वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कर्मचारी संगठनों की भूमिका

By: Aug 3rd, 2021 12:06 am

राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता व प्रतिशोध की भावना से ग्रस्त होकर वे एक-दूसरे को ही प्रताडि़त करते हैं। सत्ता परिवर्तन के साथ गिरगिटों की तरह रंग बदलना ही प्रदेश के अधिकांश कर्मचारी संगठनों के नेतृत्व का मूल उद्देश्य बन चुका है, जो कि प्रदेश के लाखों कर्मचारियों के हितों के साथ खिलवाड़ है…

वर्तमान प्रदेश सरकार द्वारा अपने लगभग 3 वर्ष से अधिक के कार्यकाल के उपरांत प्रदेश अराजपत्रित कर्मचारी संघ के अध्यक्ष के रूप में श्री अश्वनी ठाकुर के गुट को मान्यता प्रदान करना प्रदेश के विभिन्न कर्मचारी संगठनों की राजनीति एवं नेतृत्व के मध्य नवीन द्वंद्व एवं विरोधाभास को उत्पन्न करने के बराबर है। प्रदेश सरकार का यह निर्णय अप्रत्याशित व प्रदेश की कर्मचारी राजनीति को अस्थिर करने के प्रयास को भी परिलक्षित करता है। केन्द्रीय सिविल सेवा संघ मान्यता नियम 1993 के नियम (5) के अंतर्गत कर्मचारी संगठनों के गठन का मुख्य उद्देश्य कर्मचारियों की सामान्य सेवा हितों की सुरक्षा को बढ़ावा देना है। इसी नियम के अधीन प्रदेश व देश में सरकारी कर्मचारी संगठनों के गठन का मूलभूत उद्देश्य सरकार द्वारा प्रशासनिक एवं राजनीतिक स्तर पर कर्मचारियों के विरुद्ध लिए गए असंवैधानिक निर्णयों को लेकर आलोचनात्मक एवं संघर्षपूर्ण दृष्टिकोण पर अधारित है। प्रदेश में अधिकांश कर्मचारी संगठनों का गठन केन्द्रीय सिविल सेवा संघ मान्यता नियम 1993 के नियम (5) के प्रावधान के अंतर्गत किया जाता है, जिसमें किसी भी कर्मचारी संगठन को सरकार द्वारा मान्यता प्रदान करने हेतु उस श्रेणी या कर्मचारी वर्ग के 35 प्रतिशत कर्मचारियों की सदस्यता के मापदंड के अंतर्गत होनी चाहिए। यह विचारणीय है कि क्या प्रदेश सरकार द्वारा अराजपत्रित कर्मचारी संगठन (अश्वनी गुट) को अनुमोदित की गई मान्यता केंद्रीय सिविल सेवा नियम के अनुरूप है, परंतु प्रदेश के अधिकांश कर्मचारी संगठन सेवा संघ नियमों के निर्धारित मापदंडों का उल्लंघन कर राजनीति कर रहे हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रदेश के अधिकांश कर्मचारी संगठनों का शीर्ष नेतृत्व सत्तापक्ष द्वारा कर्मचारी विरोधी निर्णयों की आलोचना के स्थान पर अपने व्यक्तिगत स्वार्थी हितों की पूर्ति हेतु सरकार व प्रशासन को इन निर्णयों के क्रियान्वयन हेतु अपनी सहमति प्रदान करते हैं।

 वर्तमान में इन संगठनों में राजनीतिक हस्तक्षेप प्रदेश के समस्त कर्मचारी सगंठनों की मूल स्वायत्तता के लिए घातक है, जिस कारण इन संगठनों का संगठनात्मक ढांचा खोखला एवं नेतृत्व दिन प्रतिदिन पंगु व असहाय होता जा रहा है। सामाजिक दायित्व एवं सरोकारों से इन सगंठनों के विमुख होने के कारण प्रदेश में स्वास्थ्य, शिक्षा व अन्य रोजगार के साधनों के निजीकरण के मार्ग को प्रशस्त करने में प्रमुख कारक की भूमिका का निर्वहन कर रही है, जोकि प्रदेश के लाखों बेरोजगार युवाओं के हितों के साथ खिलवाड़ है, जिसके परिणामस्वरूप सरकार द्वारा प्रदेश में अनुबंध आधार पर की गई भर्तियां, वर्ष 2003 के उपरांत नियुक्त कर्मचारियों की पेंशन व्यवस्था को निरस्त करना, करुणामूलक आधार पर नियुक्तियों हेतु अभ्यर्थियों के रोजगार को लेकर प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था व सरकार द्वारा नित नए नियमों का सृजन करना, प्रदेश में स्थायी स्थानांतरण नीति का अभाव, इन मुद्दों  के सार्थक हल में विफलता प्रदेश के विभिन्न कर्मचारी संगठनों व उनके नेतृत्व की विफलता को रेखांकित करती है। कर्मचारी संगठन देश व प्रदेश के लोकतंत्र व लोकतांत्रिक व्यवस्था का ही अभिन्न अंग है। इन संगठनों की निर्भीकता और निष्पक्षता भारतीय लोकतंत्र को सशक्त व अधिक मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है। इसके विपरीत प्रदेश के कर्मचारी संगठनों की शिथिलता एवं निष्क्रियता प्रशासन व सरकारी तंत्र  को निरंकुश व असंवैधानिक कार्यों को करने में अधिक स्वतंत्रता प्रदान करती है, जोकि प्रदेश के लाखों कर्मचारियों के संविधान प्रदत अधिकारों के हनन को इंगित करती है। कालांतर से ही सरकारी कर्मचारी होने का अभिप्राय सभ्य,  सुशील और मर्यादापूर्ण  व्यक्तित्व के प्रतिबिंब के रूप में उभरता है। इसके अतिरिक्त अनेक प्रशासनिक दायित्व, नैतिकता जैसे उच्च मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत व्यक्तित्व हमारे मानस पटल पर उदयमान होता है। परंतु वर्तमान परिस्थितियों में देश व प्रदेश के  सरकारी कर्मचारी के व्यक्तित्व  में  भ्रष्टाचार,  अकर्मण्यता  के  कारण  अनेक  विसंगतियों का  समावेश  हो  चुका  है, जिस  कारण  सरकारी  कर्मचारी  निरंतर  समाज  में  अपनी  उपयोगिता  व प्रासंगिकता को खोता जा रहा है।

 सरकारी कर्मचारियों के अतीत का यह सुनहरा अस्तित्व विस्मृत सा होता जा रहा है। प्रदेश के कर्मचारी संगठनों का राजनीतिकरण प्रदेश के लाखों कर्मचारियों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की दिशा में मुख्य बाधा है। प्रदेश में कर्मचारी आंदोलनों के इतिहास में सन् 1967 व 1971  के सार्थक संघर्ष के उपरांत वर्ष 1980 के दशक में प्रदेश अराजपत्रित कर्मचारी संगठन के नेतृत्व में किया गया चर्चित आंदोलन, जिसमें संघर्षरत कर्मचारियों पर तत्कालीन सरकार द्वारा गोलीबारी जैसी घटना, हिमाचल प्रदेश के कर्मचारी आंदोलन  के इतिहास में एक अलग अध्याय है। परंतु 1990 के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री शांता कुमार द्वारा कर्मचारी आंदोलन को ‘काम नहीं वेतन नहीं’ के सिद्धांत में संयोजित करने व उसको माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित करने के कारण प्रदेश में सरकारी कर्मचारी संगठनों के आंदोलनों की धार कुंद होती चली गई, जिसके परिणामस्वरूप वर्तमान में प्रदेश के अधिकांश सरकारी कर्मचारी संगठन मात्र प्रदेश के राजनेताओं एवं सत्तापक्ष की कठपुतली बनकर, कर्मचारी संगठनों के गठन के मूल उद्देश्य, जिसमें सरकार व कर्मचारी संगठनों के मध्य परस्पर संघर्ष की मूल प्रवृत्ति को तिलांजलि दे चुके हैं व इन संगठनों के नेतृत्व ने प्रदेश के सामान्य कर्मचारियों को इतना दिग्भ्रमित कर दिया है कि प्रदेश के सामान्य कर्मचारी इन संगठनों के नेताओं को ही अपना सर्वेसर्वा मानने लगते हैं, क्योंकि प्रदेश के कुछ सरकारी कर्मचारी  ंसंगठनों का शीर्ष नेतृत्व राजनीतिक व प्रशासनिक सांठगांठ के कारण प्रदेश में स्थानांतरण माफिया के रूप में भी सक्रिय रहता है। वोट केन्द्रित राजनीति के कारण वर्तमान में कुछ सरकारी कर्मचारी संगठन व उनका नेतृत्व पार्टी विशेष का चुनाव प्रचार करने को भी तत्पर रहते हैं। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता व प्रतिशोध की भावना से ग्रस्त होकर वे एक-दूसरे को ही प्रताडि़त करते हैं। सत्ता परिवर्तन के साथ गिरगिटों की तरह रंग बदलना ही प्रदेश के अधिकांश कर्मचारी संगठनों के नेतृत्व का मूल उद्देश्य बन चुका है, जोकि प्रदेश के लाखों कर्मचारियों के हितों के साथ खिलवाड़ है।

किशन बुशैहरी

लेखक नेरचौक से हैं


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