भारतीय विदेश नीति और तालिबान

तालिबान से बातचीत करने के लिए यदि चाहे तो भारत रूस की मदद ले सकता है ताकि भारत के हितों की सुरक्षा अफगानिस्तान में हो सके। इसके अलावा सऊदी अरब और यूएई पर भी भारत की नजऱें टिकी हैं कि वो आगे क्या करते हैं। 1990 में पाकिस्तान, यूएई और सऊदी अरब ने तालिबान को सबसे पहले मान्यता दी थी…

तालिबान अफगानिस्तान की सत्ता का नियंत्रण अपने हाथों में ले चुका है। तालिबान पश्तो भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है छात्र। तालिबान का उदय 90 के दशक में हुआ जब अफगानिस्तान में सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी। तालिबान का अफगानिस्तान में शासन चलाने का कोई मॉडल नहीं है। उनकी अपनी एक कट्टरपंथी विचारधारा है जिसे वो लागू करना चाहते हैं। लगभग 20 साल पहले अमरीका ने दावा किया था कि अफगानिस्तान से तालिबानी शासन का अंत हो गया है। लेकिन अब उसके आतंक के चलते अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी विदेश भाग चुके हैं और फिर से तालिबान का शासन आ चुका है। एक डर जो मन में कहीं छिपा बैठा था कि तालिबान के वापस आते ही दमन और अत्याचारों का दौर शुरू होगा, वह अब कसौटी पर है। अफगानिस्तान को लेकर अंतरराष्ट्रीय रुख भी असमंजस वाला है। भारत के अब तक तालिबान के साथ सीधी बातचीत शुरू न करने की बड़ी वजह यह रही है कि भारत अफगानिस्तान में भारतीय मिशनों पर हुए हमलों में तालिबान को मददगार और जि़म्मेदार मानता था। भारत का तालिबान के साथ बात न करने का एक और बड़ा कारण यह भी रहा है कि ऐसा करने से अफगान सरकार के साथ उसके रिश्तों में दिक्कत आ सकती थी जो ऐतिहासिक रूप से काफी मधुर रहे हैं। लेकिन अब स्थिति बदल गई है। ताज़ा घटनाक्रम के बाद भारत की तालिबान के प्रति विदेश नीति क्या होगी?

सच्चाई यह है कि पिछले कुछ सालों में भारत सरकार ने अफगानिस्तान में पुनर्निर्माण से जुड़ी परियोजनाओं में लगभग तीन अरब अमरीकी डॉलर का निवेश किया है। संसद से लेकर सडक़ और बांध बनाने तक कई परियोजनाओं में सैकड़ों भारतीय पेशेवर काम कर रहे हैं। अफगानिस्तान में लगभग 1700 भारतीय रहते हैं। पिछले कुछ दिनों में काफी लोगों के अफगानिस्तान छोडऩे की खबरें आई थीं। भारत इस सच्चाई को समझ रहा है कि अब तालिबान का काबुल पर क़ब्ज़ा हो गया है और अफगानिस्तान से अपने लोग बाहर निकाल रहा है। अब भारत के पास दो रास्ते हैं, या तो भारत अफगानिस्तान में बना रहे या फिर सब कुछ बंद करके 90 के दशक वाले रोल में आ जाए। भारत दूसरा रास्ता अपनाता है तो पिछले दो दशक में जो कुछ वहां भारत ने किया है वो सब ख़त्म हो जाएगा। पहले क़दम के तौर पर भारत को बीच का रास्ता अपनाते हुए तालिबान के साथ बातचीत स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि अफगानिस्तान के विकास के लिए अब तक जो भारत कर रहा था, उस रोल को (सांकेतिक या कम से कम स्तर पर) वो आगे भी जारी रख सके। भारतीय विदेश नीति से जुड़े लोग मानते हैं कि सभी भारतीयों को वहां से निकालने से आगे चल कर भारत को बहुत ज़्यादा फायदा नहीं होने वाला है।

आनन-फानन में लिए गए किसी भी फैसले से बहुत भला नहीं होने वाला है। उनके मुताबिक ऐसा इसलिए क्योंकि इस साल 15 अगस्त से पहले तक यह माना जा रहा था कि कोई अंतरिम सरकार अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज़ हो सकती है, लेकिन अब वहां की स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है। तालिबान के रास्ते में कोई रोड़ा नहीं दिखाई पड़ रहा है। 1990 में जब अफगानिस्तान में तालिबान का राज था और भारत ने अपने दूतावास बंद कर दिए थे, उसके बाद भारत ने कंधार विमान अपहरण कांड देखा था। भारत विरोधी गुटों का विस्तार भी भारत ने देखा। 2011 में भारत ने अफगानिस्तान के साथ स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट साइन किया था, जिसमें हर सूरत में अफगानिस्तान को सपोर्ट करने का भारत ने वादा किया था, लेकिन अब तालिबान ने भारत के व्यापारिक हितों को नुक्सान पहुंचाना शुरू कर दिया है। फिर भी तालिबान में एक गुट ऐसा भी है जो भारत के प्रति सहयोग वाला रवैया भी रखता है। जब अनुच्छेद 370 का मुद्दा उठा तो पाकिस्तान ने इसे कश्मीर से जोड़ा, लेकिन तालिबान ने कहा कि उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि भारत कश्मीर में क्या करता है। काबुल पर क़ब्ज़ा करने के बाद अब तक किसी भी बहुत बड़े ख़ून खऱाबे की ख़बरें सामने नहीं आई हैं।

हालांकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस बात को लेकर चिंता जताई गई है कि तालिबानी शासन आने के बाद अफगानिस्तान में महिलाओं की जि़ंदगी बद से बदतर हो जाएगी। भारत की प्राथमिकता अभी अपने नागरिकों को सुरक्षित निकालने की होगी। उसके बाद भारत देखेगा कि तालिबान का रवैया आने वाले दिनों में कैसा है? दुनिया के दूसरे देश तालिबान को कब और कैसे मान्यता देते हैं और तालिबान वैश्विक स्तर पर कैसे अपने लिए जगह बनाता है? भारत तालिबान से तभी बातचीत शुरू कर सकता है, जब तालिबान भी बातचीत के लिए राज़ी हो। मीडिया में तालिबान के बयान और ज़मीन पर उनकी कार्रवाई में फर्क न हो। तालिबान भले ही कह रहा है कि वो किसी से बदला नहीं लेंगे. किसी को मारेंगे नहीं, लेकिन जिन प्रांतों को उन्होंने अपने क़ब्ज़े में लिया है और वहां से जो ख़बरें आ रही हैं, उससे लगता है कि उनकी कथनी और करनी में अंतर है। अभी ज़मीन पर उनका पुराना अवतार ही क़ायम है। नए हालात में तालिबान को अभी वैश्विक स्वीकार्यता चाहिए।

पिछले दिनों तालिबान के प्रतिनिधि चीन गए थे। वहां उन्हें ज़रूर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कैसे दिखना है, इससे जुड़ी सलाह मिली होगी। लेकिन ब्रिटेन, अमरीका और दूसरे पश्चिमी देशों से शुरुआती संकेत तालिबान के लिए उत्साहजनक नहीं मिले हैं। अमरीका के राष्ट्रपति को जिस तरह से अफगानिस्तान की स्थिति के लिए जि़म्मेदार ठहराया जा रहा है, उससे साफ है कि पश्चिमी देश तालिबान को इतनी जल्दी मान्यता नहीं देने वाले। रही बात भारत की तो पड़ोसी देश में जब भी सरकार बदलती है तो भारत उनसे बातचीत करता ही है। कयास है कि अफगानिस्तान में भी भारत वैसा करेगा, लेकिन सही समय आने पर। वो सही समय तब आएगा, जब भारत जैसी सोच रखने वाले दूसरे देश भी तालिबान को मान्यता देने की तरफ क़दम बढ़ाएं। अगर तालिबान 2.0 तालिबान 1.0 जैसे ही हों, तो भारत को तालिबान से बातचीत में कोई फायदा नहीं होगा।

तालिबान से बातचीत करने के लिए यदि चाहे तो भारत रूस की मदद ले सकता है ताकि भारत के हितों की सुरक्षा अफगानिस्तान में हो सके। इसके अलावा सऊदी अरब और यूएई पर भी भारत की नजऱें टिकी हैं कि वो आगे क्या करते हैं। 1990 में पाकिस्तान, यूएई और सऊदी अरब ने तालिबान को सबसे पहले मान्यता दी थी। तब उनका एजेंडा था अमरीका को अफगानिस्तान से हटाना, जिसमें वो सफल हो गए हैं। लेकिन इसके बाद भी उनके तमाम गुटों में एकता बनी रहेगी, ये अभी कहना मुश्किल है। जब तक अफगानिस्तान में नई राजनीतिक व्यवस्था की प्रक्रिया शुरू नहीं हो जाती, तब तक कुछ भी कहना मुश्किल है। भारत चाहेगा कि उसमें नार्दर्न एलायंस की भूमिका रहे। लेकिन तालिबान की प्राथमिकता होगी अपने क़ानून को वहां लागू करवाए, न कि अपने पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते बनाए। ऐसे में भारत और तालिबान के बीच विचारधारा का टकराव हो सकता है। तालिबान के काबुल पर क़ब्ज़ा कर लेने से भारत के सामने तीन स्तर पर चुनौतियां होंगी। पहली सुरक्षा से जुड़ी हुई। तालिबान के साथ संबंधित आतंकवादी गुट की छवि अब तक भारत-विरोधी रही है। दूसरी मध्य एशिया में व्यापार, कनेक्टिविटी और आर्थिक विकास के मसले पर दिक्क़तें आ सकती हैं। तीसरी दिक्कत चीन और पाकिस्तान को लेकर आएगी, जो पहले से तालिबान के साथ अच्छे संबंध बनाए हुए हैं। ऐसे हालात में भारतीय विदेश नीति को सामयिक परिपक्वता की जरूरत होगी।

डा. वरिंदर भाटिया

कालेज प्रिंसीपल

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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