गिलगित को लेकर जांच आयोग जरूरी

दरअसल पंडित नेहरू का वह पत्र एक बार फिर चर्चा में आ गया है जो उन्होंने उन्हीं दिनों अपनी बहन श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित को लिखा था। इस पत्र में उन्होंने कहा था कि यदि पाकिस्तान से समझौता करने की नौबत आ ही गई तो मैं गिलगित पाकिस्तान को देने को तैयार हूं। महाराजा हरि सिंह ने तो घनसारा सिंह को गिलगित का राज्यपाल नियुक्त कर दिया था और उन्होंने वहां कार्यभार भी संभाल लिया था, लेकिन हरि सिंह के ही प्रशासन में कौन सी शक्तियां थीं, जो घनसारा को कामयाब नहीं होने देना चाहती थीं। रामचंद्र काक फिर एक बार संदेह के घेरे में आते हैं। मेजर ब्राउन जो गिलगित स्काऊट्स के मुखिया थे, जिसने गिलगित में पाकिस्तान का झंडा फहराकर वहां पाकिस्तान सरकार का रेजिडैंट कमिश्नर नियुक्त कर दिया था, उसके पीछे क्या लार्ड माऊंटबेटन थे? पंडित नेहरू क्या माऊंटबेटन की इस योजना को जानते थे? भारतीय सेना ने जब कारगिल दुश्मन के कब्जे से छुड़वा लिया था तो उसे गिलगित तक जाने से किसने रोका था? ऐसे तमाम प्रश्न हैं जिनका उत्तर कोई निष्पक्ष जांच आयोग ही दे सकता है…

केंद्र शासित लद्दाख क्षेत्र का बहुत बड़ा भूभाग गिलगित और बलतीस्तान पाकिस्तान के कब्जे में है जो उसने 1948 में भारत पर आक्रमण कर हथिया लिया था। उसके बाद इस क्षेत्र को पाकिस्तान के कब्जे से छुड़ाने का भारत सरकार ने कोई उपक्रम नहीं किया। अलबत्ता देश की जनता के आक्रोश को शांत करने के लिए उस समय के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जाकर जरूर निवेदन करना शुरू कर दिया कि आप हमारा यह इलाका पाकिस्तान से छुड़वा कर वापस हमें दीजिए।  अब जवाहर लाल नेहरु इतने भोले तो नहीं थे कि वे जानते न हों कि जिन शक्तियों ने गिलगित-बलतीस्तान भारत से छीन कर पाकिस्तान के हवाले किया था, वही शक्तियां संयुक्त राष्ट्र संघ का संचालन कर रही थीं। सुरक्षा परिषद ने भारत को गिलगित-बलतीस्तान वापस दिलवाने की बजाय भारत को ही आदेश देना शुरू कर दिया कि लोगों की राय ले ली जाए। पंडित नेहरु तो लगभग इस बात पर सहमत ही हो गए थे, लेकिन लोगों के ग़ुस्से को देखते हुए उन्हें पीछे हटना पड़ा।

मृत्यु से पहले उन्होंने एक बार फिर शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को लाहौर भेज कर यह प्रयास किया कि गिलगित-बलतीस्तान पाकिस्तान को ही देकर शांति संधि कर ली जाए। लेकिन इस तथाकथित शांति संधि से पूर्व ही नेहरु का स्वर्गवास हो गया। उसके बाद पाकिस्तान ने गिलगित-बलतीस्तान का अस्तित्व ही समाप्त करने के लिए नई नीति अपनाई। गिलगित-बलतीस्तान में शिया मजहब को मानने वाले लोग रहते हैं। शिया मजहब के लोग कुरान शरीफ को तो मानते हैं, लेकिन हज़रत मोहम्मद के उन उत्तराधिकारियों को नहीं स्वीकार करते जिन्हें इस्लाम मजहब को मानने वाले मुसलमान स्वीकारते हैं। शिया मजहब को मानने वाले हज़रत मोहम्मद के बाद हज़रत अली को उत्तराधिकारी मानते हैं और उसके इस मजहब में इमामों की लंबी परंपरा चलती है। इसी प्रकार शिया मजहब को मानने वाले लोग हुसैन की शहादत की स्मृति में ताजिया निकालते हैं, जिसे मुसलमान मूर्ति पूजा कहते हैं। ध्यान रहे हुसैन को मुसलमानों की सेना ने कर्बला के मैदान में पूरे परिवार सहित मार डाला था।

अब पाकिस्तान सरकार गिलगित-बलतीस्तान में पंजाब और पख्तूनिस्तान से मुसलमानों को लाकर बसा रही है ताकि वहां मुसलमानों की संख्या ज्यादा हो जाए और शिया मजहब को मानने वाले गिलगिती और बलती अल्पसंख्यक हो जाएं। यह वही नीति है जो चीन सरकार तिब्बत को समाप्त करने के लिए उपयोग में ला रही है। तिब्बत में साठ लाख तिब्बती हैं। चीन की नीति है कि वहां तीन-चार करोड़ चीनी लाकर बसा दिए जाएं तो स्वाभाविक ही तिब्बती अल्पसंख्यक हो जाएंगे और कालांतर में उनकी पहचान समाप्त हो जाएगी। चीन यह नीति मंचूरिया में सफलतापूर्वक अपना चुका है। इसी नीति के अंतर्गत गिलगित-बलतीस्तान में शिया मजहब को लोगों पर हमले हो रहे हैं। पूजा-पाठ कर रहे शियाओं को उनके इबादतखानों में ही बम फेंक कर मारा जा रहा है, ताकि वे भय से शिया मजहब छोड़ कर इस्लाम मजहब को अपना लें। इतना ही नहीं, चीन की वन बैल्ट वन रोड योजना के अंतर्गत इस क्षेत्र में चीनियों का जमावड़ा भी लग रहा है। पिछले कुछ समय से गिलगित-बलतीस्तान के लोगों का आक्रोश सड़कों पर उतर आया है। वे पाकिस्तान सरकार के खिलाफ सार्वजनिक प्रदर्शन कर रहे हैं। वहां यह मांग बराबर उठ रही है कि यह हिस्सा भारत का है तो भारत सरकार अपने नागरिकों की मुक्ति के लिए कोई प्रयास क्यों नहीं कर रही? ख़ासकर जो चक और बलती अमेरिका इत्यादि देशों में जाकर बस गए हैं वे यह मांग बड़े ज़ोर से उठा रहे हैं। आशा करनी चाहिए कि भारत सरकार इस दिशा में गंभीरता से सोच-विचार करेगी ही। लेकिन गिलगित-बलतीस्तान को पाकिस्तान के हवाले करने का जो षड्यंत्र 1947-48 में रचा गया, उसकी जांच करवाना जरूरी हो गया है, क्योंकि गिलगित-बलतीस्तान पाकिस्तान के हाथों में दे दिए जाने के कारण ही आज भारत मध्य एशिया से कट गया है और इसी कारण से चीन को कराकोरम राज मार्ग बना कर बलूचिस्तान में गवादर बंदरगाह बनाने का अवसर प्राप्त हो गया है।

दरअसल पंडित नेहरु का वह पत्र एक बार फिर चर्चा में आ गया है जो उन्होंने उन्हीं दिनों अपनी बहन श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित को लिखा था। इस पत्र में उन्होंने कहा था कि यदि पाकिस्तान से समझौता करने की नौबत आ ही गई तो मैं गिलगित पाकिस्तान को देने को तैयार हूं। महाराजा हरि सिंह ने तो घनसारा सिंह को गिलगित का राज्यपाल नियुक्त कर दिया था और उन्होंने वहां कार्यभार भी संभाल लिया था, लेकिन हरि सिंह के ही प्रशासन में कौन सी शक्तियां थीं, जो घनसारा को कामयाब नहीं होने देना चाहती थीं। रामचंद्र काक फिर एक बार संदेह के घेरे में आते हैं। मेजर ब्राउन जो गिलगित स्काऊट्स के मुखिया थे, जिसने गिलगित में पाकिस्तान का झंडा फहराकर वहां पाकिस्तान सरकार का रेजिडैंट कमिश्नर नियुक्त कर दिया था, उसके पीछे क्या लार्ड माऊंटबेटन थे? पंडित नेहरु क्या माऊंटबेटन की इस योजना को जानते थे? भारतीय सेना ने जब कारगिल दुश्मन के कब्जे से छुड़वा लिया था तो उसे गिलगित तक जाने से किसने रोका था? ऐसे तमाम प्रश्न हैं जिनका उत्तर कोई निष्पक्ष जांच आयोग ही दे सकता है। अब वैसे भी उस समय के बहुत से दस्तावेज, जो इंग्लैंड ने अब तक डीक्लासीफाई कर दिए हैं, इस जांच को आगे बढ़ा सकते हैं। भारत सरकार यदि ऐसा आयोग नियुक्त करती है तो निश्चय ही कई चेहरों से पर्दा उठ जाएगा। गिलगित-बलतीस्तान के लोग भी शायद इस जांच आयोग का स्वागत करेंगे। गिलगित और बलतीस्तान में पाकिस्तान के खिलाफ जो स्वाभाविक आक्रोश है, उस स्थिति का भारत को लाभ उठाना चाहिए। पाकिस्तान एक सोची-समझी रणनीति के तहत इस क्षेत्र में सुन्नी मुसलमानों तथा चीनियों को बसा रहा है। इससे जन-सांख्यिकी गड़बड़ा जाने की पूरी आशंका है। भारत सरकार को अब सचेत हो जाना चाहिए तथा जल्द से जल्द इस क्षेत्र में अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए वे सभी कदम उठाने चाहिए जो जरूरी हैं। भारत के लिए ऐसा करना लाभप्रद होगा।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल : kuldeepagnihotri@gmail.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App