किन्नौरी संस्कृति के संरक्षण में लेखकों की भूमिका

By: Jul 4th, 2021 12:06 am

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी 37वीं किस्त…

सपना नेगी

मो.-9354258143

किन्नौर की पुरातन संस्कृति को संजोए रखने में यहां के ग्राम देवताओं की अहम भूमिका रही है। अगर यहां के ग्राम देवताओं द्वारा नियम-कानून बनाकर पुरातन परंपराओं को सुचारू रूप से नहीं चलाया गया होता, तो यहां से अनेक मान्यताएं और परंपराएं लुप्त हो चुकी होतीं। साथ ही यहां के लेखकों ने भी अपनी पुरातन संस्कृति के बारे में लिखकर हमें उन परंपराओं से रूबरू कराया जो आज किन्नौर के कई हिस्सों में कब की दफन हो चुकी हैं। दो दशक पहले जो परंपराएं चलन में थीं, उनमें से कई अब लुप्त होने के कगार पर हैं या फिर कुछ लुप्त भी हो चुकी हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो आगे न जाने कितनी और परंपराएं आधुनिकता के प्रवाह  में बह जाएंगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। एक ओर विदेशियों तक हमारी संस्कृति को जानने की चाह में इस ओर ध्यान देकर काम कर रहे हैं और दूसरी तरफ किन्नौरवासी बाहरी चकाचौंध के चलते अपनी ही पुरानी परंपराओं से मुंह मोड़ते जा रहे हैं।

यदि यहां के लेखकों द्वारा प्राचीन परंपराओं का जिक्र अपनी पुस्तकों में न किया गया होता तो युवा पीढ़ी अपनी पुरातन परंपराओं को जानने का ढंग ही समझ नहीं पाती। किन्नौरी साहित्य और ज्ञान संपदा की शीर्ष विभूति प्रो. विद्यासागर नेगी जी ने किन्नौरी समाज का गहन अध्ययन किया है और यहां के जनजीवन के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पक्ष का विस्तृत उल्लेख अपनी पुस्तकों में किया है। ‘पश्चिमोत्तर हिमालय के आरण्यक-भेड़पालक ःकिन्नौर के संदर्भ में’ (सामाजिक-सांस्कृतिक अध्ययन), उनके द्वारा लिखित यह पुस्तक किन्नौर के अतीत में भेड़पालकों के जीवन को सही मायने में समझने में आधार स्तंभ का काम करती है। विवेचित पुस्तक में किन्नौर के आरण्यक  भेड़पालकों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व के साथ उनसे जुड़ी लोक मान्यताओं, लोक गीतों तथा परंपराओं को भी वर्णित किया गया है। वर्तमान समय में आधुनिक सुविधाओं की मौजूदगी एवं शिक्षा के विस्तार के कारण यहां की नई पीढ़ी अपने पूर्वजों के इस व्यवसाय से जुड़ना पसंद नहीं करती है। भेड़पालकों से संबंधित बहुत सी मान्यताएं एवं परंपराएं गुजरे जमाने की बीती बातें होकर रह गई हैं। उनके द्वारा रचित अन्य पुस्तक ‘पश्चिमी संस्कार एवं कृषि संस्कृति किन्नौर के आलोक में’ जन्म, विवाह एवं मृत्यु, इन तीनों संस्कारों के  परंपरागत रूप से पाठकों एवं यहां की युवा पीढ़ी को परिचित कराकर हमें उस जमीनी हकीकत से रूबरू कराती है, जो नवीनता की आड़ में कहीं अपने अंतिम चरण में है, तो कहीं प्राचीन परंपरा एवं पश्चिमी जीवन शैली का मिश्रित रूप इसमें आ गया है। उदाहरण के लिए लेखक द्वारा इस पुस्तक में तालंड़् (चाबी का गुच्छा) देने की परंपरा का जिक्र किया गया है, जिसके अंतर्गत माता-पिता अपने बहू-बेटे को घर-परिवार की जिम्मेदारी का प्रतीक कोठार (भंडार गृह) की चाबी सौंपते हैं।

इसके बाद माता-पिता अपने घर-परिवार एवं समाज की सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं और अब यह जिम्मेदारी बेटे और बहू पर आ जाती  है। वर्तमान में ‘तालंड़् देने’ की यह परंपरा ऊपरी किन्नौर के कुछ हिस्सों में तो अब भी प्रचलित है, लेकिन निचले किन्नौर के हिस्सों में कुछेक परिवारों को छोड़ दिया जाए तो बाकी सब जगह दो पीढ़ी पहले ही यह परंपरा लगभग दम तोड़ चुकी है। ‘आसरङ् ः एक अत्यंत हिमालयी गांव (जनजीवन एवं संस्कृति)’ पुस्तक के अंतर्गत किन्नौरी साहित्य और संस्कृति के विश्वकोश श्री विद्यासागर नेगी जी द्वारा अपनी जन्मभूमि आसरङ् गांव की दास्तान पर प्रकाश डाला गया है। अन्य शब्दों में यूं भी कहा जा सकता है, इसकी मिट्टी में पले-बढ़े बेटे द्वारा लिखी गई यह प्रसिद्ध किन्नौरी गांव की कहानी है। अपने गांव के हर पक्ष को बहुत ही बारीकी से चित्रित करते हुए लेखक ने उन परंपराओं को बखूबी से उकेरा है, जो उस क्षेत्र में चलन में तो हैं, पर धीरे-धीरे उनमें क्षरण होने के लक्षण दिखने लगे हैं। इसी प्रकार का कार्य किन्नौरी साहित्य के धूमकेतु श्री देविंदर सिंह गोलदार नेगी जी ने ‘किन्नौर आदिवासिक संस्कृति के आर्थिक आधार’ पुस्तक में किया है। उन्होंने किन्नौरी समाज के अतीत की संस्कृति, अर्थव्यवस्था तथा जनजीवन का पूरा ब्यौरा ही सामने रख दिया है। लेखक द्वारा इस पुस्तक में जिन परंपरागत फसलों का उल्लेख किया गया है, उनमें से कई फसलें तो अब देखने को भी नसीब नहीं होती और न ही नई पीढ़ी इन फसलों से परिचित है। अर्थव्यवस्था के पुराने ढंग का यहां के लोग लगभग परित्याग कर चुके हैं और उसका स्थान अब उद्यान कृषि ने ले लिया है।

लेखक द्वारा इस पुस्तक में जिन उत्सवों, त्योहारों का उल्लेख किया गया हैं, उनमें से भी कुछ तो आधुनिकता की आंधी में लुप्त हो चुके हैं। जो चलन में हैं, उनमें भी पहले का वह रूप देखने को नहीं मिलता। उदाहरण के लिए लेखक ने फागुली पर्व के अवसर पर प्रगामड़् क्षेत्र में बजंतरी द्वारा जमींदारों के घरों में जाकर अपने संगीतवादन कार्य के एवज़ में विभिन्न देय पदार्थ प्राप्त करने का उल्लेख किया है। बजंतरी किन्नौरी समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। ये उत्सवों के अवसरों एवं अनुष्ठानों पर ग्राम देवता के समक्ष संगीतवादन के साथ ही वहां के समाज के जीवनपथ संस्कारों, अनुष्ठानों के समय में वाद्ययंत्र बजाने का कार्य भी करते हैं। नेगी जी के अनुसार बदलते समय के साथ यह परंपरा भी अब क्षरण की स्थिति में है। इस प्रकार इन दो विद्वानों के ये ग्रंथ भविष्य की पीढि़यों के लिए किन्नौर के अतीत की कुछ स्वर्णिम रेखाओं को संजोने का कार्य करते हैं। किन्नौरी समाज इनके इस ऋण को कभी भूल नहीं पाएगा।

विमर्श के बिंदु

अतिथि संपादक : डा. गौतम शर्मा व्यथित

मो.- 9418130860

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -37

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

हिमाचली लोक गाथाओं का संकलन, प्रकाशन और अध्ययन

प्रकाश चंद्र धीमान

मो.-9418040334

हिमाचल प्रदेश का समग्र लोकसाहित्य ही यहां की संस्कृति और इतिहास की अमूल्य धरोहर है तथा यहां की लोक गाथाएं बहुमूल्य विरासत होने के साथ-साथ यहां के लोगों के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक एवं भौगोलिक जन-जीवन की परिचायक ही नहीं, अटूट अंग भी हैं। ‘पर्वतों की गूंज’ पुस्तक में डा. हरिराम  जस्टा ने ‘लोक गाथा’ शब्द को परिभाषित करते हुए लिखा है, ‘लोक गाथा, लोकसाहित्य की वह विधा है जिसमें किसी चरित्र नायक की संपूर्ण जीवन-कथा स्वाभाविक रूप से वर्णित हो, जिसमें लोक मानसी प्रवृत्तियां हों और जनरुचि का ध्यान रखा गया हो और साथ ही जिसमें गेयता हो।’ उन्होंने अनगढ़पन, सामूहिक भावभूमि, मौखिक परंपरा एवं लिपिबद्ध  रूप, संगीतात्मकता, अज्ञात रचयिता, संदिग्ध ऐतिहासिकता, सुदीर्घ कथानक और अनेक रूपात्मकता, प्रचलित जनभाषा का प्रयोग, व्यक्तित्व की छाप का प्रभाव तथा उपदेशात्मक प्रवृत्ति का अभाव इत्यादि उपशीर्षकों के अंतर्गत लोक गाथाओं की विशेषताओं का जिक्र किया है तथा लोक या पंडायण रामायण, लोक महाभारत, बरलाज, ऐंचली, भर्तृहरि व  शिव-पार्वती आदि गाथाओं का उल्लेख उदाहरण रूप में किया है।

 क्षेत्र एवं बोली विशेष तक सीमित रही गाथाओं में इन्होंने महासुई क्षेत्र में महासू, महिमा, रणसी वीर, सती चैरवी, वीर शिरकुल, बिलासपुर में गंभरी व मोहणा, किन्नौर में जुमाल वीर और कांगड़ा में रामसिंह पठानियां इत्यादि गाथाओं का उल्लेख किया है। ‘हिमाचली लोक गाथाएं ः एक सिंहावलोकन’ शीर्षक के अंतर्गत  इन्होंने परंपरागत लोक गाथाओं को पौराणिक  (रामायण, महाभारत, शिव-पार्वती, श्रीमद्भागवत की कथाएं), धार्मिक लोकगाथाएं (देवी-देवताओं, सिद्धों, वीरों की लोकगाथाएं), वीर गाथाएं, गुगे दी बार (बिलासपुर, मंडी और कांगड़ा में प्रसिद्ध), कांगड़ा में रामसिंह पठानियां का वीर गान, श्रृंगारिक लोक कथाएं (किन्नौर की लोक गाथा जाउनेपति, रुपणु पुहाल, गंगी-सुंदर, कुंजू-चंचलों, रांझू-फुलमू की हीर रांझा, सस्सी-पुन्नू की-सी टीस है), सतीत्व या बलिदान से संबंधित गाथाएं इत्यादि पांच श्रेणियों  में विभक्त किया है। हिमाचल की लोक गाथाओं को पुस्तकाकार के रूप में समेटने का कार्य प्रसिद्ध लेखक रामदयाल नीरज ने किया है जिन्होंने लोक संपर्क विभाग हिमाचल प्रदेश  के माध्यम से ‘हिमाचल की लोक गाथाएं’ नामक पुस्तक का सन् 1973 में संपादन एवं शब्दानुवाद प्रस्तुत किया। इस पुस्तक में 21 गाथाओं को संपादित-संकलित किया गया है। इन गाथाओं में बरलाज (सृष्टि निर्माण गाथा), एेंचली (सृष्टि निर्माण गाथा), मादेव-युकुन्तरस (महादेव युकन्तरस की गाथा), सीता हरण (सीता हरण की गाथा), कुन्ती नंती (दो बहनों की गाथा), गुगमल (गुगा की ब्याह  संबंधी एक घटना), राजा भरतरि (राजा भर्तृहरि का हिरण हत्या पर पश्चाताप), सामा-दौलतू ः बेटे (सामा) व बाप (दौलतू) की कथा, सामा सैन का (सैन के सामा की गाथा, राजा क्योंथल नरपत), राजा जगता (नूरपुर के राजा की गाथा), नेगी दयारी (कुल्लू के बजीर दयारी का नाहन के राजा से जुए में हारना, फिर जीतना), मदना  उदू (चाचा-भतीजे की गाथा), गढ़ मलौण (पम्मे बजीर का झेड़ा), सूरमा मदना (वीर मदन की गाथा), धार देशु  (देश घाटी, क्योंथल रियासत से दुश्मनी से संबंधित गाथा), गोरखा बोइरीस (गोरखा बैरी की गाथा), मही प्रकाश (राजा नाहन मही प्रकाश की क्योंथल रियासत से दुश्मनी से संबंधित गाथा), गोरखा बोइरीस (गोरखा बैरी की गाथा), मियां साब, चुन्नी लाल, बजीर नेहरू व इंदिरा गांधी इत्यादि गाथाओं को स्थानीय बोली के शब्दानुवाद सहित प्रस्तुत किया गया है, जो कि एक सराहनीय प्रयास कहा जा सकता है। हिमाचली लोक गाथाओं-लोक गीतों के संरक्षण, संग्रहण एवं संपादन में हिमाचल कला, संस्कृति व भाषा अकादमी शिमला ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। अकादमी ने ‘पहाड़ी  लोक रामायण’ पुस्तक 1974 में प्रकाशित करके उसमें हिमाचल में प्रचलित रामकथा के संबंध में पहाड़ी-हिंदी अनुवाद सहित समीक्षात्मक लेखों एवं निबंधों का संकलन किया है।

 कुल्लू (आउटर सिराज) में प्रचलित दशी काव्य के आधार पर विरचित कथात्मक काव्य रूप ‘देई-ज़ुल्फू’ (पहाड़ी-हिंदी अनुवाद सहित) सन् 1978 में, तत्पश्चात 1984 में प्रकाशित भर्तृहरि लोक गाथा (पहाड़ी-हिंदी) नामक पुस्तक को प्रकाशित करके हिमाचल की लोक गाथाओं के संरक्षण का कार्य जारी रखा। इस लोक गाथा में हिमाचल अकादमी ने हिमाचल के विभिन्न भागों में प्रचलित भर्तृहरि  लोक गाथा का अनुवाद सहित प्रकाशन किया है। डा. कांशी राम ने मंडयाली लोकसाहित्य नामक शोध ग्रंथ में स्थानीय नामों के आधार पर लोक गाथाओं का वर्गीकरण करते हुए लोकगाथाओं का विभाजन इस प्रकार किया है ः 1. भारथा, 2. झेड़े और 3. कथा भारथा में गुग्गा गाथा तथा उसके साथ गाई जाने वाली गुग्गा नौमी के दिन तक की लघु गाथाएं झेड़े अथवा उपगाथाएं यथा कंजरू, सिरमौरी, पृथीपाल, दयासिंह पूर्विया आदि ही आती हैं। शीतकालीन लंबे गीतों को कहने की परंपरा है। शीतकालीन गेय  कथानकों में राजा रसालु, राजा सालीवाहन, पूर्णभक्त, राजा अमर सिंह, राजा भरथरी, राजा गोपीचंद और हीर रांझा प्रमुख हैं। उनके अनुसार लोक गाथाओं के नृत्य गाथाएं व नृत्य विहीन गाथाएं दो वर्ग हो सकते हैं और यदि चैती गीतों को भी लोक गाथाओं के अंतर्गत समाहित किया जाए तो इन गाथाओं को  महिला गाथाओं व पुरुष गाथाओं में विभाजित किया जा सकता है। डा. आत्रेय ने उद्देश्य की दृष्टि से मंडयाली लोक गाथाओं को देवानुष्ठानिक और मनोरंजनात्मक गाथाओं आदि दो वर्गों में विभक्त किया है। देवपरक और मानवपरक होने के कारण गाथाओं का देव गाथाएं (धर्मगाथाएं) तथा मानुषी गाथाओं में वर्गीकारण  किया जा सकता है। मंडयाली क्षेत्र की प्राप्त गाथाओं को उन्होंने तात्विक प्रधानता के कारण देवकथात्मक, योगकथात्मक, प्रेमकथात्मक, वीर कथात्मक व करुणात्मक गाथाओं के रूप में भी विभाजित किया है तथा उदाहरण स्वरूप कुछ गाथाओं का विवरण भी प्रस्तुत किया है। मंडी जिला में विभिन्न लोकगाथाएं स्थानीय नाम ‘झेड़ा’ के रूप में जानी जाती हैं और भाषायी एवं सांस्कृतिक सर्वेक्षण योजना के अंतर्गत विभिन्न लेखकों ने लोक गायकों के घर जाकर लोकसाहित्य की इस महत्त्वपूर्ण कड़ी के साथ-साथ अन्य विविध सामग्री का संचय करके उसका लेखन-प्रलेखन भी करवाया है।

 लेकिन भाषा विभाग एवं हिमाचल अकादमी द्वारा इससे कुछ एक  पुस्तकों के प्रकाशन के अतिरिक्त इस दिशा में जिस ठोस एवं सतत प्रयास की आवश्यकता-अनिवार्यता थी, वह निरंतर जारी नहीं रहा। हिमाचल की लोक गाथाओं का संकलन और प्रकाशन समय-समय पर यहां के लेखकों ने किया है, परंतु समग्र रूप से उपर्युक्त प्रकाशनों के अतिरिक्त कोई विशेष संकलन मेरी दृष्टि में नहीं आया। हां, यह उल्लेखनीय है कि हिमप्रस्थ, सोमसी, बिपाशा, हिम भारती के अतिरिक्त स्थानीय पत्रिकाओं, स्मारिकाओं आदि में लोक गाथाओं के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्त्व की चर्चा तो मिलती है, परंतु इनके मूल पाठ, पाठांतर भेद समग्र रूप में उपलब्ध नहीं हैं। प्रतिबिंब में पूर्व प्रकाशित ऐतत्संबंधी आलेख-लेखकों ने भी इस विषय पर विचार साझा करके इनके संकलन, संपादन, प्रकाशन तथा शोध अध्ययन की ओर संकेत किए हैं। मैं भी उनका समर्थन करके प्रदेश भाषा, कला, संस्कृति अकादमी तथा भाषा-संस्कृति विभाग से अनुरोध करता हूं कि इस दिशा में कोई ठोस तथा प्रामाणिक प्रकाशन प्रयास हों। लोक गाथाओं के मूल पाठ तथा पाठांतर रूपों को संग्रहीत करने की आवश्कता पर ध्यान देना, कार्य करना समय की अपेक्षा है।

साहित्यिक विमर्श

साहित्य को नए आयाम देता सोशल मीडिया

जगदीश बाली

मो.-9418009808

कोरोना काल में साहित्य ने आम पाठक तक पहुंचने के लिए ऑनलाइन माध्यम को अपनाया है। अब सोशल मीडिया के जरिए साहित्य-लेखन हो रहा है। कोरोना काल में परंपरा से हटकर यह बड़ा परिवर्तन है। दरअसल साहित्यिक रचना एक खुली किताब ही नहीं, बल्कि खुली सोच से उपजा हुआ एक सृजन है जिसकी बदौलत हमें सूर, कबीर, तुलसी, नागार्जुन, निराला, दुष्यंत जैसे अक्खड़ और हिम्मती पूर्वज मिले। साहित्य को किसी एक माध्यम के दायरे में नहीं बांधा जा सकता। इसे सख्ती से नियमों के पाश में भी नहीं बांधा जा सकता। इतिहास गवाह है कि कई साहित्यकारों को शुद्धवादी पंडितों ने दरकिनार कर दिया, परंतु सदियों बाद उन्हें आम पाठक ने गले लगाया। वास्तव में सोशल मीडिया पर हर तरह का साहित्य है, उत्कृष्ट भी और निकृष्ट भी। महज़ पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं में छप जाने से ही साहित्य उत्तम नहीं हो जाता। निकृष्ट साहित्य इन माध्यमों में भी मिल जाएगा। वास्तव में सोशल मीडिया और पत्र-पत्रिकाएं व पुस्तकें सिर्फ अभिव्यक्ति के अलग-अलग संवाहक हैं। सोशल मीडिया त्वरित माध्यम है और दूसरा लंबा और विभिन्न बाधाओं से भरा हुआ जिसमें मोड़-मोड़ पर कई साहित्यधीश आशीर्वाद या बद्दुआएं देने के लिए लालायित बैठे मिल जाएंगे। इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि लेखन या साहित्य लंबे दौर से गुजरता हुआ यहां तक पहुंचा है।

 अपने ख्यालों का इजहार करने के लिए मानव को ज़ुबान मिली और उसे रूप देने के लिए उसने शब्दों को रच डाला। श्रुति और स्मृति के माध्यम से होता हुआ ज्ञान लिपिबद्ध हुआ और शब्द पत्थरों, वृक्षों की छालों और भोजपत्रों से होते हुए कागज़ पर उतरने लगे। फिर प्रिंटिंग मशीन, कंप्यूटर और अब इंटरनेट। लैपटॉप से होता हुआ इंटरनेट अब पांच इंच की स्क्रीन पर अपना कमाल दिखा रहा है। इंटरनेट का सबसे बड़ा लाभ है कि यह हमें संसार के साहित्य से मॉउस बटन के एक क्लिक पर रूबरू करवा देता है। हमें पैसा खर्च कर चंडीगढ़, नई सड़क या दरियागंज जाकर दुकानें छानने की आवश्यकता नहीं। वैसे भी व्यक्ति कितनी किताबें खरीद सकता है?

इधर वह अपनी रुचि की पुस्तकें ऑनलाइन पढ़ रहा है। महान साहित्यकारों का कहना है कि सफल साहित्यकार बनने के लिए अपने साहित्य के साथ दूसरे साहित्य का ज्ञान होना भी आवश्यक है अन्यथा उसका अपना साहित्य कुंद रह जाता है। यह सुविधा इंटरनेट पर उपलब्ध है। उदाहरणतः जहां आप हिंदी के कबीर, सूरदास, उर्दू के महान शायर ग़ालिब, मीर को भी पढ़ सकते हैं, वहीं संस्कृत के कालीदास, भर्तृहरि भी मौजूद हैं, अंग्रेज़ी के शेक्सपियर और जॉन मिलटन भी हैं। हम केवल पढ़ ही नहीं रहे हैं, बल्कि उन्हें यूट्यूब पर भी देख-सुन रहे हैं और वो भी बिना एक पैसा दिए। एक नए लेखक की सबसे बड़ी समस्या होती है अपनी रचना को छपवाना। प्रकाशक मोटी रकम मांगते हैं। अखबार वालों की भी अपनी सीमाएं व दायरे हैं। स्पेस की कमी के चलते लेखक की रचनाएं बेहतर होते हुए भी छपने से रह जाती हैं। वह सोशल मीडिया की ओर आता है और बिना किसी लाग-लपेट के लिख डालता है। तुरंत प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो जाती हैं और उसे तसल्ली हो जाती है कि उसकी रचना सुनी व समझी जा रही है। गांव के किसी कोने, किसी खेत या छत पर बैठा कोई आदमी भी कविता या कहानी लिखना चाहता है। सोशल मीडिया उसके लिए सबसे उत्तम जगह प्रतीत होती है और वह बस लिख लेता है। गांव में बैठा वह व्यक्ति हर रोज़ शहर के बुक कैफे या कॉफी हाउस या कवि गोष्ठियों में नहीं जा सकता। यदि पाठक को किसी का लिखा पसंद आ रहा है, तो औरों को गिला क्यों? जिसकी कलम में ताकत होगी, वो कलम चलती रहेगी। साहित्य जहां मानव संवेदना, कल्पना और सृजनात्मकता का शब्द रूप होता है, वहीं यह समाज को परिमार्जित और परिष्कृत करने का प्रयास भी करता है। जो साहित्यकार अपनी विधा के माध्यम से जन-जन तक पहुंच पाता है, वास्तव में वही साहित्य सार्थक है। अन्यथा साहित्य चंद बुद्धिजीवियों के समागम में की जा रही गोष्ठियों, उनकी चाय की मेज़ पर हो रही चर्चाओं या किसी बुक कैफे में की जाने वाली तनकीदों व टिप्पणियों तक ही सीमित रह जाता है।

पुस्तक समीक्षा

परिवेश से रूबरू करवाती कहानियां

डा. संदीप शर्मा के ‘माटी तुझे पुकारेगी’ कहानी संग्रह में अलग-अलग परिवेश की कहानियां पाठक को पहाड़ की संस्कृति से रूबरू करवाने व पहाड़ की खत्म होती संस्कृति के लिए एक वेदना दिखाती हैं। कहानियों में स्त्री को पारंपरिक रूप से सशक्त दिखाया गया है। किताब की पहली कहानी ‘मलंगी की मछलियां’ पढ़कर पहाड़ी संस्कृति और पहाड़ी भाषा की वजह से कहानी में पहाड़ से संबंध रखने वाले व्यक्ति को अपनापन महसूस होता है। ‘गंगा घाट की गोमती’ में तो गोमती दाह संस्कार के मंत्र तक पढ़ती है। एक ऐसी संस्कृति में इसकी कल्पना अचरज भरी है क्योंकि पहाड़ी संस्कृति में महिलाओं का श्मशान में प्रवेश वर्जित है। इससे यह स्पष्ट होता है कि लेखक संस्कृति को तो मानता है, परंतु रूढि़यों को नहीं। ‘माटी तुझे पुकारेगी’ में जानकी की इच्छा केवल इतनी सी है कि वह उसी घर में अपनी अंतिम सांस ले जिस घर में वह शादी का जोड़ा पहन कर आई थी। वह एक सादा जीवन चाहती है।

 उसे एक ऐसा जीवन बिल्कुल गंवारा नहीं जिसमें वह केवल चारदीवारी में सिमट कर रह जाए। कहानी का अंत लेखक ने सुंदर व्यंग्य से किया है। जिस सिल्वर फ्रेम को उसने जीते जी नफरत की, अंत में वह भी उसी फ्रेम का हिस्सा बन गई। दूसरी तरफ  लेखक एक और अम्मा की कहानी लिखता है ‘अम्मा की पेंशन’। अम्मा अपनी पेंशन को पाकर फूली नहीं समाती है और अपने पैसे बक्से में इकट्ठे कर रही है। नोटबंदी पर यह कहानी काफी सराहनीय है। ‘नदी फिर लौटेगी’ कुछ पारंपरिक काम करते लोगों की कहानी है जो अपने पेशे से बहुत लगाव रखते हैं, परंतु उनका यह लगाव ही उनके गले की फांस बन गया है। वह लोग अपने इस व्यवसाय को बचाने के लिए केवल इस आस में हैं कि नदी फिर लौटेगी और वे अपना घराट फिर से सुचारू रूप से चला पाएंगे। परंतु जिस नदी का इंतजार वे इतनी बेसब्री से कर रहे हैं, वह उस घराट को भी अपने साथ ही ले डूबी। यह कहानी प्रकृति के साथ की गई छेड़छाड़ का एक जीवंत उदाहरण है। यह किताब पाठक को दुनिया के किसी एक कोने में बैठ कर पहाड़ के एक साधारण गांव की सैर करवाने के साथ-साथ वहां की समस्याओं से भी अवगत करवाती है।

-स्वाति शर्मा, शोध छात्रा


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