मातृभाषा पर संकट अपनी बोलियों के लिए…

By: Aug 8th, 2021 12:05 am

कुशल कुमार, मो.-9869244269

-गतांक से आगे…

इसी तरह अंग्रेजी हम छोड़ नहीं सकते हैं और अपनी मां-बोलियों का क्या किया जाए, समझ नहीं आता है। हमारा शिक्षा-कारोबार सारा कार्य व्यापार सब अंग्रेजी में चलता आ रहा है। साल में एक दिन भाषा दिवस मना कर लेखकों आदि को पुरस्कार पकड़ा दिया जाता है। अपनी भाषा का झंडा उठा कर जय बोल दी, ‘मेरी मां महान है’ का नारा लगा दिया। हो गया। उस बहू का तो पता नहीं, पर अंग्रेजी सब भारतीय भाषाओं के गले घोंट रही है, लेकिन किसी को कोई शिकायत नहीं है। उसे सब खून माफ हैं। इस मामले में हमारी स्थिति डाल पर बैठ डाल को काटने वाले शेखचिल्ली से भी बुरी है। हम अपनी भाषाओं के पेड़ों की जड़ों को काटे भी जा रहे हैं और उसके फलने-फूलने की उम्मीद भी कर रहे हैं। हम अपने बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाएंगे और उनका अंग्रेजी का मुहावरा न बिगड़ जाए, इसलिए उनसे अंग्रेजी में ही बोलेंगे और चाहते हैं कि भारतीय भाषाओं का विकास हो।

इस भोलेपन पर सौ दो सौ की क्या बात है, लाखों जुबानें कुर्बान हो सकती हैं। इस मामले में साहित्यकारों से बात करो तो वे कहते हैं, भाषा उनका नहीं समाज का विषय है क्योंकि उनकी संतानें भी तो अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में ही पढ़ रही हैं। ऐसे में नई शिक्षा नीति के मसौदे का यह प्रस्ताव कि पांचवीं तक मातृभाषा में ही शिक्षा दी जाएगी, इस तपते रेगिस्तान में एक नखलिस्तान की तरह नजर आ रहा है।

यह प्रस्ताव यदि लागू हो गया तो इससे देश की भाषाओं को एक नया जीवन मिल सकता है, परंतु अंग्रेजी और अंग्रेजी शिक्षा के साथ बहुत से लोगों के स्वार्थ जुडे़ हैं और अंग्रेजीदां मध्य वर्ग ऐसा होने नहीं देगा। वैसे भी भाषाओं के मामले में सरकारों से बहुत ज्यादा उम्मीद करना बेमानी है। उन पर इतने दबाव हैं कि उनके लिए एक स्पष्ट भाषा नीति बनाना संभव ही नहीं है। ऐसे में हमें ही अपनी भाषा नीति बनानी होगी। हम सब जानते हैं कि आज के समय में हमारा किसी एक भाषा से काम नहीं चल सकता है। हमें अढ़ाई भाषाओं का ज्ञान तो होना ही चाहिए। एक मातृ भाषा, हिंदी/अंग्रेजी में से एक पूरी, एक आधी। यह एक व्यावहारिक जीवन जीने की कम से कम भाषायी जरूरत है। जिन्हें अपने ही क्षेत्र में जीवन बिताना हो, वे क्षेत्र की जरूरत के अनुसार हिंदी या अंग्रेजी किसी एक के बिना भी काम चला सकते हैं। यदि हम अपनी-अपनी मां बोली/भाषाओं को प्यार करते हैं तो हमें ही यह तय करना होगा कि हम अंग्रेजी या हिंदी किसी भी भाषा के लिए अपनी मातृ बोली/भाषा नहीं छोड़ेंगे। मातृभाषा ही नहीं, किसी भी एक भाषा के लिए किसी दूसरी भाषा को छोड़ने का पाप नहीं करेंगे। यदि हम इस देश के सारे नागरिक अपनी इस भाषा नीति पर अमल कर सकें तो एक दशक के भीतर ही हमारा भाषायी और सांस्कृतिक आकाश अपने सितारों से झिलमिलाने लगेगा। हमारी सभी भाषाएं आठवीं-दसवीं या किसी भी अनुसूची की सरकारी बैसाखी के बिना ही विश्व की किसी भी भाषा से आंख मिला सकेंगी। इस मामले में हमें इस सत्य को स्वीकार करना होगा कि ज्यादा भाषाओं के उपयोग करने से हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। हम और हमारे बच्चे जितनी भाषाएं बोलेंगे, उनका उतना अधिक मानसिक और बौद्धिक विकास होगा। साथ ही इस गलतफहमी से बाहर आना होगा कि मां-बोली बोलने से बच्चे अंग्रेजी नहीं सीख पाते हैं और उनके भविष्य, रोजगार और व्यावसायिक जीवन पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है।

इसके बाद जहां तक आठवीं अनुसूची की बात है, हमें राधा को नचाने के लिए नौ मन तेल जुटाने की कवायद के साथ-साथ अपनी गंभरी देवी के लिए भी कोशिश करना चाहिए। मेरा सोचना है कि राधा जब नाचेगी तब नाचेगी, तब तक प्रदेश स्तर पर बोलियों की एक अलग अनुसूची बनाकर जिन प्रदेशों में वे बोली जाती हैं, वहां नियोजित पाठ्यक्रम को प्रभावित किए बिना उन्हें पांचवीं कक्षा तक अनिर्वाय/ऐच्छिक अनौपचारिक विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। इससे इन बोलियों-भाषाओं की समाज में स्वीकार्यता के साथ-साथ रचनात्मकता को भी प्रोत्साहन मिलेगा। प्रदेश की बोलियों को पुनर्जीवन देने के लिए इसे मानने में किसी भी प्रदेश सरकार और लोगों को कोई परेशानी भी नहीं होगी। हिमाचल में तो पहाड़ी बोली-भाषाओं में रचनात्मकता को प्रोत्साहित करने के लिए पहले से ही अकादमी मौजूद है। मुझे लगता है कि हम आठवीं अनुसूची के बजाय अपने प्रदेश में ही जोर लगाएं तो इन दम तोड़ती भाषाओं को सहेजने की लड़ाई सहजता से जीत जाएंगे। एक बात जो सबसे जरूरी है और जो कोई सरकार हमारे लिए नहीं कर सकती है, हमें अपनी भाषाओं में जीना होगा और अपनी मातृभाषा को बोलने और जीने का कोई मौका नहीं छोड़ना होगा। तभी हम पहाड़ी गांधी बाबा कांशीराम, हिमाचल निर्माता डा. यशवंत सिंह परमार और लालचंद प्रार्थी के सपनों को साकार कर पाएंगे।

-समाप्त


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