जननायकों के स्मरण से दूर ‘स्वर्णिम हिमाचल’

कला, साहित्य, संस्कृति का क्षेत्र सरकार व राजनीतिक दलों के लिए हमेशा ही उपेक्षा से भरपूर रहा है। यशपाल जैसे महान लेखक व क्रांतिकारी का स्मरण भी आवश्यक है। इसके अलावा भी कई जननायकों को भुला दिया गया है…

हिमाचल प्रदेश ने पूर्ण राज्यत्व के 50 वर्ष 25 जनवरी 2021 को पूरे किए। दूसरी ओर स्वाधीनता के बाद 75वें वर्ष में प्रवेश पर भारत सरकार ने आज़ादी को अमृत महोत्सव के रूप में साल भर मनाने का निर्णय लिया। यह महोत्सव 15 अगस्त 2021 को शुरू हुआ है। निश्चित रूप से हिमाचल जैसे पहाड़ी प्रांत के लिए यह गर्व का विषय है कि 1948 में अस्तित्व में आने के बाद यह प्रांत करीब 23 साल तक पूरे राज्य के दर्जे के लिए संघर्षरत रहा। इन 50 सालों में विकास के विभिन्न क्षेत्रों में हिमाचल ने जो कीर्तिमान स्थापित किए हैं, उनका यशोगान वर्तमान सरकार का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण एजेंडा है जो अपने सर्वथा नेक इरादों के दरम्यान नए विमर्श व नए मंथन की खिड़कियां खोलता है। स्वर्णिम हिमाचल के प्रचार-प्रसार के लिए सरकार ने करोड़ों का खजाना खोला है। यानी जिस प्रकार धर्मशाला में कुछ साल पहले इन्वैस्टर्स मीट के नाम पर ‘मैगा शो’ के लिए 8-10 करोड़ रुपए जाया किए गए, उसी तर्ज पर ‘स्वर्णिम हिमाचल’ की सैलिब्रेशन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए मौजूदा भाजपा सरकार कमर कसे हुए है और इस काम के लिए बजट की कोई कमी प्रतीत नहीं होती। राजनीतिक विश्लेषक इस कवायद को इस नज़रिए से भी देख रहे हैं कि 2022 में हिमाचल में विधानसभा चुनाव हैं और स्वर्णिम हिमाचल के रथ पर सवार होकर शायद 1985 के बाद भाजपा पुनः सत्ता पर काबिज होने का ख्वाब देख रही है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन जो सरकर 60 हजार करोड़ से अधिक कर्ज़ के बोझ तले दबी हो, वहां फिज़ूलखर्ची पर अंकुश लगाने की बजाय राजकोष को या फिर टैक्स अदा करने वाले जनमानस के पैसे की ़िफजूलखर्ची को भला कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है? हिमाचल सरकार ने स्वर्णिम हिमाचल नाम से एक कॉफी टेबुल बुक प्रकाशित की है जो विकास के आंकड़ों से भरपूर है। इसमें अतिविशिष्ट व विशिष्ट व्यक्तियों के संदेशों की भरमार है तो शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कें, कृषि, बागबानी आदि सहित 1971 के बाद हुए करीब सभी इदारों में विकास का शानदार ब्यौरा है। छायाचित्र ऐसे कि देखते ही आपका दिल खुश हो जाए। परमवीर चक्र सहित उन सेना के अफसरों या जवानों का भी ज़िक्र है जिन्होंने सीमा पर विभिन्न युद्धों में वीरता मैडल प्राप्त कर हिमाचल को गौरवान्वित किया है। यह अध्याय इस बड़ी सी पुस्तक का अपवाद है जिसे दो-तीन पृष्ठों में समेटा गया है। आलोचना इस बात को लेकर हो रही है कि 3,700 रुपए की एक प्रति कीमत के हिसाब से 1000 प्रतियों की कीमत 37 लाख बनती है, जिसे राजनेताओं, अधिकारियों, मीडिया व अन्य विशिष्ट व्यक्तियों में मुफ्त बांटा गया है।

 इस कॉफी टेबुल बुक के कंटंेट को लेकर मतभेद व असंतोष का मुद्दा यह है कि इसमें गत 74 सालों में सत्तासीन रहे मुख्यमंत्रियों का भरपूर गुणगान व महिमा मंडन है और हिमाचल के वास्तविक हीरो या जननायकों का उल्लेख गायब है। हिमाचल के सर्वोच्च जननायक डॉ. यशवंत सिंह परमार पर भी पासिंग रैफरेंस के रूप में एक लेख है जिसमें कहा गया है कि जब 2 मई 1981 को उनका निधन हुआ था तो उनका बैंक बैलंेस मात्र 563 रुपए था। इससे ज़ाहिर होता है कि डॉ. परमार ईमानदार राजनेता थे जिन्होंने सही मायने में हिमाचल के निर्माण की आधाररिशला रखी। अगर हिमाचल को 1971 में पूरे राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ तो इसकी पृष्ठभूमि में डॉ. यशवंत सिंह परमार व उनकी पार्टी के जनप्रतिनिधियों की लंबी व प्रेरक संघर्ष गाथा है जिसके तहत 1948 के पश्चात संसाधनों के अभाव में सड़कों, पुलों का निर्माण हुआ, शिक्षा संस्थान खुले, अस्पताल बने व पनविद्युत परियोजनाओं का आरंभ हुआ। बागबानी व कृषि के क्षेत्र में डॉ. परमार का सर्वोपरि योगदान रहा। वे पैदल भ्रमण करते थे व जनसमस्याओं का निपटारा लोगों के घर-द्वार पर भी करते थे। लेकिन 25 जनवरी से लेकर यानी जब से ‘स्वर्णिम हिमाचल’ का बिगुल बजा है, सरकार ने तब से अपने जननायकों को विस्मृत सा कर रखा है। प्रश्न यह है कि क्या गत 50 साल में सत्तासीन रहे मुख्यमंत्री या विधानसभा स्पीकर ही हमारे वास्तविक जननायक हैं? सरकार की इस कवायद से यह संदेश जा रहा है कि 1971 से पूर्व हिमाचल में कोई खास विकास नहीं हुआ या फिर विकास को भाजपा के सत्ता में रहने के दौरान के सालों में ही पंख लगे? ऐसे प्रयास जनता को दिग्भ्रमित कर सकते हैं, लेकिन आज़ादी के अमृत महोत्सव और स्वर्णिम हिमाचल की चकाचौंध में उन महान जननायकों का स्मरण भी आवश्यक है जिन्होंने अपनी प्रतिभा, शौर्य, प्रेरक व्यक्तित्व, कृतित्व व अपने-अपने क्षेत्रों में अविस्मरणीय व बहुमूल्य योगदान के बल पर हिमाचल का देश-विदेश में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में छवि निर्माण किया।

 स्वर्णिम हिमाचल के इस मौजूदा साल में शायद किसी भी नेता ने सिरमौर की किंकरी देवी का ज़िक्र तक नहीं किया, जो भूखे-प्यासे रहकर सालों-साल सिरमौर में खनन माफिया के विरुद्ध जंग लड़ती रही और कामयाब भी हुई। बज़रीर राम सिंह पठानिया, कैप्टन राम सिंह ठाकुर-जन-गण-धुन के जनक, कैप्टन दल बहादुर थापा, मेजल दुर्गामल के नामों का जिक्र भी नहीं है। अनुपम खेर, प्रीति जिंटा, कंगना रणौत, प्रेम चोपड़ा, राजेंद्र कृष्ण, मोहित चौहान, यामिनी गौतम, बीआर इशारा, सिद्धार्थ चौहान, रूबीना डिलैक, दिलीप सिंह राणा द ग्रेट खली आदि तो शायद सरकार के रिकार्ड में जननायकों की सूची में शामिल ही नहीं हैं। आजादी के अमृत महोत्सव और स्वर्णिम हिमाचल के तथाकथित शोरगुल ने हिमाचल में आजादी के परवानों को नज़र-अंदाज सा कर दिया है। डॉ. परमार के अलावा पदमदेव, वैद्य सूरत सिंह, शिवानंद रमोल, परमानंद, सत्यदेव, सदा राम चंदेल, दौलत राम ठाकुर, हजारा सिंह, पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम, कामरेड अमीं चंद, इंद्रपाल आदि सभी स्वतंत्रता सेनानियों के परिजनों का मान-सम्मान सरकार उनके घर-द्वार जाकर कर पाए तो यह स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति सरकार की संवेदनशीलता व सम्मान का परिचायक होगा। कला, साहित्य, संस्कृति का क्षेत्र सरकार व राजनीतिक दलों के लिए हमेशा ही उपेक्षा से भरपूर रहा है। यशपाल जैसे महान लेखक व क्रांतिकारी का स्मरण भी आवश्यक है। इसके अलावा भी कई जननायकों को भुला दिया गया है। मात्र माननीय मुख्यमंत्रियों की जीवनियों के चश्मों से हिमाचल की विकास यात्रा को देखना व परखना सचमुच कितना पीड़ादायक है?

राजेंद्र राजन

वरिष्ठ साहित्यकार


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