भूस्खलन की त्रासदी और सहमे लोग

बताया जाता है कि सतलुज घाटी में 140 हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स लाने की तैयारी भविष्य में है। यानी यह इलाका भी उत्तराखंड के चमोली और केदारनाथ जैसे हादसों की चपेट में कभी भी आ सकता है। पर्यावरणविदों का कहना है कि हिमालय के इलाकों में खासतौर से सतलुज और चिनाब घाटी में कोई भी प्रोजेक्ट शुरू करने से पहले इनसे पडऩे वाले दुष्प्रभावों पर अध्ययन किया जाना आवश्यक है…

पहाड़, नदियां, मैदान, बर्फ , चौगान, मंदिर, फल-फूल, झरने सब कुछ है इस पावन धरती पर जिसका नाम है हिमाचल प्रदेश। पनबिजली परियोजनाओं से बिजली तैयार करके कई प्रदेशों को प्रकाश प्रदान करने का जिम्मा भी इसी धरती के जल पर है। हिमाचल अनेक भौगोलिक विषमताओं व चुनौतियों से घिरा हुआ प्रदेश है। इन चुनौतियों से लडक़र यहां के लोगों का जीवन व्यतीत होता है, मगर मानो अब इन्हें इन परिस्थितियों में जीने की आदत सी हो गई है। लेकिन वर्तमान समय में इन लोगों के लिए सबसे बड़ा संकट भी इन्हीं के ये पहाड़ टूट कर बिफर रहे हंै। इनके खतरे से यहां के लोगों के हाथ-पांव फूलने से लग गए हैं। आखिर हो भी क्यों नहीं, जब एक आधा पत्थर गिरे तो उससे बचा भी जाए, लेकिन जब जिस सडक़ पर चले है वो सडक़ या ऊपर से सारा पहाड़ ही टूट कर नीचे आकर अपने आगोश में सब कुछ ले जाने को आतुर हो तो कौन क्या करेगा? यह चिंतनीय विषय है। सवाल ये पैदा होता है कि हिमाचल प्रदेश या उत्तराखंड में इतनी ज्यादा भूस्खलन, फ्लैश फ्लड और पहाड़ों के दरकने और गिरने की घटनाएं क्यों हो रही हैं? इसके पीछे क्या वजह है? क्या इंसानी गतिविधियों की वजह से ऐसा हो रहा है या कोई प्राकृतिक कारण है, इसका समय रहते अध्ययन आवश्यक है अन्यथा परिणाम त्रासदी के रूप में सामने आ सकते हैं। क्योंकि आंकड़ों की सहायता समझने के लिए ली जाए तो साल 2014 से 2020 तक देशभर में भूस्खलन और पहाड़ों के गिरने की करीब 3656 बड़ी घटनाएं हुई हैं जिनमें कई लोगो की मृत्यु भी हो चुकी है। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे पहाड़ी इलाकों में अक्सर हमें फ्लैश फ्लड, भूस्खलन और पहाड़ों के गिरने की खबर मिलती है।

पिछले कुछ सालों में ये घटनाएं बढ़ गई हैं। इसके पीछे बड़ी वजह है पारिस्थितिकी के अनुसार संवेदनशील हिमालयी इलाकों में इंसानों की गतिविधियों का बढऩा। हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ उम्र के हिसाब से युवा हैं। ये अभी मजबूत हो रहे हैं। ऐसे में इन पर हो रहे विकास कार्यों की वजह से दरारें पड़ती हैं, टूट-फूट होती है, जिससे पहाड़ों का भार संतुलन बिगड़ता है। बारिश के मौसम में या फिर बारिश के बाद इनकी नींव कमजोर हो जाती है और टूटकर गिरने लगते हैं। विद्वानों और बुद्धिजीवियों का इसके पीछे सबसे बड़ा कारण हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स, सुरंगों और सडक़ों के निर्माण के लिए तेज विस्फोट, ड्रिलिंग आदि से पैदा होने वाली कंपन इन पहाड़ों की ऊपरी सतह और पत्थरों को हिलाना है। हिमाचल के लाहौल-स्पीति और किन्नौर जिले भूगर्भीय और पारिस्थितिकी के हिसाब से काफी ज्यादा संवेदनशील क्षेत्र माने जाते हैं। ये कमजोर हैं। ये मानव परियोजनाओं का अधिक भार सहन नहीं कर सकते। हाल ही में सिरमौर जिले में भयानक स्तर के भूस्खलन की तस्वीरें सामने आई थी। असल में हिमालय के ऊंचे पहाड़ पर्यावरणीय और टेक्टोनिकली बेहद अधिक संवेदनशील हैं। इसलिए ऐसी जगहों पर किसी भी तरह का निर्माण कार्य रोकना चाहिए। अगर बेहद जरूरी है तो केवल छोटे स्तर के निर्माण कराए जाने चाहिए। सडक़ों को वैज्ञानिक तौर-तरीकों से बनवाएं, लेकिन हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में सडक़ों के चौड़ीकरण और निर्माण के नाम पर पहाड़ों का सीना छलनी किया जाता रहा है तथा अभी भी आधुनिकता के नाम पर यह किया ही जा रहा है।

ऐसे में भार सहन कर रहे पहाड़ क्या करेंगे, मजबूरन अपना एक विशालकाय हिस्सा तोडक़र नीचे छोड़ देंगे, यही सच्चाई है। सडक़ों के निर्माण के समय अगर उच्च गुणवत्ता की दीवारें बनाई जाएं और पत्थरों को रोकने के लिए मजबूत जाल बिछाए जाएं तो कम से कम इनके सहारे हादसे की तीव्रता को तो कम किया जा सकता ही है। हिमालयी इलाकों में भूस्खलन और पहाड़ों के गिरने के मामले निरंतर देखने को मिल रहे हैं। क्या सच में हिमाचल के पहाड़ कमजोर हो चुके हैं, अंदर से खोखले हैं? दुख होता है जब इन हादसों का ठीकरा प्रकृति मां के सिर फोड़ दिया जाता है, लेकिन इनमें से ज्यादातर मामलों में प्रकृति को हम दोष नहीं दे सकते हंै क्योंकि बिना सही प्लानिंग और वैज्ञानिक तरीकों के विकास कार्य कराने का ऐसा नतीजा सामने आना लाजमी है। बारिश के समय में परिवर्तन और लगातार बढ़ रही गर्मी की वजह से भी पहाड़ों की सेहत पर असर पड़ता है। बताया जाता है कि सतलुज घाटी में 140 हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स लाने की तैयारी भविष्य में है। यानी यह इलाका भी उत्तराखंड के चमोली और केदारनाथ जैसे हादसों की चपेट में कभी भी आ सकता है। पर्यावरणविदों का कहना है कि हिमालय के इलाकों में खासतौर से सतलुज और चिनाब घाटी में कोई भी प्रोजेक्ट शुरू करने से पहले इनसे पडऩे वाले दुष्प्रभावों पर अध्ययन किया जाना आवश्यक है। आजकल हर कोई पहाड़ों पर जाकर रहना चाहता है। वहां संपत्ति खरीदना चाहता है।

पहाड़ों पर तेजी से शहर विकसित हो रहे हैं। ज्यादा शहरीकरण की फिराक में पहाड़ों की हालत खस्ता हो रही है। पहाड़ों पर ज्यादा शहर बनेंगे तो उसकी मिट्टी की फिल्टरेशन क्षमता कम हो जाएगी। ऐसे में तेज बारिश से फ्लैश फ्लड या भूस्खलन की आशंका बढ़ जाती है। पहले जो बारिश पूरे सीजन में होती थी, अब वो कुछ ही दिन में हो जाती है। इसकी वजह से भूस्खलन और पहाड़ों के गिरने की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। एक वजह और भी है और वो है ग्लेशियरों के पिघलने से जो बर्फ, मिट्टी, पत्थर और कीचड़ आता है, वो पहाड़ों और घाटियों की मिट्टी की ऊपरी सतह पर जमा हो जाता है। इनके दबाव से पहाड़ों की मिट्टी कमजोर होती है। फिर धीरे-धीरे ये ही दरक कर गिरने लगता है। हिमाचल प्रदेश के चंबा, किन्नौर, कुल्लू, मंडी, शिमला, सिरमौर और ऊना जिले फ्लैश फ्लड, भूस्खलन, बादलों के फटने जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति ज्यादा संवेदनशील हैं। कुछ दिन पहले किन्नौर के निगुलसरी व उससे एक महीना पहले किन्नौर के ही चितकुल मार्ग पर पहाड़ दरकने की घटनाएं बड़े खतरे की ओर इशारा करती हैं, जिसके लिए सभी को सतर्क रहना होगा।

प्रो. मनोज डोगरा

लेखक हमीरपुर से हैं


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