उर्दू अदब की आग बुझी नहीं अभी

By: Oct 17th, 2021 12:08 am

सुदर्शन वशिष्ठ

मो.-9418085595

कविता एक सांस्कृतिक व सामाजिक प्रक्रिया है। इस अर्थ में कि कवि जाने-अनजाने, अपने हृदय में संचित, स्थिति, स्थान और समय की क्रिया-प्रतिक्रिया स्वरूप प्राप्त भाव-संवेदनाओं के साथ-साथ जीवन मूल्य भी प्रकट कर रहा होता है। और इस अर्थ में भी कि प्रतिभा व परंपरा के बोध से परिष्कृत भावों को अपनी सोच के धरातल से ऊपर उठाते हुए सर्वसामान्य की ज़मीन पर स्थापित कर रहा होता है। पाठक को अधिक मानवीय बनाते हुए और एक बेहतर समाज की अवधारणा देते हुए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रचनात्मकता का विश्लेषण और मूल्यांकन जरूरी है। यथार्थ के समग्र रूपों का आकलन आधारभूत प्राथमिकता है। यदि यह आधार खिसक गया तो कवि कर्म पर प्रश्न उठेंगे।…हिमाचल प्रदेश में कविता व ग़ज़ल की सार्थक तथा प्रभावी परंपरा रही है। उसी को प्रत्यक्ष-परोक्ष, हर दृष्टि और हर कोण से खंगालने की चेष्टा यह संवाद है।… कुछ विचार बिंदुओं पर सम्मानित कवियों व समालोचकों की ज़िरह, कुम्हार का चाक/छीलते काटते/जो घड़ दे एक आकार। ‘हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में’ शीर्षक के अंतर्गत महत्त्वपूर्ण विचार आप पढ़ेंगे। जिन साहित्यकारों ने आग्रह का मान रखा, उनके प्रति आभार। रचनाकारों के रचना-संग्रहों की अनुपलब्धता हमारी सीमा हो सकती है। कुछ नाम यदि छूटे हों तो अन्यथा न लें। यह एक प्रयास है, जो पूर्ण व अंतिम कदापि नहीं है।

– अतिथि संपादक

हिमाचल प्रदेश में छंदमुक्त कविता से पहले गीत और ग़ज़ल का बोलबाला रहा है। उर्दू जुबान के अधिक प्रयोग के कारण यहां गीत और ग़ज़लों की परंपरा पनपी। पुराने हिमाचल में स्कूलों में उर्दू पढ़ाई जाती थी। उर्दू मिलाप जैसे उर्दू अखबार यहां लोकप्रिय थे। शे’र-ओ-शायरी की हिमाचल में एक स्वस्थ परंपरा रही है। किसी समय यहां आयोजित मुशाअरों में इतनी भीड़ होती थी कि लोग खड़े-खडे़ ग़ज़लें सुनते थे। गेयटी थियेटर में आयोजित मुशाअरों में गजब की भीड़ जुटती थी। भाषा विभाग द्वारा ‘कुल हिंद मुशाअरा’ हर वर्ष हुआ करता था। पीटरहॉफ में इंडो-पाक मुशाअरा अंतिम था जिसमें पाकिस्तान से शौहरा हजरात और शायरा आई हुई थीं। शिमला के मुशाअरों में हफीज जालंधरी, निदा फाजली, बशीर बद्र, मुनव्वर राणा, बसीम बरेलवी, शीन काफ निजाम, कश्मीरीलाल जाकिर, आजाद गुलाटी जैसे शौहरा हजरात आ चुके हैं। दुनिया बदली। लोग बदले। प्रदेश में उर्दू के जानकार और शौहरा हजरात लुप्त हो रही बाघ प्रजाति की तरह कम रह गए। भाषा विभाग में पत्रिका के संपादक जनाब धर्मपाल आकिल के रिटायर हो जाने पर विभाग में उर्दू में आए पत्र पढ़ने वाला कोई न था। विभाग द्वारा शाया होने वाला उर्दू का रसाला ‘फिक्रो-ओ-फन’ दो बार बंद हुआ।

बाद में इसका संपादन शबाब ललित, सुरेश चंद्र शौक ने गेस्ट एडीटर के तौर पर भी किया। आखिर इस पत्रिका ने दम तोड़ दिया। शिमला में उर्दू के अजीम शौरा तलअत इरफानी, अरमान शहाबी, शबाब ललित, राजेश कुमार ‘ओज’, सुरेश चंद्र शौक, प्रेम आलम, साबिर हसन साबिर जैसे लोगों का जमावड़ा रहता था। ये नहीं रहे तो शिमला जैसे शायरविहीन हो गया। उर्दू और संस्कृत ऐसी दो जुबानें थीं जिनके ‘दिवस’ आने पर इन भाषाओं के कवि साहित्यकार नहीं बचे जिन्हें न्योता दिया जाए। तथापि इस छोटे से प्रदेश से अजीम शायर केके तूर को उर्दू में साहित्य अकादमी सम्मान मिलना गौरव की बात है। कृष्ण कुमार तूर पुराने और वरिष्ठ शौरा हजरात में एक जाना-माना नाम है जिन्हें ‘रफ्ता रम्ज’ के लिए 2002-2006 का हिमाचल अकादमी पुरस्कार 2015 में मिला और इसी पुस्तक के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार-2015 प्राप्त हुआ। ‘अंजुमन तरक्की-ए-उर्दू’ से राष्ट्रीय अमीर खुसरो पुरस्कार और गालिब पुरस्कार भी मिल चुके हैं। सरकारी विभाग के मुशाअरों के साथ-साथ श्री सुरेंद्रनाथ वर्मा द्वारा शुरू की गई ‘बज्मेअदब’ के माध्यम से भी मुशाअरे किए जाते थे। वर्मा जी भाषा विभाग के प्रथम स्वतंत्र निदेशक भी रहे और इस संस्था के अध्यक्ष थे। इस संस्था में अरमान शहाबी, केके किदवई, धर्मपाल आकिल, काहन सिंह जमाल, एमसी सक्सेना ‘तस्कीन’ आदि थे। बाद में शबाब ललित महासचिव रहे। उधर नाहन में नरेश चंद्र साथी माहौल बनाए हुए थे। वे ‘माहनामा अक्स’ शाया करते थे जिसमें देवनागरी में हिंदी व उर्दू की रचनाएं छपती थीं। ग़ज़ल के साथ हिंदी गीत परंपरा का भी बोलबाला रहा है। शिमला में रामदयाल नीरज, सत्येंद्र शर्मा और श्रीनिवास श्रीकांत और ओमप्रकाश सारस्वत, अनिल राकेशी महत्त्वपूर्ण गीतकार रहे हैं।

 ग़ज़ल परंपरा का आगाज लालचंद प्रार्थी से माना जा सकता है। प्रार्थी जी ‘चांद कुल्लवी’ (मार्च 1916-दिसंबर 1982) के नाम से उर्दू और पहाड़ी में लिखते थे। प्रार्थी जी के सामने जो महफिल सजती थी, उसमें मनोहर सागर पालमपुरी, अरमान शहाबी, शबाब ललित, सुरेशचंद्र शौक, खेमराज गुप्त सागर, काहन सिंह जमाल, बिहारी लाल बहार, राजेश कुमार ओज जैसे शायर मौजूद रहते थे। सुदर्शन कौशल नूरपुरी, परमानंद शर्मा, नरेश चंद्र साथी, अमर सिंह फिगार, आदिल सिरमौरी, तलत इरफानी, साबिर हसन साबिर, बिहारी लाल बहार, डी कुमार, जिया सिद्दिकी व जाहिद अबरोल ने इस फन में चार चांद लगाए। इनके साथ-साथ नादौन में गुलशन ‘नादौनवी’, ज्वालामुखी में अलमस्त, सिरमौर में आदिल सिरमौरी, साधुराम रत्न, महासू में काहन सिंह जमाल, चंबा में खेमराज गुप्त सागर, पालमपुर में अर्जुन कनौजिया आदि शायर रहे। अर्जुन कनौजिया की दो ग़ज़ल पुस्तकें भी छप चुकी हैं। नूरपुर से रामस्वरूप शर्मा एक उम्दा शायर रहे जो ‘परवाज नूरपुरी’ के नाम से लिखते थे।

ऐसे में मधुसुदन शर्मा हिंदी-उर्दू दोनों में लिखते हैं। अजीम शायर सागर पालमपुरी के अलावा प्रीतम आलमपुरी, गौतम व्यथित, प्रेम भारद्वाज, पवनेंद्र पवन, तेज सेठी हिमाचली में भी ग़ज़लें लिखते हैं। उर्दू अदब का एक दौर समाप्त तो हुआ, पर उर्दू अदब की आग बुझी नहीं।  नए-नए शायर भी साथ-साथ आते रहे। मंडी में प्रफुल्ल परवेज (स्व.), राणा रविसिंह शाहीन, भगवान देव चैतन्य, केएल कौशल भी ग़ज़ल लिखते रहे हैं। कांगड़ा में प्रेम भारद्वाज (स्व.), शेष अवस्थी (स्व.), नाहन में नासिर यूसुफजई, जावेद उल्फत, चंबा में टीसी सावन, शिमला में निसार शिमलवी ग़ज़ल कहते रहे। शिमला में विनोद कुमार गुप्ता बेहतरीन ग़ज़ल कह रहे हैं। इनका हाल ही में एक ग़ज़ल संग्रह भी शाया हुआ है। जाहिद अबरोल को हिमाचल अकादमी द्वारा ‘दरिया दरिया साहिल साहिल’ ग़ज़ल संग्रह के लिए हाल ही में वर्ष 2016 का पुरस्कार घोषित किया गया है। आज के समय में पवनेंद्र पवन के अलावा द्विजेंद्र द्विज प्रमुख सशक्त हस्ताक्षर हैं।

इनका ‘जन-गण-मन’ नाम से ग़ज़ल संग्रह काफी चर्चित रहा। सुमितराज वशिष्ठ, नवनीत शर्मा, प्रताप जरयाल, सुभाष साहिल, अशोक कालिया, प्रकाश बादल, मुनीष तन्हा, सुदेश दीक्षित, नवीन, नकुल गौलक, सतपाल ख्याल, कुलदीप तरुण गर्ग, विजय धीमान भी अच्छी ग़ज़ल लिख रहे हैं। सतीश ‘रत्न’ की एक ग़ज़ल पुस्तक ‘सुबह जरूर आएगी’ प्रकाशित हुई है। युवा ग़ज़लकार अंशुमन  कुठियाला का संग्रह ‘शहर में शायर’ 2017 में आया है। हिमाचल से ही विदेशों में रह रहे कुछ शायर बेहतरीन ग़ज़ल कह रहे हैं। इनमें राजीव भरोल, साध्वी सैनी के नाम गिनाए जा सकते हैं। महिलाओं में आशा शैली काफी समय से ग़ज़ल कह रही हैं। बेहतरीन शायरा नलिनी विभा नाज़ली की हिंदी कविता, बाल कविता के अलावा पांच ग़ज़ल पुस्तकें आ चुकी हैं। संगीता सारस्वत, शबनम शर्मा भी ग़ज़ल लिख रही हैं। अलबत्ता अब समय की मांग के मुताबिक ग़ज़ल की किताबें देवनागरी में छप रही हैं। उर्दू ग़ज़ल भी हिंदुस्तानी या हिंदी ग़ज़ल बनती जा रही है।

हिमाचल की हिंदी कविता के परिप्रेक्ष्य में -6

अतिथि संपादक :

चंद्ररेखा ढडवाल

मो. : 9418111108

विमर्श के बिंदु

  1. कविता के बीच हिमाचली संवेदना
  2. क्या सोशल मीडिया ने कवि को अनुभवहीन साबित किया
  3. भूमंडलीकरण से कहीं दूर पर्वत की ढलान पर कविता
  4. हिमाचली कविता में स्त्री
  5. कविता का उपभोग ज्यादा, साधना कम
  6. हिमाचल की कविता और कवि का राज्याश्रित होना
  7. कवि धैर्य का सोशल मीडिया द्वारा खंडित होना
  8. कवि के हिस्से का तूफान, कितना बाकी है
  9. हिमाचली कवयित्रियों का काल तथा स्त्री विमर्श
  10. प्रदेश में समकालीन सृजन की विधा में कविता
  11. कवि हृदय का हकीकत से संघर्ष
  12. अनुभव तथा ख्याति के बीच कविता का संसर्ग
  13. हिमाचली पाठ्यक्रम के कवि और कविता
  14. हिमाचली कविता का सांगोपांग वर्णन
  15. प्रदेश के साहित्यिक उत्थान में कविता संबोधन
  16. हिमाचली साहित्य में भाषाई प्रयोग (काव्य भाषा के प्रयोग)
  17. गीत कविताओं में बहती पर्वतीय आजादी

हिमाचल की चार कवयित्रियों का काव्य संसार

देवकन्या ठाकुर

मो.-9459041163

कविता, साहित्य की सर्वोच्च विधा है। हिमाचल प्रदेश में, काव्य विधा में जिन रचनाकारों ने राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई है, उन कतिपय नामों में रेखा वशिष्ठ, चंद्ररेखा ढडवाल, जयवंती डिमरी तथा सरोज परमार का नाम लिया जा सकता है। रेखा वशिष्ठ के 1984 में प्रकाशित काव्य संग्रह ‘अपने हिस्से की धूप’ पर बात करूंगी। लेखन रेखा के लिए अपना वैकल्पिक संसार रचने का माध्यम तो है ही, अपने होने का एहसास करवाने का जरिया भी है। ‘स्वयंवरा’ कविता में स्त्री अपने अस्तित्व के प्रति सचेत है। कविता का अंश देखें- ‘मैं चिरकाल से बहती धारा हूं/आज तय किया है मैंने/सागर को नहीं वरूंगी/रेगिस्तान की आग पीकर सूख जाना चाहती हूं।’ उनकी कविताओं का मिज़ाज आत्मपरक है। परंतु वस्तुपरकता और राजनीति से हटकर भी इनकी शक्ति बहुत प्रबल है।

‘वक्त’ कविता का अंश देखें- ‘बोतलों का रंगीन पानी/बुझाता नहीं मेरी गंवार प्यास/बाट जोहता है बादलों की।’ बिंब योजना का सौंदर्य देखें- ‘तेरी गहराई में उगी मैं/सूख जाऊंगी और तेरे श्मशान में/बाट जोहेंगी मेरी अस्थियां/किसी भगीरथ सरीखे वंशधर की।’ ‘एक सूखी नदी’ संग्रह की ‘चौखटा’ कविता लड़की की व्यथा कुछ यूं कहती है- ‘मेरे अभिभावकों ने थमा दिया मेरे हाथों में/पैदा होते ही एक चौखटा/लिखा था उस पर आदर्श लड़की/फिर कहा मुझसे लो नियमों की छेनी/काट लो खुद को/और समा जाओ इसमें जैसे तैसे।’ सामाजिक सीमाओं के भीतर स्वयं को तलाशने की बेचैनी उनकी कविता में है, तो कविता के अनुरूप समय की पड़ताल भी है- ‘जबसे जंगल की जगह उग आया है शहर/कविता मैना सी नहीं गाती/गश्त लगाती है गलियों में।’ 2016 में प्रकाशित चंद्ररेखा ढडवाल के काव्य संग्रह ‘जरूरत भर सुविधा’ की कविताओं में स्त्री विमर्श और स्त्री चेतना को विस्तृत फलक पर उकेरा गया तो हमारे समय के प्रश्नों और पर्यावरण पर भी चिंता शब्दबद्ध हुई है। ‘अधिकार’ कविता में स्त्री जीवन की विवशता की तहें इस तरह खुलती हैं- ‘एक अधिकार उनके पास/कि वे उड़ा देंगे/जब जी चाहे/छत की मुंडेर पर से/आंगन की दूब पर से/पेड़ों की खोखल में से/उन सब चिडि़यों को/जिनके पास घर के नाम पर यही कुछ है।’

स्त्री स्वप्नों की उड़ान का संघर्ष इन शब्दों में व्यक्त हुआ है- ‘उड़ने की हुलस लिए गौरेया ने/फर्श से छत तक/इस दीवार से उस दीवार तक/भांप लिया कमरे को/पर नीचे से ऊपर दाएं से बाएं/उड़ती रही वह/हांफ हांफ कर थक जाने तक/पंखों के नुच जाने तक।’ रेखा ढडवाल बड़ी बेबाकी से कहती हैं कि औरत स्वयं पर मोहित रहती है- ‘मुस्कुराती है कि मुस्कुराते हुए/वह सुंदर दिखती है/शर्माती है कि शर्माते हुए वह अच्छी दिखती है/औरत को उतना आदमी नहीं भटकाता/जितना इसका औरतपन इसे हराता है।’ स्त्री जीवन की विद्रूपताओं का विविध आयामी चित्रण यदि है तो प्रकृति के प्रति सरोकार भी है। प्रकृति में हस्तक्षेप पर व्यंग्य भाव से ‘पेड़ सुनो’ कविता में वह कहती हैं- ‘क्या तुम जा नहीं सकते/योजनों मील दूर धरती में/जहां जल स्रोत अभी सूखे नहीं हैं/किन्हीं पलों विशेष में/हो नहीं सकते ऐसे वायवी/कि तुम्हारे आरपार होती/आरी के बाद भी तुम रहो।’

कवयित्री सरोज परमार अपनी कविताओं के बारे में कहती हैं कि विसंगतियों को झेलते हुए जब उनकी तकलीफ हद से गुजर जाती है, तनाव से पोर-पोर पिराने लगता है तभी कविता का जन्म होता है। समकालीन ज्वलंत मुद्दों के साथ-साथ स्त्री विमर्श को भी उन्होंने अपने ही ढंग से व्यक्त किया है। ‘मैं नदी होना चाहती हूं’ संग्रह में नदी शृंखला की कविताओं में स्त्री और प्रकृति दोनों का दर्द मुखर हुआ है। कवितांश प्रस्तुत है- ‘नदी के बीचोंबीच घूसर/काली चट्टानें जिन पर कभी आराम फरमाती थीं/बकरियां/चहल-पहल से भरी जवान नदी/जो मेरे दुख-सुख की गवाह थी/वह क्या हुई।’

‘औरत’ कविता में एक स्त्री पर समय की बंदिशों की गुलामी यूं अभिव्यक्त हुई है- ‘काश ये सूइयां टूटकर/गिर पड़ें और वक्त ठहर जाए/प्रार्थना है मेरे मित्रो मेरे परिजनो/अंतिम वेला में मेरे पास/घड़ी मत रखना/उसकी गिरफ्त से छूट/उठकर भाग लूं और बरसों बाद/वक्त मुझे ढूंढता फिरे।’ दोहरी नीति व मुखौटा धर्मी चालों का सफल रेखांकन उन्होंने किया है। महिला दिवस की औपचारिकता पर व्यंग्य करते कहती हैं- ‘मकानों की तरह किराए पर उठ रही कोख/कैमूर के जंगल में भूख से लड़ती औरत/नहीं समझ पाती अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का अर्थ।’ ‘माचिस’ कविता में सरोज परमार समाज का घिनौना चेहरा दिखाती हैं- ‘कौन जाने किस तीली ने/पल्लू को छूकर/तंदूरी चिकन बनाया होगा/किसी भरी-पूरी लड़की को।’ अत्यंत मार्मिक ये पंक्तियां सभ्यता पर प्रश्न उठाती हैं। वरिष्ठ कवयित्री जयवंती डिमरी की कर्मभूमि हिमाचल है।

मानवीय रिश्तों और संवेदनाओं पर उन्होंने बहुत सार्थक लिखा है। ‘है मां जब तक’ में वह मां के होने को, बेटी की ताकत मानती हैं- ‘है मां जब तक/बेटी नहीं होगी बूढ़ी/दिखेंगे नहीं मां को बेटी के सफेद खिचड़ी बाल/चेहरे की झाइयां और पिचकते गाल।’ परंपरा की जरूरत भी यहां रेखांकित हुई है। असफल प्रेम के वर्तमान में झांक जाने पर वह कहती हैं- ‘कल जब तुम मिले/मुस्कुराए/वर्षों से दराज में दबी-दुबकी/डायरी के पृष्ठ फड़फड़ाए/मसूड़ों से छिटकी बेतरतीब बिखरी दंत पंक्तियां/चश्मे के अंदर धंसी आबनूसी पुतलियां/खिचड़ी हुए बाल/सांप सीढ़ी के सुर्ख खेल में/उम्र फिसली एक झटके में तीस साल।’ भाव ही नहीं, रचनात्मक स्तर पर भी ये पंक्तियां बीते हुए प्रेम का सशक्त चित्रण करती हैं। उन्होंने जीवन के विविध विषयों पर लिखा है। सामाजिक कुरीतियों व विसंतियों पर भी सक्रियता से लिखती रही हैं। इन कवयित्रियों के संग्रह प्रकाशित हुए हैं और राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक पत्रिकाओं में कविताएं छपी हैं।

नरेश पंडित को श्रद्धांजलि देती उनकी कहानियां

यादों के पन्नों पर सृजन को सहलाती किताब ‘झुनझुना’ में नरेश पंडित की अकाल मृत्यु पर तड़प रही कहानियां और खामोश-उदास कई पात्र, फिर से मुलाकात करते हैं। जिंदगी की विधा में सृजन की हर जिजीविषा में उतरते नरेश पंडित को भले मालूम नहीं होगा कि उनके भीतर छुपा कलाकार, साहित्यकार, चित्रकार, कार्टूनिस्ट और संवेदनशील व्यक्ति कितने कोस और चलेगा, लेकिन जिस यथार्थ को वे छूते रहे, उसे बड़े करीने से डा. राजेंद्र राजू के साथ कई अन्य ने सहेजा और संवारा है। कुल सत्रह कहानियां ‘झुनझुना’ के रूप में आई पुस्तक को एक मंच बना देती हैं और जहां बार-बार पर्दे गिरते हैं। ठिठक जाती हैं एक लेखक की अनुपम यादें, महरूम किस्से और लेखन का सारा तात्पर्य उजास हो जाता है। गांव-शहर के बीच से गुजरते नरेश पंडित ने जो देखा, समझा, पाया या झेला, उससे निकली कहानियां अपने भीतर का संघर्ष सुनाती हुईं अपने आयताकार परिदृश्य और गोलाकार भावनाओं को बुनती हैं। ‘मिरग’ खुद को बेहतरीन साबित करते हुए अपने शब्दों में परिवेश को अभिव्यक्त करती है, ‘लोग तेंदुए को बाघ, बाघ को चीता और चीते को शेर समझने लगे।’ कहानी जिस मिरग को जंगल से पकड़ती है, वह अंत में घर की हर ईंट से चस्पां हो जाती है और तब हम रिश्तों के बीच आई दरिंदगी को जिंदगी के सफर की ‘आह’ मान लेती है। इसी तरह ‘छुमकी’ में नन्हे रिश्तों पर जातीय चाबुक का प्रहार और कठोर मंजर में परंपराओं की ठेकेदारी करते ऊंचे (?) खानदान के भ्रम में, ‘नीच’ होने की बद्दुआओं का मंतव्य, कहानी की जटिलता में हम सभी का विद्वेष सामने ले आता है। ग्रामीण आर्थिकी के विकराल पंजों में घिसटता रोजगार और जंगल की लकड़ी की तरह सूखे मिजाज की निशानदेही करती कहानी ‘घालू’ बनकर जन्म लेती है। लकड़ी से जुड़ी मजदूरी बिल्कुल काठ की हांडी की तरह कितनी बार जलेगी। अदालती माहौल में जन्म लेती ‘झुनझुना’ हमारे आसपास खड़ी हो जाती है।

अदालत के सख्त वातावरण के बीच न्याय की परिक्रमा में लोगों के बीच संबंधों की मीनारें किस तरह गिरती हैं, इसका एक स्वरूप देखने को मिलता है। बैंकिंग प्रणाली के सामने किसान के वजूद की बोली और मनहूस सायों का पीछा। गांव के खेत पर पसरा मरघट सा सन्नाटा। दर्द से हासिल दिल का बयान करती कहानी ‘मौत की फसल’ बन जाती है। ‘मांस-भात’ में मजदूरी का अर्थ मजबूरी क्यों हो जाता है या जिंदगी की कशमकश में शारीरिक व मानसिक उथल-पुथल करती कहानी अपने अक्स में दर्द के कई पहाड़ जोड़ लेती है। इसी तरह ‘पीठ पर पहाड़’ शिमला के कंधों पर घिसटती पल्लेदारों की व्यथा को पेश कर देती है। पल्लेदारों की घायल पीठ पर उगते सपने किसने रिसते हुए देखे। खून से सनी कहानियों के बीच शिमला की यात्रा और रोते-बिलखते किरदारों को किसने देखा। ‘काले महीने का काला दरिया’ में महत्त्वाकांक्षा का सामना करता ‘तारू’ नहीं समझ पाया कि बरसात में उफनते इरादों का कोई किनारा नहीं होता। सास-बहू के रिश्तों का काला महीना अपनी जुबान से भी स्याह काला हो जाता है। मानवीय परिवर्तन की पराकाष्ठा को कहानी के आंचल में भरते नरेश पंडित ‘गऊग्रास’ रच देते हैं।

उम्रभर की दूरियां लुकाछिपी करती गुजर जाती हैं और अंत में बाल-बच्चों के बीच कहानी सियानी हो जाती है, लेकिन बुजुर्ग किसी सामान की तरह परिवार में धर दिए जाते हैं। रिश्तों की सफाई में आधुनिकता ने घर के बुजुर्गों को किस तरह साफ कर दिया है, इसी का मार्मिक विवरण देती कहानी। खुद शनि के कंकाल में बैठी अतृप्त कहानी ‘शनिचरी’ अपने पात्रों की गाढ़ी कमाई का जिक्र बन जाती है। किसी का पाप उतारना भी तो कार्य हो सकता है और इसके लिए चाहे शनि देवता हो या कोई अधमरा सांप, लेकिन दुनिया के सारे संदेह, आरोप और लानतें जिनकी जिंदगी को पूरी तरह लिखती हों, उनके संघर्ष से मुक्ति कौन दिलाएगा। ‘बूढ़ा पीपल’ हमारी सामाजिक सोच की तरह अपने लटके-झटकों के बीच न जी पा रहा और न ही मौत को करीब देख रहा है। आस्था के प्रतीकों के प्रति हमारा लगाव और अपनी ही जिंदगी में रचा-बसा वैमनस्य का भाव। पाखंड से धुले समाज की आंखों का कचरा अपने ही स्वार्थ को देखता है और फिर कहीं ठोकरें जागृत करती हैं बुढ़ापे का संघर्ष।

 अपने ही यौवन की नादानी से रिश्ता तब समझ आता है, जब औलाद के गलत कदम पत्थर बन चुभते हैं। ‘घंटाघर’ खुद में नारी देहयष्टि जैसी कहानी और खुद से मुकाबला करते आत्मसम्मान के शब्दों का संघर्ष बयान करती है। हम सभी अपनी-अपनी संवेदना के चोर-सिपाही ही तो हैं। कहानी बयां करते-करते नरेश पंडित की कलम खुद अर्क बनकर पिघल जाती है या कभी सुर्ख होकर उबलने लगती है। परिवेश से निकली परिकल्पनाओं के संगम में नहाती कहानियां दरअसल उस तड़प को भी जीती हैं, जो पहाड़ की विडंबनाओं का शृंगार है। बिंब और प्रतिध्वनियों की जादूगरी का रचना संसार ओढ़ते हुए लेखक नए रचनाकारों को फिर से कलम पकड़ा देता है। ‘पांच मन लकड़ी’ पूरे लेखकीय समाज की अपनी अनुभूतियों को फिर से अभिप्रेत करती है। नरेश पंडित ऐसा कथालोक बना देते हैं, जो वर्षों बाद भी संवाद करता रहेगा। लेखक अपनी स्पष्टवादिता के साथ समाज के विभिन्न वर्गों के बेरहम, नाकारा और लम्पट पहलुओं को चुनकर ऐसा दर्पण खड़ा कर देते हैं, जहां हम सभी कभी न कभी दोषी तो हैं ही। इसलिए ‘कर्मकांड’ के जरिए वह जीवन-मृत्यु के घटनाक्रम में इनसान के बौनेपन और ढोंगीपन को यह कह कर उद्धृत करते हैं, ‘अरे भागो…अरे कहां तक भागोगे, सभी की हाजिरी एक दिन यहीं लगेगी। ये श्मशान है…संसार का द्वार।’

-निर्मल असो

पुस्तक समीक्षा

मन का आईना : अंतस का मुखरित मौन

कवयित्री हरिप्रिया तबसे कविताएं लिखती आ रही हैं, जब वे केवल आठवीं कक्षा में पढ़ती थीं। आज वे राज्य स्तरीय आदर्श शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित, लेकिन अब सेवानिवृत्त शिक्षिका हैं। पढ़ने-लिखने का ऐसा जज्बा तथा जुनून कि सेवानिवृत्ति के पश्चात और भी शिद्दत से साहित्य सृजन में जुटी हुई हैं। लेकिन काव्य सर्वाधिक प्रिय विधा है। उनकी कविताएं कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। साहित्य के क्षेत्र में उन्हें अब तक कई पुरस्कार व सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। मृदुभाषी कवयित्री हरिप्रिया की रचनाओं का विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन निरंतर जारी है। उन्होंने हिंदी के अतिरिक्त पहाड़ी भाषा में भी कविताएं लिखी हैं। उनका प्रथम काव्य संग्रह ‘प्रतिध्वनि’ 1993 में प्रकाशित हुआ है। अब तक पांच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। शीर्षक अंतर्गत ताजा काव्य संग्रह ‘अंतस का मुखरित मौन’ उनकी पांचवीं पुस्तक है। संग्रह में शामिल कविताओं को पढ़ने पर सहज ही ज्ञात हो जाता है कि हरिप्रिया कविता के सत्य को, जीवन के सत्य से जोड़ती हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में नारी बदलावों को कई रूपों में व्यक्त करने का प्रयास किया है।

अंतस का मुखरित मौन में कहती हैं ः ‘आत्मा के स्वदीप्त संवेदनों में/मुखर हो भावना के स्वर/नीलाभ मणियों से/सहस्रों सहस्र  किरणें…’। दस्तक, शब्द घेर लेते हैं मुझे, बावजूद इसके, छोटे लोग, अर्थहीन शब्द इत्यादि संग्रह में शामिल कविताएं बहुत कुछ सोचने-विचारने पर विवश करती हैं। ‘पहाड़ से गुम होती लड़कियां’ कविता में भोली-भाली, सीधी-सरल स्वभाव की पहाड़ी लड़कियां अपने सीधेपन के कारण दो पाए वाले बाहरी भेडि़यों के चंगुल में फंसकर, अपना जीवन नारकीय बना लेती हैं। इस कविता की कुछ पंक्तियां काबिलेगौर हैं : ‘रेतीले मैदानों के सौदागरों के हाथ/फिर फिर लौटते रहे हैं/बेरोक टोक पहाड़ी शहरों में/भेड़ की खाल पहनकर…।’ ‘टुकड़ा ट़कड़ा जिंदगी’, ‘बुरे वक्त की आहट’, ‘अलगनी पर टंगे प्रश्न’ आदि शीर्षक की कविताएं भी बहुत गहरे से मनन करने पर बाध्य करती हैं। प्रस्तुत पुस्तक में कुल 45 कविताएं संग्रहित हैं। डा. धर्मपाल कपूर ने लंबी भूमिका लिखी है। 128 पृष्ठों की पुस्तक की छपाई व साज-सज्जा उत्तम है। पुस्तक का प्रथम संस्करण नवंबर-2020 है। पुस्तक के प्रकाशक हैं साहित्य प्रचारक, दिल्ली। हार्ड बाऊंड पुस्तक का मूल्य 300 रुपए है। पुस्तक पठनीय एवं सहेजकर रखने योग्य है।

-शेर सिंह, साहित्यकार


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