राजनीति का कड़वा सच

राजनीति का सबसे घटिया पक्ष वादाखिलाफी और ‘यूज एंड थ्रो’ है। घोषणापत्र में जो वादे किए जाते हैं, 50 फीसदी भी पूरे नहीं होते। जनता से वोट मांगते समय नेता बकरी की तरह मिमियाते हैं और जब जीत जाते हैं तो वही नेता शेर की तरह दहाड़ता है। जनता को जो सपने दिखाए जाते हैं, वे कभी पूरे नहीं होते। यही राजनीति का कटु सत्य है…

कुछ लोग कहतें है कि शादी एक ऐसा लड्डू है जो न खाए वह पछताए, जो खाए वह भी पछताए। राजनीति में प्रवेश की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। ताजा खबर है कि कोरोना काल के दौरान लोगों की मदद करते हुए चर्चा में आए बॉलीवुड अभिनेता सोनू सूद की बहन मालविका सूद राजनीति में एंट्री लेने जा रही हैं। अभिनेता सोनू सूद ने खुद इसके बारे में ऐलान किया है। उन्होंने बताया कि मालविका पंजाब में अगले साल होने जा रहे विधानसभा चुनाव में खड़ी होंगी। हालांकि सोनू सूद और उनकी बहन मालविका दोनों ने अब तक किसी भी पार्टी में ज्वाइन करने के मुद्दे पर कोई खुलासा नहीं किया है। कुछ अच्छा करने की नीयत से राजनीति में आने वाले सभी लोगों का स्वागत है। राजनीति लोगों की सेवा का बेहतर प्लेटफार्म है, लेकिन यह सबके वश का काम नहीं रहा है। बॉलीवुड को लें तो अनेक सितारों का राजनीति से मोहभंग होते देर नहीं लगी है। कुछ चुनिंदा सितारों का जिक्र लाजिमी है। वर्ष 2004 में कांग्रेस के टिकट पर गोविंदा ने मुंबई से लोकसभा चुनाव जीता। चुनाव प्रचार के दौरान गोविंदा ने मुंबई के लोगों के लिए प्रवास, स्वास्थ्य और ज्ञान को अपने एजेंडे का मुख्य हिस्सा बताया। रिपोर्टों के अनुसार लोकसभा सदस्य के रूप में उनका यह कार्यकाल हमेशा ही विवादों से घिरा रहा। गोविंदा आलोचनाओं में उलझते रहे। वह राजनीति में सक्रिय और अपेक्षित भागीदारी नहीं निभा पाए। परिणामस्वरूप वर्ष 2008 में उन्होंने अपने एक्टिंग करियर पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए राजनीति को अलविदा कह दिया। हाल ही में दादा साहेब फाल्के सम्मान से नवाजे गए सुपरस्टार रजनीकांत भी अतीत में कई कारणों का हवाला देते हुए राजनीति में शामिल होने के अपने फैसले से पीछे हट गए। हालांकि वह उन अभिनेताओं की श्रेणी में नहीं आते हैं जो ‘असफल राजनेता’ बन गए, लेकिन कोई कह सकता है कि वह राजनीति में शामिल होने में ‘विफल’ रहे। सबसे प्रतिष्ठित मामला ज़ाहिर है अमिताभ बच्चन का है, जिनकी राजनीतिक यात्रा विनाशकारी से कम नहीं थी। उन्होंने अपने लंबे समय के दोस्त राजीव गांधी का समर्थन करने के लिए 1984 में राजनीति में कदम रखा। उन्होंने इलाहाबाद की सीट से 8वीं लोकसभा के लिए चुनाव लड़ा और बड़े अंतर से जीत हासिल की। हालांकि उन्होंने तीन साल बाद इस्तीफा दे दिया। अमिताभ बच्चन ने तब से राजनीति से एक सुरक्षित दूरी बनाए रखी है और कोई भी राजनीतिक टिप्पणी करने से परहेज किया है।

 राजेश खन्ना, दिवंगत सुपरस्टार नई दिल्ली निर्वाचन क्षेत्र से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए संसद सदस्य थे, जहां उन्होंने 1992 का उपचुनाव जीता। 1996 तक अपनी सीट बरकरार रखी जिसके बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति छोड़ दी। शत्रुघ्न सिन्हा 2009 से 2014 तक लोकसभा सदस्य और 1996 से 2008 तक दो बार राज्यसभा सदस्य रहे। 2019 के चुनावों के बाद सीट नहीं दिए जाने के बाद वह कांग्रेस में शामिल हो गए। शेखर सुमन ने 2009 में पटना साहिब से कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन साथी अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा से हार गए । बाद में 2012 में उन्होंने खुद को राजनीति से पूरी तरह दूर कर लिया। गोविंदा 2004 में संसद सदस्य बने। उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर भाजपा के राम नाईक को हराकर मुंबई उत्तर निर्वाचन क्षेत्र जीता। गोविंदा ने 2008 में राजनीति छोड़ने के अपने फैसले की घोषणा की। आखिरकार ठीक-ठाक लोग राजनीति में क्यों असफल हो जाते हैं, इसके कई सामयिक कारण हैं। राजनीति का सबसे घटिया पक्ष यह है कि सत्ता हथियाने के लिए लोग तरह-तरह के प्रपंच करते हैं और ज्यादातर वे अच्छाई पर आधारित नहीं होते। यह लगभग सभी देशों में समान रूप से लागू होता है। भारत की राजनीति का सबसे गंदा रूप यह है कि यहां पर सभी दलों में राजनीति में परिवारवाद सबसे ज्यादा हावी है। ये लोग आज भी पहले की तरह ही शासन करते हैं तथा भ्रष्टाचार ही इनका धर्म है। आम आदमी को झूठे प्रलोभन देकर उनको तरह-तरह से गुमराह करते हैं और हम हैं कि गुमराह होने के लिए राजी हो जाते हैं। भारत का अच्छे से अच्छा राजनेता जाहिलों के चंगुल में फंस ही जाता है। चूंकि इनका बुद्धिमत्ता तथा ज्ञान से कोई दूर-दूर तक का भी संबंध नहीं होता, ये देश का विकास होने ही नहीं देते हैं। अनेक लोग मानते हैं कि वर्तमान में देश में राजनीतिक नैतिकता का स्तर काफी गिरता जा रहा है।

आज काफी कम ही नेता ऐसे हैं जो शालीनता से अपनी बात को रखते हैं। लेकिन टीवी शो पर कभी कभार राजनीतिक बहस को देखकर ऐसा लगता है जैसे ये मुहल्लों के आवारा पशुओं की लड़ाई हो। कुछेक लोग सत्ता पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। कुछ भी मतलब कुछ भी। हमारे नेताओं के बच्चे विदेशों में रहकर अपनी पढ़ाई पूरी करते हैं। उन्हें खुद की बनाई हुई शिक्षा व्यवस्था में भरोसा नहीं है। यह काफी दुखद स्थिति है। जब बात स्वास्थ्य संबंधी बीमारियों की आती है तो इस तरह के मामलों में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिलता है। अपने इलाज के लिए हमारे समाजसेवी विदेशों में जाकर अपने इलाज कराते हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि उन्होंने अपनी सुविधा के अनुसार व्यवस्था बना रखी है। एक कमजोर और गरीब तबके को ऊपर उठने के लिए कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती है, यह वही समझ सकता है। राजनीति का सबसे घटिया पक्ष वादाखिलाफी और ‘यूज एंड थ्रो’ है। घोषणापत्र में जो वादे किए जाते हैं, 50 फीसदी भी पूरे नहीं होते। जनता से वोट मांगते समय नेता बकरी की तरह मिमियाते हैं और जब जीत जाते हैं तो वही नेता शेर की तरह दहाड़ता है। जनता को सपने दिखाए जाते हैं, वो सपने कभी पूरे नहीं होते। जनता सिर्फ उम्मीद में जीती है और उम्मीद में ही उनकी अगली पीढ़ी जीती है। काम कुछ भी न करो, पर चेहरा चमकाते रहो और लोगों को यह बताते रहो कि उनसे अधिक जनता का हितैषी और कोई नहीं। समस्याएं गिनाते रहो, उनके भविष्य में समाधान की बड़ी-बड़ी बातें करते रहो, पर एक भी समस्या का निस्तारण ढंग से न करो।

 बड़े से बड़े झूठ को सत्य की तरह दोहराते रहते हैं। यह भारतीय राजनीति के कटु सत्य बन कर उभर रहे हैं। ज़मीनी स्तर पर इस समय देश में राजनीतिक हकीकत काफी भयावह है। राजनीति में सिद्धांतों को त्याग देना व अवसरवादिता की राजनीति करना राजनीति का दुर्भाग्य है? क्या यह एक्टर लोगों और भले आदमी के वश की बात है? अंत में एक छोटी सी कहानी, यह बताने के लिए कि राजनीति में कैसे फैसले होते हैं? मेरे राजनीति से जुड़े दोस्त के बड़े बेटे ने बताया कि उसका राजनीति और लोकतंत्र पर से यकीन सन् 1988 में ही उठ गया था, जब हमारी स्कूल की छुट्टियां हुईं और रात को खाने की मेज़ पर पापा ने पूछा, ‘बताओ बच्चो, छुट्टियों में दादा के घर जाना है या नाना के?’ सब बच्चों ने खुशी से हमआवाज़ होकर नारा लगाया, ‘दादा के…’। लेकिन अकेली मम्मी ने कहा कि ‘नाना के…।’ बहुमत चूंकि दादा के हक में था, लिहाज़ा मम्मी का मत हार गया और पापा ने बच्चों के हक में फैसला सुना दिया, और हम दादा के घर जाने की खुशी दिल में दबा कर सो गए…। अगली सुबह मम्मी ने तौलिए से गीले बाल सुखाते हुए मुस्कुरा कर कहा, ‘सब बच्चे जल्दी-जल्दी कपड़े बदल लो, हम नाना के घर जा रहे हैं…।’ मैंने हैरत से मुंह फाड़ कर पापा की तरफ देखा, तो वो नज़रें चुरा कर अख़बार पढ़ने की अदाकारी करने लगे। बस मैं उसी वक्त समझ गया था कि राजनीति और लोकतंत्र में फैसले अवाम की उमंगों के मुताबिक नहीं, बल्कि बंद कमरों में उस वक्त होते हैं, जब अवाम सो रही होती है। यही राजनीति का कड़वा सत्य है।

डा. वरिंदर भाटिया

कालेज प्रिंसीपल

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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