एनडीए में छात्राओं को प्रवेश के निहितार्थ

बहरहाल युद्ध नीति के अनुसार जब जंग लाजिमी हो तो लाव-लश्कर नहीं देखे जाते। रणक्षेत्र में कामयाबी कुशल सैन्य रणनीति, अदम्य साहस तथा तकनीकी सैन्य नेतृत्व पर निर्भर करती है। पुरुष वर्चस्व माने जाने वाले सैन्य मोर्चों पर महिला सैनिक ड्यूटी निभाने की पूरी सलाहियत रखती हैं। सैनिक स्कूलों में बालिका कैडेट्स का कोटा बढ़ाना होगा…

वर्तमान समय में देश की महिलाएं सशस्त्र सेनाओं में शामिल होकर राफेल जैसे अत्याधुनिक जंगी जहाजों की परवाज से आसमान की बुलंदियों को छू रही हैं। भारतीय सेना के जंगी बेडे़ में शामिल हो चुके इन लड़ाकू विमानों की गूंज ने चीन व पाकिस्तान जैसे हमशाया मुल्कों में इंतशार पैदा कर दिया है। राजपथ पर गणतंत्र दिवस समारोहों में सैन्य दस्तों का शानदार नेतृत्व व रेगिस्तान के तपते मरुस्थलों तथा हजारों फीट ऊंचे बर्फानी क्षेत्रों में महिला सैन्य अधिकारी अपनी सक्रिय भूमिका निभाने के साथ थलसेना के इमदादी दस्तों की सदारत भी संभाल रही हैं। रक्षा मंत्रालय ने सन् 1992 से ‘स्पैशल एंट्री स्कीम’ के तहत सेना के कम्बैट विंग की कुछ शाखाओं में ‘शार्ट सर्विस कमीशन आफिसर’ के तौर पर महिला अधिकारियों की भर्ती की थी। शुरुआती दौर में उन महिला अधिकारियों का कार्यकाल पांच वर्ष था जिसे बाद में दस वर्ष व चौदह वर्षों तक बढ़ाया गया।

 सन् 2003 में कुछ महिला अधिकारियों ने सेना में स्थायी कमीशन के लिए हाईकोर्ट में चुनौती पेश की थी। फरवरी 2020 को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने महिला अधिकारियों की इस मांग को जायज करार देकर तस्लीम कर लिया। 18 अगस्त 2021 को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक अन्य ऐतिहासिक फैसले में छात्रा कैडेट्स को ‘राष्ट्रीय रक्षा अकादमी’ (एनडीए) की परीक्षा में शामिल होने की अनुमति दी है। इसके लिए रक्षा मंत्रालय 2022 तक आवश्यक तंत्र विकसित करेगा, जो कि रक्षा क्षेत्र में महिलाओं के कैरियर व सैन्य नेतृत्व की दिशा में बड़ा कदम है। रक्षा मंत्रालय ने सन् 2017 में देश के सैनिक स्कूलों में छात्राओं को प्रवेश दिलाने की पहल की थी। उस समय मिजोरम में स्थित ‘द्दिगंद्दिप’ सैनिक स्कूल ने ‘पायलट प्रोजेक्ट अभियान’ के तहत अपने शैक्षणिक सत्र में छात्राओं को सबसे पहले प्रवेश दिया था। मगर अब देश के कुल 33 सैनिक स्कूलों ने 10 प्रतिशत आरक्षित कोटा सुनिश्चित करके छात्राओं को छठी क्लास से दाखिला देने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। देश के इन्हीं सैनिक स्कूलों में हिमाचल प्रदेश में मौजूद एकमात्र सैनिक स्कूल ‘सुजानपुर टीहरा’ भी शामिल है। पिछले चार दशकों में यहां से निकले कई सैन्य अधिकारियों ने मातृभूमि की रक्षा में शौर्य पराक्रम के कई मजमून लिखे हैं। सशस्त्र बलों में सख्त प्रशिक्षण व सरहदी इलाकों तथा दुगर्म पहाड़ी क्षेत्रों में सैन्य सेवाएं निभाना किसी भी सैनिक के लिए जोखिम भरा कार्य होता है। इन चुनौतियों से जूझने के लिए सैनिकों को मानसिक व शारीरिक तौर पर हरदम सशक्त रहना होता है। हिमाचल की भोगौलिक परिस्थितियों के मद्देनजर पहाड़ के युवा इन सब मापदंडों पर श्रेष्ठ साबित होते हैं।

 इसके अलावा सुरक्षा बलों द्वारा सैन्य  अभियानों को अंजाम देने में व अन्य सुरक्षा एजंेसियों तथा विश्व स्तर पर देश की नुमाइंदगी करने वाले युवा अधिकारियों में प्रभावी नेतृत्व क्षमता बहुत मायने रखती है। छात्रों के लिए यह बुनियादी चीजें गुणवत्तायुक्त शिक्षा पर निर्भर करती हैं, चूंकि भारतीय सेना ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ के सैन्य मिशनों में भूमिका निभाने वाले अग्रणी देशों में शुमार करती है। कैडेट्स के अंदर चरित्र निर्माण, नेतृत्व, निर्णय व निर्देश जैसी लीडरशिप क्षमता को विकसित करने व सामरिक विषयों की तरबियत तथा राष्ट्रवाद के जज्बात उत्पन्न करने में देश के सैनिक स्कूल कई वर्षों से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। मौजूदा दौर में देश के रक्षा क्षेत्र व अन्य सुरक्षा एजेंसियों में महिलाओं की भागीदारी में लगातार इजाफा हो रहा है। सर्वोच्च सैन्य सम्मान दो ‘विक्टोरिया क्रास’ व चार ‘परमवीर चक्र’ से सुसज्जित वीरभूमि हिमाचल की बालिकाओं में भी राष्ट्र के प्रति बलिदान का भाव तथा मातृभूमि की रक्षा का जज्बा कम नहीं है। लिहाजा हिमाचल के गौरवशाली सैन्य इतिहास के मद्देनजर मौजूदा राज्य सरकार को चाहिए कि प्रदेश में सैनिक स्कूलों की संख्या बढ़ाने के लिए रक्षा मंत्रालय का ध्यान आकर्षित करे, ताकि सैन्य पृष्ठभूमि का गढ़ रहे हिमाचल में सैन्य वर्दी पहनने की हसरत रखने वाली बालिका कैडेट्स सशस्त्र बलों में शामिल होकर राज्य को गौरवान्वित कर सकें। हालांकि राज्य की ज्यादातर महिलाएं सेना की नर्सिंग व चिकित्सा कोर में अपनी सेवाएं दे रही हैं। ‘ब्रिटिश इंडियन आर्मी’ के दौर में सन् 1889 में स्थापित नर्सिंग कोर की महिलाओं ने विश्व युद्धों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अगस्त 1976 को मेजर जनरल जी. अलीराम ने ‘मिलिट्री नर्सिंग सेवा’ की निर्देशक का सफलतम नेतृत्व किया था।

 सन् 1942 में महिलाएं डॉक्टर के तौर पर ब्रिटिश इंडियन आर्मी में शामिल हुई थीं। सेना चिकित्सा कोर में महिला अधिकारियों ने चिकित्सा के साथ कई अन्य साहसिक कार्य भी किए हैं। 1964 में आर्मी मेडिकल कोर में शामिल हुई  डा. कर्नल जे. फरीदा रेहाना भारतीय सेना की पहली डाक्टर सर्जन तथा पैराट्रूपर का जोखिम भरा कोर्स करने वाली प्रथम भारतीय सैन्य अधिकारी थी। 1971 की भारत-पाक जंग में बांग्लादेश के महाज पर पैरा कमांडो बटालियन का हिस्सा रही थी। रक्षा क्षेत्र में अहम योगदान व अदम्य साहस के लिए डा. रेहाना को सेना ने ‘जनरल चौधरी ट्रॉफी’ से सम्मानित किया था। बेशक आजादी के 70 वर्षों बाद सशस्त्र बलों में महिला सदारत की कवायद शुरू हुई है, मगर आज़ादी के महानायक नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने जुलाई 1943 को आजाद हिंद फौज में महिला सेना विंग स्थापित किया था। जंग-ए-आज़ादी में ‘इडियन नेशनल आर्मी’ की उन बहादुर महिलाओं ने कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन के नेतृत्व में फिरंगी हुकूमत के खिलाफ इंकलाबी जंग लड़ी थी। बहरहाल युद्ध नीति के अनुसार जब जंग लाजिमी हो तो लाव-लश्कर नहीं देखे जाते। रणक्षेत्र में कामयाबी कुशल सैन्य रणनीति, अदम्य साहस तथा तकनीकी सैन्य नेतृत्व पर निर्भर करती है। पुरुष वर्चस्व माने जाने वाले सैन्य मोर्चों पर महिला सैनिक ड्यूटी निभाने की पूरी सलाहियत रखती हैं। ‘एनडीए’ में महिलाओं को प्रवेश व सेना में स्थायी कमीशन तथा सैनिक स्कूलों में छात्राओं को एडमिशन देना रक्षा मंत्रालय का सराहनीय प्रयास है, मगर सैन्य बलों में नारी सशक्तिकरण मिशन की सफलता के लिए सैनिक स्कूलों के विस्तार तथा उनमें बालिका कैडे्टस का कोटा बढ़ाने पर भी विचार करना होगा।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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