गौधन को मिले संवैधानिक संरक्षण

देश में गौवंश का तिरस्कार दुर्भाग्यपूर्ण है। यदि सरकारें गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करें तो गौधन की सुरक्षा के मौलिक अधिकार अवश्य सुनिश्चित होंगे। देश की संपन्नता के लिए गौधन को घर-आंगन की शोभा बनाकर गौवंश के अतीत का गौरवशाली सम्मान लौटाना होगा…

भारतीय संस्कृति में गौधन अनादिकाल से आस्था व कृषि अर्थशास्त्र की आधारशिला रहा है। सदियों पूर्व विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति रहे भारत के समस्त भूखंड की खुशहाली तथा समृद्ध अर्थतंत्र की बुनियाद भारतीय गोवंश पर ही निर्भर थी। ‘गाय’ वैदिक काल से सनातन जीवन दर्शन व परंपराओं में कामधेनु, सुरभि, कपिला, नंदनी व सुभद्रा जैसे स्वरूपों में पूज्य रही है। विश्व गुरू भारतवर्ष की इस पावन धरा पर महर्षि जमदग्नि, भारद्वाज, वशिष्ठ, गौतम व असित जैसे महान् ऋषिगणों ने गोवंश के विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दुनिया के सबसे प्राचीन सहित्य भारतीय वेदों व शास्त्रों में हमारे मनीषियों ने गाय की महिमा को विशेष रूप से प्रतिपादित किया है ‘यजुर्वेद’ में उल्लेख है ‘गोस्तु मात्रा न विद्यते’ अर्थात् गाय के गुणों की कोई सीमा या मात्रा नहीं होती। ‘अथर्ववेद’ के श्लोक ‘धेनुः सदनम् रचीयाम्’ के अनुसार गाय अमूल्य संपत्तियों का भंडार है। इसीलिए भारतभूमि पर विश्व की सबसे उत्कृष्ट शिक्षा प्रणाली व वैदिक शिक्षा के केंद्र ‘गुरुकुलों’ में शिक्षार्थियों को गाय को ‘गौमाता’ के रूप में पढ़ाया जाता था। ऋषियों के आश्रमों व गुरुकुलों में शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थी गौपालन व गौसंवर्धन का कार्य भी संभालते थे। महर्षि ‘लोमष’ ने गाय को सबसे बड़ी संपत्ति करार दिया था। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार द्वापर युग में श्रीकृष्ण ने अपने बाल्यकाल से जीवन की शुरुआत गोपाल के रूप में की थी। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को ‘महर्षि शांडिल्य’ ने श्रीकृष्ण के लिए गौचारण लीला का शुभ मुहूर्त निकाला था। इसलिए इस दिवस को ‘गोपाष्टमी’ के रूप में मनाते हैं। गौपालन के आदर्श श्रीकृष्ण के युग में सर्वाधिक गोपालक को नंद व उपनंद जैसी उपाधियों का सम्मान भी हासिल होता था।

 बेशक देश में कुछ वर्षों से गौरक्षा व गोवध निषेध के लिए कानूनी कवायद शुरू हुई है, मगर भारत में गौरक्षा का इतिहास प्राचीन से गौरवशाली रहा है। कहलूर रियासत (बिलासपुर) के चंदेलवंशीय शासक अभयसार चंद (1302-1347) ने गौरक्षा के लिए मो. तुगलक के सिपहसालार तातार खां को मौत के घाट उतार कर मुगल सेना को बेदखल करके पंजाब सीमा पर गोवंश को मुक्त करा कर अदम्य साहस का परिचय दिया था। राजस्थान की मेड़ता रियासत के ‘कुंवर राज सिंह राठौर’ ने गौरक्षा के लिए अजमेर के पुष्कर में मुगल सेना को धूल चटाई थी। प्रसिद्ध तीर्थस्थल ‘पुष्कर’ के 52 घाटों में सबसे बड़ा ‘गौघाट’ उन्हीं गौरक्षक ‘राठौर’ राजपूतों के बलिदान की स्मृति में बनाया गया है जहां प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को मेला लगता है। मुगल आक्रांताओं के बाद भारत की सांस्कृतिक धरोहर स्वदेशी गौधन पर अंग्रेज हुकूमत के कुटिल षड्यंत्र व अत्याचार भारतीय संस्कृति पर आघात साबित हुए। भारतीय शिक्षा पद्धति में अंग्रेजी शिक्षा व संस्कृति का वर्चस्व बढ़ने से गाय को गौमाता की जगह पशु या जानवर दर्शाया गया। 1970 के दशक में ‘श्वेत क्रांति’ का आगाज हुआ। दुग्ध वृद्धि की होड़ में विदेशी प्रजाति के गौवंश के आयात से स्वदेशी गौवंश का महत्त्व कम हुआ। कृत्रिम गर्भाधान प्रणाली में विदेशी मूल के टीकों के प्रचलन से देशी गौवंश का स्वरूप बिगड़ा।

 नतीजतन विश्व पटल पर अपनी दुग्ध गुणवत्ता में सर्वश्रेष्ठ रहे भारतीय देसी गौधन की सत्तर से अधिक नस्लें विलुप्त हुई तथा शेष सड़कों की धूल फांकने पर मजबूर हुईं। बेसहारा गौवंश की दुर्दशा के हालात यह हैं कि अध्यात्म का धरातल रहे भारत में प्रतिष्ठा व स्वाभिमान का प्रतीक रही श्रीकृष्ण की गाय व भगवान शिव का नंदी वर्षों से आश्रय को मोहताज़ है। बेजुबान लावारिस गौवंश सियासी बंदरबाट का शिकार होकर चुनावी मुद्दा जरूर बनता है, मगर इनके आश्रय के स्थायी समाधान के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं बनी। श्रीकृष्ण की लीलास्थली मथुरा में ‘सुदेवी’ माता के नाम से विख्यात जर्मन की ‘फ्रेडरिक इरिमा ब्रूनिंग’ 40 वर्षों से सैकड़ों गायों की ‘राधा सुरभि’ नामक गौशाला का संचालन कर रही हैं। गौसेवा के पुनीत कार्य के लिए भारत सरकार ने 2019 के गणतंत्र दिवस पर ‘फ्रेडरिक इरिमा’ को ‘पद्मश्री’ अवार्ड से नवाजा था। गौवंश को गौसदनों या गौशालाओं में आश्रय देना सराहनीय कार्य है, मगर यह बेसहारा गौवंश का स्थायी विकल्प नहीं है। गौपालन व्यवसाय व दुग्ध उत्पादन में भारत आज भी विश्व के देशों में शीर्ष पर काबिज है। ‘भारतीय पशु आनुवांशिक संस्थान ब्यूरो’ के अनुसार आज भी देश में देसी गौवंश की 43 नस्लें मौजूद हैं। इसी संस्थान ने हिमाचल की विशुद्ध पहाड़ी नस्ल की गाय को भी मान्यता दी है। ‘मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया’ देसी गौधन की दुग्ध गुणवत्ता को श्रेष्ठ प्रमाणित कर चुका है।

 अतः सरकारों को गौपालन व्यवसाय को आधुनिक व वैज्ञानिक रूप से विकसित करने वाली योजनाओं को बल देकर देसी गौवंश को समृद्धि का पर्याय व आर्थिक विकास की धूरी बनाना होगा ताकि गौपालन बेरोजगारी की मार झेल रहे युवाओं की जीवनशैली का हिस्सा बनकर आजीविका व ग्रामीण आर्थिकी का माध्यम बने। देसी गौपालन क्षमता के बिना ‘प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान’ व ‘जीरो बजट कृषि’ जैसी योजनाओं का समीकरण अधूरा रहेगा। बहरहाल हमारा पड़ोसी देश नेपाल गाय को अपना राष्ट्रीय पशु घोषित कर चुका है तथा श्रीलंका की वर्तमान सरकार अपने देश में गौवध पर पूर्ण प्रतिबंध का निर्णय ले चुकी है। 2 सितंबर 2021 को इलाहाबाद हाइकोर्ट ने गौधन के महत्त्व को देखते हुए सरकारों को गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने का सुझाव दिया है। इसलिए देश के सियासी व मजहबी रहनुमाओं को लोगों की धार्मिक भावनाओं का आदर करके भारत की पुरातन संस्कृति व जीवन मूल्यों से अवगत होना होगा। सनातन संस्कारों में प्राचीन से गाय लक्ष्मी स्वरूप व भारत का वैभव रही है। देश में गौवंश का तिरस्कार दुर्भाग्यपूर्ण है। यदि सरकारें गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करें तो गौधन की सुरक्षा के मौलिक अधिकार अवश्य सुनिश्चित होंगे। देश की संपन्नता के लिए गौधन को घर आंगन की शोभा बनाकर गौवंश के अतीत का गौरवशाली सम्मान लौटाना होगा। अतः गोपाष्टमी के शुभ अवसर पर पुश्तैनी व्यवसाय स्वदेशी गौपालन का संकल्प लें, यही गौरक्षा व बेसहारा गौवंश की समस्या सुलझाने का विकल्प है।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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