सल्तनत-ए-अफगान के फातिम थे ‘कहलूरिया’

बहरहाल आतंक का मरकज बनकर दहशतगर्दी की रहनुमाई करने वाले मुल्कों पर विश्व समुदाय में खामोशी की रजामंदी चिंता का सबब है। अफगानिस्तान के हालात से सीख मिलती है कि जम्हूरियत की बुलंदी पर बैठे हुक्मरानों के जहन में राष्ट्रहित में सख्त फैसले लेने की पूरी ताकत होनी चाहिए…

वर्तमान समय में अफगानिस्तान में तालिबान की मजहबी सल्तनत कायम होने से जो तशवीशनाक माहौल बना है उससे विश्व के कई देशों की चिंता बढ़ चुकी है। दो दशक तक सैन्य अभियानों को अंजाम देकर अमरीका तथा नाटो सेनाएं अफगानिस्तान से जिस कदर बेआबरू होकर रुखसत हुई हंै, यह लक्ष्यविहीन सैन्य मिशन नाटो सेनाओं तथा अमरीका की सुपर पावर छवि पर बदनुमा दाग साबित हुआ है जिसके दाग वर्षों तक इन सेनाओं के दामन पर मौजूद रहेंगे। 1980 के दशक में इसी अफगानिस्तान में सोवियत संघ की सेनाओं का भी यही हश्र हुआ था। अफगानिस्तान में अरबों रुपए के जंगी जखीरे छोड़कर जाना अमरीकी लीडरशिप पर कई सवाल खड़े करता है। बेशक आज अफगानिस्तान एक अलग मुल्क है, मगर भारत से अफगानिस्तान का हजारों वर्ष पुराना नाता रहा है।

 हमारे रामायण व महाभारत जैसे मुकद्दस ग्रंथों में गांधार, कंबोज व कैकेय आदि राज्यों का पर्याप्त जिक्र है, बल्कि गांधार साम्राज्य भारत के प्राचीन 16 महाजनपदों का हिस्सा था। हजारों वर्ष पूर्व शिक्षा व चिकित्सा का केन्द्र ‘तक्षशिला’ गांधार साम्राज्य की राजधानी थी। प्राचीन काल से ही अफगान योद्धाओं की गिनती दुनिया के बेहतरीन लड़ाकों में होती आई है। अफगानिस्तान में अमरीका व सोवियत संघ जैसी ताकतवर सेनाओं की करारी शिकस्त इसका पुख्ता प्रमाण है, मगर भारत की सरजमीं पर कई महान रणबांकुरे हुए जिन्होंने अफगान व अरब आक्रांताओं को रणक्षेत्र में धूल चटाकर वहां भारतीय पताका फहराई थी। हमें गर्व है कि अफगान लड़ाकों को रणभूमि में शिकस्त देकर उनके भू-भाग को अपने साम्राज्य में मिलाने की सलाहियत रखने वाले योद्धाओं की फेहरिस्त में वीरभूमि हिमाचल के शूरवीरों का नाम भी शामिल है। कश्मीर के फातिम ‘जनरल जोरावर सिंह कहलूरिया’ (1786-1841) ‘नैपोलियन ऑफ ईस्ट’ सैन्य पराक्रम की अजीम शख्सियत, सेनानायक, कुशल सैन्य रणनीतिकार तथा सामरिक विषयों व पर्वतीय रणकौशल में माहिर थे। धर्मशाला के युद्ध स्मारक पर मौजूद उनका मुजस्मा खुद उनके शौर्य पराक्रम की तस्दीक करता है। जम्मू-कश्मीर रियासत के महाराजा गुलाब सिंह के सेनापति महान जरनैल जोरावर सिंह ने अपनी डोगरा फौज के साथ फरवरी 1840 में बाल्टिस्तान के शासक ‘अहमद शाह’ के सिपहसालार वजीर गुलाम हुसैन को ‘थोमोकोन’ के रणक्षेत्र में उसके सैकड़ों सैनिकों के साथ मौत की नींद सुलाकर अफगान सेना को पराजित करके बाल्टिस्तान, गिलगिट, स्कर्दू व थामोकोन आदि क्षेत्रों को जम्मू-कश्मीर रियासत का हिस्सा बना दिया था। सन् 1893 में अंग्रेज अधिकारी हेनरी मोर्टिमर ‘डूरंड’ ने भारत व अफगानिस्तान के बीच में 2670 किलोमीटर लंबी ‘डूरंड लाइन’ के जरिए सीमा तय कर दी थी। 1948 में ‘नियंत्रण रेखा’ के वजूद में आने के बाद जोरावर सिंह द्वारा जीते गए क्षेत्रों के एक बड़े हिस्से को पाकिस्तान ‘पाक अधिकृत कश्मीर’ के रूप में कब्जा करके अपनी जागीर मान बैठा है।

 इसी पीओके में भारत व अफगान की 106 किलोमीटर लंबी सरहद मौजूद है। यदि उससे भी पूर्व वीरभूमि का सैन्य इतिहास खगालें तो ज्ञात होगा कि औरंगजेब की हुकूमत में पाक-अफगान सरहद पर मौजूद ‘अटक’ के किले पर पठान सेना ने कब्जा जमा लिया था। औरंगजेब ने अपने कुछ सैनिक देकर ‘अटक’ के किले पर सैन्य अभियान की कयादत कहलूर रियासत (बिलासपुर) के चंदेल वंशीय शासक दीपचंद (1653-1665) को सौंपी थी। राजा दीप चंद ने अपनी रियासत की राजपूत सेना के साथ पठानों को मैदान-ए-जंग में धूल चटाकर अटक के किले को जीतकर कुशल सैन्य संचालन व शूरवीरता का परिचय दिया था। उस सैन्य मिशन की फतह की एवज में औरंगजेब ने राजा दीप चंद चंदेल को बाईस पहाड़ी रियासतों की सदारत सौंप दी थी। पाकिस्तान के मुल्तान शहर (कटोचगढ़) में ‘त्रिगर्त’ साम्राज्य (कांगडा) के कटोच वंशीय शासकों द्वारा 800 ई.पू. बनवाया गया किला पाकिस्तान की छाती पर आज भी कटोच वंश के राजपूतों के शौर्य पराक्रम का प्रतीक बनकर पूरी शान से खड़ा है। बप्पा रावल (713-810) ‘फादर ऑफ रावलपिंडी’ भारतीय इतिहास का महान् पराक्रमी योद्धा जो अरब व अफगान आक्रमणकारियों के लिए खौफ का दूसरा नाम था, पाकिस्तान का ‘रावलपिंडी’ शहर उसी बप्पा रावल के नाम से जाना जाता है।

 बप्पा रावल ने रावलपिंडी में अरब आक्रांताओं के खिलाफ अपना सैन्य ठिकाना बनाकर सिंध से अरबों को भगाकर अफगान, खुरासान से लेकर ईरान तक अपनी विजय पताका फहरा दी थी। 12 सितंबर 1897 को सारागढ़ी के किले में सैकड़ों अफगान विद्रोहियों को मौत के घाट उतार कर शहीद होने वाले ब्रिटिश इंडियन आर्मी की 36वीं सिख बटालियन के 21 सैनिकों को बर्तानवी हुकूमत ने ‘इडियन आर्डर ऑफ मेरिट’ से नवाजा था। ‘यूनेस्को’ सारागढ़ी के उस ऐतिहासिक युद्ध को अपनी आठ महानतम लड़ाइयों में शामिल कर चुका है। जाहिर है राष्ट्र की रक्षा व स्वाभिमान के प्रति हमारे पूर्वज शूरवीरों में दुश्मन को ध्वस्त करने का जज्बा कम नहीं था, मगर विडंबना यह रही कि हमारे इतिहासकारों, शिक्षा तंत्र व सिनेमा जगत के अदाकारों ने भी धार्मिक स्थलों को लूटने वाले विदेशी आक्रांताओं का ही महिमामंडन किया, जबकि रणक्षेत्र में अपनी शमशीरों से दुश्मन का हलक सुखाकर रक्तरंजित इतिहास लिखने वाले देश के वास्तविक योद्धा गुमनामी के दौर में चले गए। बहरहाल आतंक का मरकज बनकर दहशतगर्दी की रहनुमाई करने वाले मुल्कों पर विश्व समुदाय में खामोशी की रजामंदी चिंता का सबब है। अफगानिस्तान के हालात से सीख मिलती है कि जम्हूरियत की बुलंदी पर बैठे हुक्मरानों के जहन में राष्ट्रहित में सख्त फैसले लेने की पूरी ताकत होनी चाहिए। यदि आवाम अपना मुल्क छोड़कर शरणार्थी बनने पर मजबूर हो जाए तो यह कमजोर व लाचार सियासी व्यवस्था को दर्शाता है। सैन्य पराक्रम व सियासी नेतृत्व के तौर पर मजबूत राष्ट्र ही वैश्विक महाशक्ति कहलाते हैं। हमें नाज है कि भारत के पास हर चुनौती के लिए तत्पर रहने वाली एटमी ताकतों में शुमार सशस्त्र सेनाएं मौजूद हैं जो सरहदों पर दुश्मनों से निपटने तथा दहशतगर्दी के किरदारों को दफन करने में पूरी शिद्दत से मुस्तैद हैं।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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