कानून-न्याय वितरण में मीडिया का योगदान

सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने 2015 में एक निर्णय में कहा था कि मीडिया ट्रायल न्याय को पटरी से उतार देता है तथा लोगों का न्यायपालिका पर से विश्वास उठने लगता है। न्याय वितरण में पुलिस, प्रेस व न्यायपालिका का परिपूरक रोल होता है…

किसी भी संगठित व्यवस्था का आधार कानून होता है जिसका उद्देश्य न्याय की स्थापना करना होता है। वास्तव में न्याय ही व्यक्तियों, समूहों व समुदायों को एक सूत्र में बांधता है तथा जीवन के पथ प्रदर्शन के लिए यह किसी भी नियम से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। इसी तरह न्याय के अर्थ को सत्य, नैतिकता तथा शोषण विहीनता की स्थिति में ही पाया जा सकता है। इन्हीं तथ्यों की पृष्ठभूमि में कानून व्यवस्था बनाने व न्याय वितरण में मीडिया एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता आया है तथा यह भारतीय लोकतंत्र के एक सशक्त व मजबूत स्तंभ के रूप में जाना जाता है। मीडिया ने विश्व में हुई कई क्रांतियों, जैसे कि अमरीकी स्वतंत्रता अंदोलन, फ्रांसीसी आंदोलन तथा इसी तरह भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में एक अनुकरणीय भूमिका निभाई है। आज के समय में मीडिया हर क्षेत्र में अपरिहार्य बन गया है। चाहे वह प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक या फिर सोशिल मीडिया हो, यह हर क्षेत्र में प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से समाज में अपना सकारात्मक व नकारात्मक प्रभाव डालता आया है। मीडिया ने यहां जनता को निर्भीकतापूर्वक जागरूक करने, भ्रष्टाचार उन्मूलन, सत्ता पर तर्कसंगत नियंत्रण एवं जनहित कार्यों में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है, वहां दूसरी ओर लालच, भय, द्वेष, स्पर्धा व राजनीतिक कुचक्र के जाल में फंसकर अपनी भूमिका को समय-समय पर कलंकित भी किया है। येलो जर्नलिज्म को अपनाना, ब्लैकमेल द्वारा दूसरों का शोषण करना, चटपटी खबरों को तरजीह देना और खबरों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना, दंगे भड़काने वाली खबरों को प्रकाशित करना, भय या लालच में सत्तारूढ़ दल की या विपक्ष की चापलूसी करना, अनावश्यक रूप से किसी की प्रशंसा करना और किसी दूसरे की आलोचना करना तथा ईमानदारी, नैतिकता व कर्त्तव्यनिष्ठा से संबंधित खबरों को नज़रअंदाज करना आजकल मीडिया के सामान्य लक्षण हो गए हैं। वर्तमान में जब आम जनता न्याय व्यवस्था बनाने वाली संस्थाओं, जैसे कि पुलिस, अभियोजन पक्ष और न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की झलक देखती है, तब उनका विश्वास इन संस्थाओं से उठने लगता है तथा केवल मीडिया ही ऐसा तंत्र रह जाता है जो लोगों को सच्चा मित्र व हमराज के रूप में लगने लगता है। मीडिया ने कई प्रकार के स्टिंग आपरेशनों द्वारा पुलिस, न्यायपालिका व अन्य कई संस्थाओं का पर्दाफाश किया है तथा पीडि़त वर्ग को न्याय दिलवाने में अहम रोल अदा किया है।

 इसके अतिरिक्त देश को खंडित करने वाली ताकतों, जैसे कि आतंकवाद, माओवाद, मानव तस्करी व नशा माफिया के विरुद्ध अपनी लेखनी व प्रखर निगाहों से समय-समय पर इन सभी का काला चेहरा समाज व सरकार के सामने प्रस्तुत किया है। इन सभी जोखिम भरे कार्यों के लिए कई बार इन्हें अपनी जान भी गंवानी पड़ी है। इसके अतिरिक्त दैनिक स्तर पर होने वाले कई प्रकार के सामाजिक, नैतिक व आर्थिक अपराधों को तुरंत प्रकाशित करके अपराधियों को पकड़ने व लोगों में जागरूकता लाने में उल्लेखनीय योगदान दिया है। इसी तरह शहीदों के सम्मान में प्रेरक व उत्साहवर्धक खबरों के प्रसारण से मीडिया अपनी सकारात्मक भूमिका निभाता आ रहा है तथा बाढ़ या अन्य प्राकृतिक या मानवकृत आपदाओं के समय जन-सहयोग उपलब्ध करवा कर मानवता की सच्ची सेवा कर रहा है। परंतु भौतिकवाद के इस युग में मीडिया भी कहां सत्यम, शिवम व सुंदरम रह पाया है। मीडिया के लोग भी अपनी कलम का दुरुपयोग करते हुए कहीं न कहीं समाज में अराजकता का माहौल बनाने में अपनी भूमिका निभाते आ रहे हैं। भारत में समय-समय पर घटित हुए कई प्रकार के दंगे, जैसे कि गोधरा कांड (2002), मुजफ्फरनगर दंगे (2013), दिल्ली में भारतीय नागरिकता संशोधन अधिनियम से शाहीन बाग में भड़के दंगे (2019-2020) इत्यादि में कुछ मीडिया वालों ने अपनी कलम का दुरुपयोग करके आग में घी डालने का काम किया तथा समाज में शांति, सौहार्द, समरसता की भावना को आघात पहुंचाया। दूसरों को दर्पण दिखाने वाले बुद्धिजीवी पत्रकार यदि अपने चेहरे पर कालिख की परतें चढ़ा लें, तब मीडिया का पूरा वर्ग कलंकित होना स्वाभाविक हो जाता है।

 हमारे संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्ति प्रस्तुत करने का अधिकार है, मगर इसके साथ-साथ अनुच्छेद 19 (2) में कुछ प्रतिबंध भी हैं जिनका आचरण करना भी उतना ही आवश्यक है जिसे मीडिया के लोग कई बार नज़रअंदाज कर देते हैं। कई बार तो कानून की अनभिज्ञता व अज्ञानता के कारण भी एकतरफा भोंपू बजाते रहते हैं तथा संबंधित व्यक्तियों को अपूरणीय क्षति पहुंचा देते हैं। वर्ष 2019 में हाथरस (उ. प्र.) की घटना, जिसमें एक लड़की का तथाकथित बलात्कार एवं हत्या हुई, में एकतरफा भोंपू बजा-बजाकर वहां दंगे भड़का दिए। इसी तरह सुशांत राजपूत अभिनेता की मृत्यु जो कि आत्म हत्या थी, मगर उसको हत्या का रूप देकर उसकी प्रेमिका रिया चक्रवर्ती को मुलजिम ठहरा कर सारे समाज की नज़रों में उसका अपमान किया। इसी तरह जेसिका लाला हत्या व निर्भया हत्याकांड इत्यादि अनेकों घटनाओं में मीडिया ट्रायल किया गया तथा न्यायपालिका पर आवश्यकता से अधिक दबाव बनाया। मीडिया को पता होना चाहिए कि न्याय प्रणाली के अंतर्गत एक निर्धारित प्रणाली को अपनाना आवश्यक होता है तथा प्रत्येक अपराधी को तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक उसके विरुद्ध सभी तथ्य सिद्ध न हो जाएं। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने 2015 में एक निर्णय में कहा था कि मीडिया ट्रायल न्याय को पटरी से उतार देता है तथा लोगों का न्यायपालिका पर से विश्वास उठने लगता है। न्याय वितरण में पुलिस, प्रेस व न्यायपालिका का परिपूरक रोल होता है तथा तीनों में परस्पर सामंजस्य व समन्वय होना अति आवश्यक है। समाज की रगों में नवचेतना का संचार करने वाले मीडिया-समुदाय का विशेष कर्त्तव्य बनता है कि भावों और विचारों का अविरल प्रवाह करके समाज की अभेद्य रक्षा पंक्ति में उल्लेखनीय योगदान दे। मीडिया की बहुआयामी भूमिका को देखते हुए कहा जा सकता है कि मीडिया आज हर प्रकार का सकारात्मक व नकारात्मक रोल निभा रहा है। मगर अब समय आ गया है कि मीडिया अपनी शक्ति का सदुपयोग समाज-हित व जनहित में करे और समाज का मार्गदर्शन करे ताकि वह भविष्य में भस्मासुर न बन सके।

राजेंद्र मोहन शर्मा

रिटायर्ड डीआईजी


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