प्रतिक्रिया : हिमालयी संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है

By: Aug 15th, 2021 12:04 am

बल्लभ डोभाल, मो.-8826908116

आठ अगस्त को ‘दिव्य हिमाचल’ के साहित्यिक पृष्ठ ‘प्रतिबिंब’ पर डा. मनोरमा शर्मा का ‘हिमाचली लोक गायन एवं लोक संगीत में सृजन’ आलेख अच्छा लगा। साथ में गायकों और गीतकारों का संक्षिप्त परिचय देना भी जरूरी था। हिमाचल की बात करें तो विगत साठ के दशक में श्री यशवंत सिंह परमार साहब ने इस प्रदेश को पंजाब से अलग कर हिमाचल प्रदेश नाम से प्रतिष्ठित किया था, जो आज देश के सभी प्रदेशों के मध्य अपनी निराली छवि के साथ आकर्षित कर रहा है। देश के चारों ओर फैले ये छोटे-बड़े पहाड़ी प्रदेश हिमालय के ही अंग हैं, जो हिमालयी शांति, सौंदर्य, सुख-संतोष और स्वास्थ्य के संदेश सबको देते रहे हैं। कहा जाए कि हिमालयी संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।

प्राचीन गं्रथों में, वेद-पुराणों से लेकर रामायण, महाभारत तक हिमालय को ही स्वर्ग कहा गया है। वहां यह केवल स्वर्ग न होकर ‘पंचजन स्वर्ग’ नाम से जाना जाता था। तब यह भारत देश न होकर आर्य देश नाम से विख्यात था। इस पंचजन स्वर्ग प्रदेश में त्रिविष्टप (तिब्बत) सबसे ऊंचा देवों का प्रदेश था, जिसके नायक इंद्र थे। आर्यों का दूसरा वंश नाग वंश था, जिसके नायक शिव थे।

तीसरा यक्ष गणराज्य अलकापुरी से शासित होता था, बद्रीनाथ के निकट अलकापुरी बांक नामक जगह है, जिसके शासक कुबेरों को बताया गया है। स्वर्ग का चौथा गणतंत्र गांधार प्रदेश अपनी विशिष्टताओं के कारण पंचजन में श्रेष्ठ माना गया है, वहां गंधर्वों का शासन था। अपने गायन, वादन और मधुर स्वर लहरियों के लिए किन्नर गणराज्य के अंतर्गत कांगड़ा, कुल्लू, चंबा और जम्मू का कुछ भाग शामिल था। इन पांच जनपदों ने मिलकर हिमालय में पंचजन स्वर्ग की स्थापना की, जिसे इंद्र के शासन के अंतर्गत हर प्रकार से समृद्ध बनाया गया। प्राचीन ग्रंथों में इस पंचजन स्वर्ग की भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों का विस्तार से वर्णन आता है। किन्नर गणराज्य के लोग संगीत में पारंगत थे।

आयुर्वेद के आचार्य वाग्भट्ट ने एक जगह लिखा है कि- ‘हिमालय पर स्वर्ग सूना हो जाता यदि किन्नर-किन्नरियां गौरी के प्रणय उत्सव गान गा-गाकर न सुनाते। इंद्र का नंदन कानन और अमरावती अपने महत्त्व को खो देते यदि किन्नरों के हास, लास्य और विलास वहां के वातावरण में सप्त स्वरों की मधुर स्वर-लहरियां न प्रवाहित करते।’ स्वरों की मधुरिमा के लिए किन्नर कंठ प्राचीन इतिहास में आदर्श बनकर रह जाता है। वहीं किन्नर देश की राजधानी लाहुल बताई गई है।

कुलूत देश (कुल्लू) का ही दूसरा केंद्र लाहुल था। तब शकदेश (ताशकंद) की ओर से पिशाच और राक्षसों के आक्रमण लाहुल विजय के लिए बराबर होते रहे, किंतु स्वर्ग के पराक्रमी योद्धाओं ने- जिनमें किन्नरों का स्थान आगे रहा- आक्रांताओं के दांत खट्टे कर दिए। इसलिए उन बर्बर जातियों में यह कहावत सदा के लिए बन गई कि- लाहौल बिला कूबत- अर्थात जिनमें कूवत (सामर्थ्य) नहीं, वे लाहुल क्या जीत पाएंगे। किन्नरों में धुरंधर त्यागी और दार्शनिक भी हुए हैं।

अपने निरुक्त ग्रंथ में यास्काचार्य ने भी किन्नरों से संबंधित अनेक घटनाओं का वर्णन किया है। नृत्य-गायन में गांधार जनपद भी किसी से पीछे नहीं रहा। उनके द्वारा तुम्बरू और वीणा ऐसे आविष्कार हैं कि स्वरों पर शासन करने के लिए जिनसे आगे कोई न जा सका। देव, नाग, यक्ष और किन्नरों द्वारा धनुष-बाण, गदा आदि शस्त्रों से भले शत्रुओं को पराजित किया हो, किंतु गांधारों ने अपने तुम्बरू और वीणा से बड़े-बड़े दुर्दान्तों को झुका दिया था। घृताची, मेनका, रम्भा, गोपाली, चित्रसेना जैसी अप्सराओं की थिरकन पर जब तुम्बरू और वीणा ने झंकार दी तो बलि जैसे असुरों के ‘पाश’ और इंद्र जैसे देवताओं के हाथ से ‘बज्र’ गिर पड़े।

जिस वेद पर देवों ने किसी को हाथ नहीं लगाने दिया, उस ऋग्वेद को स्वरों की सात तंत्रियों में कसकर गांधारियों ने सामवेद की रचना कर डाली। तब वहां गंधर्व विवाह सामाजिक संरक्षण का एक प्रकार था तो दूसरी ओर गांधारी जैसी पतिव्रताएं भी थीं, जिन्होंने अंधे पति धृतराष्ट्र के साथ आजीवन आंखों पर पट्टी बांध ली।

…दरअसल ये सब तो पंचजन स्वर्ग की बातें हैं। हमें तो यहां मनोरमा जी के आलेख से जो प्रेरणा मिली, उस पर यह कहना है कि किन्नर लोक कला जीवन पर थोड़ा विस्तार से लिखकर इस दिशा में वर्तमान हिमाचली उपलब्धियों को उस परंपरा से जोड़ दिया जाता तो उनका यह आलेख लोक जीवन में साहित्य कला का एक मानदंड जैसा बन सकता था।


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