पर्यावरण संरक्षण से पनपता रोजगार

आज जरूरत इस बात की है कि पर्यावरण रक्षा के कार्यों को इस तरह आगे बढ़ाया जाए कि उनके साथ मेहनतकश लोगों व कमजोर वर्गों के हित भी जुड़ जाएं। यदि ऐसा संभव हो तो पर्यावरण रक्षा और आजीविका की रक्षा इन दोनों सार्थक उद्देश्यों का आपस में समन्वय हो जाएगा। पर्यावरण भी बचेगा और गरीबी भी कम होगी। पर यदि इन दोनों उद्देश्यों का आपस में टकराव बढ़ा दिया गया तो देश की समस्याओं को सुलझाना और कठिन हो जाएगा। हमारे देश में प्रायः कमजोर वर्गों पर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में यह आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने किसी अन्य उपयोग के लिए रखी गई भूमि पर अतिक्रमण कर लिया है। इस आधार पर कठिनाई से रोजी-रोटी चला रहे लोगों को हटने को कहा जाता है। पर यह नहीं पूछा जाता है कि कितना अन्याय और कष्ट सहकर लोगों ने तथाकथित अतिक्रमण वाले स्थान को आवास या आजीविका के अनुकूल बनाया है। अनेक क्षेत्रों में आदिवासियों व वनों के आसपास रहने वाले अन्य परिवारों को कहा जाता है कि वे वन-भूमि पर खेती कर रहे हैं और उन्हें हटना पड़ेगा…

पर्यावरण संरक्षण की योजनाएं अक्सर समाज के हाशिए पर बसे लोगों को बेदखल करके बनती, बनाई जाती हैं, जबकि थोड़ी समझदारी रखी जाए तो उसी समाज की सहभागिता से पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ रोजगार भी पैदा किए जा सकते हैं। इस आलेख में इस विषय पर प्रकाश डालने की कोशिश करेंगे। आज पूरे विश्व में पर्यावरण संरक्षण के बढ़ते महत्त्व को स्वीकार किया जा रहा है। इसके बावजूद पर्यावरण की रक्षा के विभिन्न कार्यक्रमों को अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है। इस असफलता की एक बड़ी वजह यह है कि पर्यावरण रक्षा के कार्यक्रमों को कई बार ऐसा रूप दिया जाता है कि उससे आम मेहनतकश लोगों के हितों का मेल नहीं बन पाता है। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर कई बार शहरी गरीब लोगों को या किसानों व आदिवासियों को विस्थापित कर दिया जाता है। इस स्थिति में पर्यावरण रक्षा को जैसा व्यापक जन-समर्थन मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता है।

आज जरूरत इस बात की है कि पर्यावरण रक्षा के कार्यों को इस तरह आगे बढ़ाया जाए कि उनके साथ मेहनतकश लोगों व कमजोर वर्गों के हित भी जुड़ जाएं। यदि ऐसा संभव हो तो पर्यावरण रक्षा और आजीविका की रक्षा इन दोनों सार्थक उद्देश्यों का आपस में समन्वय हो जाएगा। पर्यावरण भी बचेगा और गरीबी भी कम होगी। पर यदि इन दोनों उद्देश्यों का आपस में टकराव बढ़ा दिया गया तो देश की समस्याओं को सुलझाना और कठिन हो जाएगा। हमारे देश में प्रायः कमजोर वर्गों पर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में यह आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने किसी अन्य उपयोग के लिए रखी गई भूमि पर अतिक्रमण कर लिया है। इस आधार पर कठिनाई से रोजी-रोटी चला रहे लोगों को हटने को कहा जाता है। पर यह नहीं पूछा जाता है कि कितना अन्याय और कष्ट सहकर लोगों ने तथाकथित अतिक्रमण वाले स्थान को आवास या आजीविका के अनुकूल बनाया है। अनेक क्षेत्रों में आदिवासियों व वनों के आसपास रहने वाले अन्य परिवारों को कहा जाता है कि वे वन-भूमि पर खेती कर रहे हैं और उन्हें हटना पड़ेगा। इससे कहीं बेहतर विकल्प है कि उनकी सहायता से ही वनीकरण किया जाए व उन्हें वृक्षारोपण, वनों की रक्षा आदि कार्यों के लिए मजदूरी ही न दी जाए, अपितु उन्हें वनों से लघु वन-उपज एकत्र करने का अधिकार भी दिया जाए। वनों के आसपास थोड़ी-बहुत खेती व पशुपालन का कार्य भी वे जारी रख सकते हैं। इस तरह पर्यावरण की रक्षा भी होगी व लोगों को टिकाऊ आजीविका भी प्राप्त होगी। कुछ शहरों में या उसके आसपास भी लोगों को कहा जाता है कि वे वन की जमीन का अतिक्रमण कर रहे हैं, अतः उन्हें हटना होगा। इस स्थिति में समाधान यह हो सकता है कि लोग अपने घरों में बने रहकर आसपास की भूमि में वनीकरण व हरियाली लाने की जिम्मेदारी संभालें। इसके लिए अपनी सामान्य आजीविका के साथ कुछ समय नियमित दे सकते हैं व इसके बदले में अपनी विभिन्न स्कीमों के अंतर्गत सरकार उन्हें कुछ भुगतान भी कर सकती है। जब वृक्ष बडे़ हो जाएं तो उनकी ‘लघु वनोपज’ पर इस समुदाय को अधिकार भी दिया जा सकता है। प्रायः गांवों में सबसे कमजोर आर्थिक स्थिति उनकी होती है जो भूमिहीन हैं। उनकी सहायता से आसपास के कुछ बंजर पड़े स्थानों को नए सिरे से हरा-भरा किया जा सकता है।

 इसके अनेक उपाय उपलब्ध हैं जैसे इस स्थान पर वर्षा के जल को रोकना, घेराबंदी या अन्य उपायों से यहां उभर रही हरियाली को बढ़ने का अवसर देना आदि। इन सभी कार्यों के दौरान भूमिहीन परिवारों को इन सभी कार्यों के लिए मजदूरी मिलनी चाहिए। जब वृक्ष बड़े हो जाएं तो उन्हें ‘लघु वनोपज’ के अधिकार दिए जा सकते हैं व आसपास कुछ पशुपालन व खेती भी कर सकते हैं। जब तक वे इन वनों की रक्षा करें, तब तक इस भूमि पर उनका हक सुनिश्चित कर देना चाहिए। इस तरह बहुत से बंजर-वीरान हरे-भरे हो जाएंगे, जल-संरक्षण भी होगा व साथ में अनेक बहुत से निर्धन परिवारों को टिकाऊ आजीविका प्राप्त हो जाएगी। आज कूड़ा-प्रबंधन का कार्य प्रायः बहुत अस्त-व्यस्त ढंग से होता है व इस कार्य में लगे मेहनतकशों को गंदगी की हालत में काम करना पड़ता है। पर यदि कूड़ा-प्रबंधन के कार्य को बेहतर नियोजन से किया जाए तो यह बहुत रचनात्मक कार्य हो सकता है। कूड़ा जहां उत्पन्न होता है वहां इसे कंपोस्ट होने वाले या बायोडिग्रेडेबल कूड़े, अन्य कूड़े व खतरना कूड़े में वर्गीकृत किया जा सकता है।

इस तरह कंपोस्ट कर खाद बनाने में व सही ढंग से कूड़े को रीसाईकिल करने में बहुत सहायता मिलेगी व कई रचनात्मक रोजगार उत्पन्न होंगे। कूड़े के बड़े पहाड़ नहीं बनेंगे व इसका बेहतर से बेहतर उपयोग भी हो सकेगा। इस तरह कई स्तरों पर हम पर्यावरण की रक्षा के उद्देश्य व आजीविका को टिकाऊ बनाने व अधिक आजीविका सृजन करने के उद्देश्यों को आपस में जोड़ सकते हैं। विभिन्न सार्थक उद्देश्यों का पालन एक साथ होना चाहिए। ऐसा न हो कि एक उद्देश्य आगे बढ़े तो दूसरा पीछे धकेला जाए। यदि इन विभिन्न उद्देश्यों के आपसी तालमेल व सामंजस्य के आधार पर योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़े तो निश्चय ही अधिक सफलता मिलेगी। यह बात समझने योग्य है कि जहां पर्यावरण संरक्षण अत्यंत जरूरी है, वहीं यह कार्य इस तरीके से होना चाहिए कि कमजोर वर्ग के लोगों को विस्थापित न होना पड़े, बल्कि उनके लिए कई तरह के रोजगार उत्पन्न किए जाने चाहिए। सरकार को योजनाएं बनाते हुए जहां विशेषज्ञों की राय लेनी चाहिए, वहीं स्थानीय प्रभावित हो रही आबादी के नुमाइंदों से भी विचार-विमर्श करना चाहिए। एक पंथ दो काज इस बात में है कि पर्यावरण का संरक्षण भी हो जाए और स्थानीय आबादी के लिए रोजगार भी उत्पन्न हो जाए। वनों के आसपास रह रही आबादी को वनाधिकार दिए जाने चाहिए। इससे उनका विकास सुनिश्चित किया जा सकता है, साथ ही पर्यावरण संरक्षण में उनका योगदान भी तय किया जा सकता है। देश के हर राज्य में इस नीति को योजनाबद्ध ढंग से लागू किया जा सकता है।

                                      -(सप्रेस)

भारत डोगरा

स्वतंत्र लेखक


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