गुलजार साहब के जि़क्र के बगैर अधूरी है। पल-पल पांव के नीचे से रेत की तरह फिसलते उनके जीवन में अगर कुछ स्थायी था, तो वो था उनका गुलज़ार साहब से रिश्ता जिसे कोई नाम देना मुमकिन नहीं है। गुलज़ार साहब ने अगर इस रिश्ते को बिना कोई नाम दिए किसी को छू लिया था, तो वो थी मीना कुमारी के अंदर छुपी शायरा जिसकी उन्होंने उतनी ही कद्र की जितनी उनके साथ अपनी दोस्ती की…

आने वाले एक अगस्त को साहिब बीवी और गुलाम, परिणीता, बैजू बावरा, दिल अपना और प्रीत पराई, काजल, दिल एक मंदिर और पाकीज़ा जैसी लगभग 92 फिल्मों में अपनी शानदार अदाकारी से ट्रेजडी क्वीन का खिताब अपने नाम करने वाली उस महान अदाकारा मीना कुमारी की जयंती है जिसने लोगों के दिलों पर तो राज किया ही, साथ ही चार बार बेहतरीन अदाकारी का फिल्म फेयर ईनाम हासिल करते हुए मात्र 38 साल की उम्र में 31 मार्च, 1972 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। इस छोटी सी उम्र में एक बार तो ऐसा मौका भी आया जब इस ईनाम के लिए नामित तीनों फिल्मों की हिरोइन वो ही थीं। परिवार के आर्थिक हालात ऐसे थे कि उनके पैदा होते ही उन्हें अनाथालय छोड़ दिया गया। कुछ घंटे बाद पिता का मन बदला और वो उस नन्ही सी बच्ची को घर ले आए। अभिनय इस बच्ची को विरासत में मिला था क्योंकि मां-बाप किसी न किसी तरह रंगमंच से जुड़े थे। इस बच्ची महजबीं बानो ने परिवार का सहारा बनने के लिए अपना फिल्मी सफर चार साल की उम्र में ही शुरू कर दिया था और इसके साथ ही शुरू हो गई थी बाद में उसके मीना कुमारी बनने की वो दास्तान जिसके पन्ने दर पन्ने अथाह ख्याति, लोकप्रियता और कामयाबी से भरे पड़े थे, पर जिसकी पटकथा दर्द, तन्हाई और अकेलेपन के इर्द-गिर्द बुनी गई थी। तभी तो इन सबसे परेशान उनकी कलम पूछ बैठी थी ः ‘जिंदगी क्या इसी को कहते हैं, जिस्म तन्हा है और जां तन्हा।’ बहुत कम लोग जानते हैं कि मीना कुमारी एक बेहतरीन अदाकारा होने के साथ-साथ एक अच्छी शायरा भी थीं। उनकी इस काबलियत की कद्र खुद उनके शौहर कमाल अमरोही, जो शायरी की बारीकियां समझने का हुनर रखते थे, ने कभी नहीं की। वो बतौर शायरा हमेशा मीना कुमारी के फन को कम आंकते थे। मीना कुमारी की जिंदगी में वो ऐसे शख्स थे जिन्हें वो बेपनाह मोहब्बत करती थीं। आहिस्ता-आहिस्ता पति-पत्नी का रिश्ता कड़वाहटों का शिकार हो गया और आखिरकार दोनों अलग हो गए। इस शादी से मां-बाप वैसे ही खुश नहीं थे क्योंकि उनके लिए बेटी परिवार की रोजी-रोटी का जरिया थी। परिवार को तो उन्होंने दुखों से उधार दिया पर खुद इनमें डूब गई थीं। शादी चुपचाप की थी और यहां भी तन्हाई ही उनका नसीब बनी। गुरू दत की मशहूर फिल्म साहिब बीवी और गुलाम में एक तन्हा बीवी के किरदार को निभाते हुए शराब पीकर अपने पति को रिझाने के लिए ‘न जाओ सैयां छुड़ा के धैयां, कसम तुम्हारी, मैं रो पडं़ूगी’ गीत गाने वाली इस महान कलाकारा ने इस फिल्म में निभाए अपने ‘छोटी बहू’ के किरदार को अपने जीवन में भी पूरी तरह जीना शुरू कर दिया और शराब इसका ऐसा हिस्सा बन गई जो उन्हें लीवर सिरोसिस देकर अंततः उनकी मौत का कारण बनी। ये तन्हाई कभी उनसे उनकी जिंदगी के बारे में यह लिखवाती थी:‘टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली। जिसका जितना आंचल था, उतनी ही सौगात मिली।’ तो कभी ये तन्हाई उनको ये कहने पर मजबूर कर देती थी: ‘हंस-हंस के जवां दिल के हम क्यों न चुने टुकड़े, हर शख्स की किस्मत में ईनाम नहीं होता।’ इस शायरा ने अपनी एक गज़ल में लिखा है: ‘आगाज तो होता है, अंजाम नहीं होता। जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता।’ कई बार ऐसा लगता है जैसे मीना कुमारी ने ये शेर अपने और मशहूर शायर और गीतकार गुलज़ार के रिश्ते के बारे में कहा हो क्योंकि खुद उनकी जिंदगी की दास्तान गुलजार साहब के जि़क्र के बगैर अधूरी है। पल-पल पांव के नीचे से रेत की तरह फिसलते उनके जीवन में अगर कुछ स्थायी था, तो वो था उनका गुलज़ार साहब से रिश्ता जिसे कोई नाम देना मुमकिन नहीं है। गुलज़ार साहब ने अगर इस रिश्ते को बिना कोई नाम दिए किसी को छू लिया था, तो वो थी मीना कुमारी के अंदर छुपी शायरा जिसकी उन्होंने उतनी ही कद्र की जितनी उनके साथ अपनी दोस्ती की। तभी तो मौत से पहले मीना कुमारी ने अपनी निजी डायरियां, जो उनकी नज़र में उनकी सबसे बड़ी दौलत थीं, गुलज़ार साहब को सौंप दी थीं जिनमें से कुछ ग़ज़लों और नज्मों को उन्होंने बाद में ‘मीना कुमारी की शायरी’ नामक किताब के रूप में छपवाया था। मीना कुमारी की रूह पर अगर किसी को इख्तियार था तो वो गुलज़ार साहब को था क्योंकि वो इसके अहसास, इसके दर्द को न केवल समझते थे पर खुद इसे जीते भी थे। इसीलिए तो जब एक बार बीमार होने के कारण मीना कुमारी को रोजे न रख पाने का अफसोस था, तो गुलज़ार साहब ने एक सच्चे दोस्त की तरह खुद अपनी पेशकश पर मीना कुमारी की तरफ से सारे रोजे रखे। हर रोज़ इफ्तार के समय वो मीना कुमारी के घर जाते थे और उनके सामने रोजा खोलते थे।

गुलज़ार साहब किस हद तक मीना कुमारी और उनके अंदर छुपी शायरा को समझते थे, खुद उन्हीं के ये लफ्ज़ बयान करते हैं: ‘शहतूत की शाख पे बैठी मीना, बुनती है रेशम के धागे लम्हा-लम्हा खोल रही है, पत्ता पत्ता बीन रही है, एक एक सांस बजाकर सुनती है सौदायन, एक एक सांस को खोल के अपने तन पर लिपटाती जाती है, अपने ही तागों की कैदी, रेशम की ये शायर इक दिन अपने ही तागों में घुट कर मर जाएगी।’ खुद अपने बुने तन्हाई के रेशमी धागों में घुट कर इस शायरा ने एक दिन दम तोड़ दिया, पर ये लिख गईं: ‘राह देखा करेगा सदियों तक, छोड़ जाएंगे ये जहां तन्हा।’ और ये जहान खुद उनके ही लफ्जों में ये कहता रह गया:‘न हाथ थाम सके, न पकड़ सके दामन। बड़े करीब से उठकर चला गया कोई।’

विकास लाबरू

आईएएस अधिकारी


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App